देवताओं द्वारा स्कन्द का शिव-पार्वती के पास लाया जाना, उनका लाड़-प्यार, देवों के माँगने पर शिवजी का उन्हें तारक-वध के लिये स्वामी कार्तिक को देना, कुमार की अध्यक्षता में देवसेना का प्रस्थान, महीसागर-संगम पर तारकासुर का आना और दोनों सेनाओं में मुठभेड़, वीरभद्र का तारक के साथ घोर संग्राम, पुनः श्रीहरि और तारक में भयानक युद्ध

वन्दे वन्दनतुष्टमानसमतिप्रेमप्रियं प्रेमदं
पूर्ण पूर्णकरं प्रपूर्णनिखिलैश्वर्यैकवासं शिवम्।
सत्यं सत्यमयं त्रिसत्यविभवं सत्यप्रियं सत्यदं
विष्णुब्रह्मनुतं स्वकीयकृपयोपात्ताकृतिं शंकरम्।।


वन्दना करने से जिनका मन प्रसन्न हो जाता है, जिन्हें प्रेम अत्यन्त प्यारा है, जो प्रेम प्रदान करने वाले, पूर्णानन्दमय, भक्तों की अभिलाषा पूर्ण करने वाले, सम्पूर्ण ऐश्वर्यों के एकमात्र आवास स्थान और कल्याण स्वरूप हैं, सत्य जिनका श्रीविग्रह है, जो सत्यमय हैं, जिनका ऐश्वर्य त्रिकालाबाधित है, जो सत्यप्रिय एवं सत्य-प्रदाता हैं, ब्रह्मा और विष्णु जिनकी स्तुति करते हैं, स्वेच्छानुसार शरीर धारण करने वाले उन भगवान् शंकर की मैं वन्दना करता हूँ।

श्रीनारदजी ने पूछा – देवताओं का मंगल करने वाले देव! परमात्मा शिव तो सर्वसमर्थ हैं। आत्माराम होकर भी उन्होंने जिस पुत्र की उत्पत्ति के लिये पार्वती के साथ विवाह किया था, उनके वह पुत्र किस प्रकार उत्पन्न हुआ? तथा तारकासुर का वध कैसे हुआ? ब्रह्मन्! मुझ पर कृपा करके यह सारा वृतान्त पूर्ण रूप से वर्णन कीजिये।

इसके उत्तर में ब्रह्माजी ने कथाप्रसंग सुनाकर कुमार के गंगा से उत्पन्न होने तथा कृत्तिका आदि छः स्त्रियों के द्वारा उनके पाले जाने, उन छहों की संतुष्टि के लिये उनके छः मुख धारण करने और कृत्तिकाओं के द्वारा पाले जाने के कारण उनका 'कार्तिकेय' नाम होने की बात कही। तदनन्तर उनके शंकर-गिरिजा की सेवा में लाये जाने की कथा सुनायी। फिर ब्रह्माजी ने कहा – भगवान् शंकर ने कुमार को गोद में बैठाकर अत्यन्त स्नेह किया। देवताओं ने उन्हें नाना प्रकार के पदार्थ, विद्याएँ, शक्ति और अस्त्र-शस्त्रादि प्रदान किये। पार्वती के हृदय में प्रेम समाता नहीं था, उन्होंने हर्षपूर्वक मुसकरा कर कुमार को परमोत्तम ऐश्वर्य प्रदान किया, साथ ही चिरंजीवी भी बना दिया। लक्ष्मी ने दिव्य सम्पत तथा एक विशाल एंव अनोहर हार अर्पित किया। सावित्री ने प्रसन्न होकर सारी सिद्धविद्याएँ प्रदान कीं। मुनिश्रेष्ठ! इस प्रकार वहाँ महोत्सव मनाया गया। सभी के मन प्रसन्न थे। विशेषतः शिव और पार्वती के आनन्द का पार नहीं था। इसी बीच देवताओं ने भगवान् शंकर से कहा – प्रभो! यह तारकासुर कुमार के हाथों ही मारा जानेवाला है, इसीलिये ही यह (पार्वती-परिणय तथा कुमारोत्पत्ति आदि) उत्तम चरित घटित हुआ है। अतः हम लोगों के सुखार्थ उसका काम तमाम करने के हेतु कुमार को आज्ञा दीजिये। हम लोग आज ही अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित होकर तारक को मारने के लिये रण-यात्रा करेंगे।

ब्रह्माजी कहते हैं – मुने! यह सुनकर भगवान् शंकर का हृदय दयार्द्र हो गया। उन्होंने उनकी प्रार्थना स्वीकार करके उसी समय तारक का वध करने के लिये अपने पुत्र कुमार को देवताओं को सौंप दिया। फिर तो शिवजी की आज्ञा मिल जाने पर ब्रह्मा, विष्णु आदि सभी देवता एकत्र होकर गुह को आगे करके तुरंत ही उस पर्वत से चल दिये। उस समय श्रीहरि आदि देवताओं के मन में पूर्ण विश्वास था (कि ये अवश्य तारक का वध कर डालेंगे); वे भगवान् शंकर के तेज से भावित हो कुमार के सेनापतित्व में तारक का संहार करने के लिये (रणक्षेत्र में) आये। उधर महाबली तारक ने जब देवताओं के इस युद्धोद्योग को सुना, तब वह भी एक विशाल सेना के साथ देवों से युद्ध करने के लिये तत्काल ही चल पड़ा। उसकी उस विशाल वाहिनी को आती देख देवताओं को परम विस्मय हुआ। फिर तो वे बलपूर्वक बारंबार सिंहनाद करने लगे। उसी समय तुरंत ही भगवान् शंकर की प्रेरणा से विष्णु आदि सम्पूर्ण देवताओं के प्रति आकाशवाणी हुई।

आकाशवाणी ने कहा – देवगण! तुम लोग जो कुमार के अधिनायकत्व में युद्ध करने के लिये उद्यत हुए हो, इससे तुम संग्राम में दैत्यों को जीत कर विजयी होओगे।

ब्रहमाजी कहते हैं – मुने! उस आकाशवाणी को सुनकर सभी देवताओं का उत्साह बढ़ गया। उनका भय जाता रहा और वे वीरोचित गर्जना करने लगे। उनकी युद्धकामना बलवती हो उठी और वे सब-के-सब कुमार को अग्रणी बनाकर बड़ी उतावली के साथ महीसागर-संगम को गये। उधर बहुसंख्यक असुरों से घिरा हुआ वह तारक भी बहुत बड़ी सेना के साथ शीघ्र ही वहाँ आ धमका, जहाँ वे सभी देवता खड़े थे। उस असुर के आगमन-काल में प्रलयकालीन मेघों के समान गर्जना करने वाली रणभेरियाँ तथा अन्यान्य कर्कश शब्द करने वाले रणवाद्य बज रहे थे। उस समय तारकासुर के साथ आनेवाले दैत्य ताल ठोकते हुए गर्जना कर रहे थे। उनके पदाघात से पृथ्वी काँप उठती थी। उस अत्यन्त भयंकर कोलाहल को सुनकर भी सभी देवता निर्भय ही बने रहे। वे एक साथ मिलकर तारकासुर से लोहा लेने के लिये डटकर खड़े हो गये। उस समय देवराज इन्द्र कुमार को गजराज पर बैठाकर सबसे आगे खड़े हुए। वे लोकपालों से घिरे हुए थे और उनके साथ देवताओं की महती सेना थी। तत्पश्चात् कुमार ने उस गजराज को तो महेंद्र को ही दे दिया और वे स्वयं एक ऐसे विमान पर आरूढ़ हुए, जो परमाश्चर्यजनक तथा नाना प्रकार के रत्नों से सुशोभित था। उस समय उन विमान पर सवार होने से सर्वगुणसम्पन्न महायशस्वी शंकर-पुत्र कुमार उत्कृष्ट शोभा से संयुक्त होकर सुशोभित हो रहे थे। उनपर परम प्रकाशमान चँवर डुलाये जा रहे थे। इसी बीच बलाभिमानी एवं माहवीर देवता और दैत्य क्रोध से विह्वल होकर परस्पर युद्ध करने लगे। उस समय देवताओं और दैत्यों में बड़ा घमासान युद्ध हुआ। क्षणभर में ही सारी रणभूमि रुण्ड-मुण्डों से व्याप्त हो गयी।

तब महाबली तारकासुर बहुत बड़ी सेना के साथ देवताओं से युद्ध करने के लिये वेगपूर्वक आगे बढ़ा। उस रणदुर्मद तारक को युद्ध की कामना से आगे बढ़ते देखकर इन्द्र आदि देवता तुरंत ही उसके सामने आये। फिर तो दोनों सेनाओं में महान् कोलाहल होने लगा। तत्पश्चात् देवों तथा असुरों का विनाश करने वाला ऐसा द्वन्द्व युद्ध प्रारम्भ हुआ, जिसे देखकर वीर लोग हर्षोत्फुल्ल हो गये और कायरों के मन में भय समा गया। इसी समय वीरभद्र कुपित होकर महाबली प्रमथगणों के साथ वीराभिमानी तारक के समीप आ पहुँचे। वे बलवान् गणनायक भगवान् शिव के कोप से उत्पन्न हुए थे, अतः समस्त देवताओं को पीछे करके युद्ध की अभिलाषा से तारक के सम्मुख डट गये। उस समय प्रमथगणों तथा सारे असुरों के मन में परमोल्लास था, अतः वे उस महासमर में परस्पर गुत्थमगुत्थ होकर जूझने लगे। तदनन्तर वीरभद्र से तारक का भयानक युद्ध हुआ। इसी बीच असुरों की सेना रण से विमुख हो भाग चली। इस प्रकार अपनी सेना को तितर-बितर हुई देख उसका नायक तारकासुर क्रोध से भर गया और दस हजार भुजाएँ धारण करके सिंह पर सवार हो देवगणों को मार डालने के लिये वेगपूर्वक उनकी ओर झपटा। वह युद्ध के मुहाने पर देवों तथा प्रमथगणों को मार-मारकर गिराने लगा। तब प्रमथगणों के नेता महाबली वीरभद्र उसके उस कर्म को देखकर उसका वध करने के लिये अत्यन्त कुपित हो उठे। फिर तो उन्होंने भगवान् शिव के चरण-कमल का ध्यान करके एक ऐसा श्रेष्ठ त्रिशूल हाथ में लिया, जिसके तेज से सारी दिशाएँ और आकाश प्रकाशित हो उठे। इसी अवसर पर महान् कौतुक प्रदर्शन करनेवाले स्वामि कार्तिक ने तुरंत ही वीरबाहू द्वारा कहलाकर उस युद्ध को रोक दिया। तब स्वामी की आज्ञा से वीरभद्र उस युद्ध से हट गये। यह देखकर असुर-सेनापति महावीर तारक कुपित हो उठा। वह युद्ध-कुशल तथा नाना प्रकार के अस्त्रों का जानकार था, अतः देवताओं को ललकार-ललकारकर उन पर बाणों की वृष्टि करने लगा। उस समय बलवानों में श्रेष्ठ असुरराज तारक ने ऐसा महान् कर्म किया कि सारे देवता मिलकर भी उसका सामना न कर सके। उन भयभीत देवताओं को यों पिटते हुए देखकर भगवान् अच्युत को क्रोध हो आया और वे शीघ्र ही युद्ध करने के लिये तैयार हो गये। उन भगवान् श्रीहरि ने अपने आयुध सुदर्शनचक्र और शारंगधनुष शार्ङ्ग्धनुष को लेकर युद्धस्थल में महादैत्य तारक पर आक्रमण किया। मुने! तदनन्तर सबके देखते-देखते श्रीहरि और तारकासुर में अत्यन्त भयंकर एवं रोमांचकारी महायुद्ध छिड़ गया। इसी बीच अच्युत ने कुपित होकर महान् सिंहनाद किया और धधकती हुई ज्वालाओं के-से प्रकाशवाले अपने चक्र को उठाया। फिर तो श्रीहरि ने उसी चक्र से दैत्यराज तारक पर प्रहार किया। उसकी चोट से अत्यन्त व्यथित होकर वह असुर पृथ्वी पर गिर पड़ा। परंतु वह असुरनायक तारक अत्यन्त बलवान् था, अतः तुरंत ही उठकर उस दैत्यराज ने अपनी शक्ति से चक्र के दुकड़े-टुकड़े कर दिये। मुने! भगवान् विष्णु और तारकासुर दोनों बलवान् थे और दोनों में अगाध बल था, अतः युद्धस्थल में वे परस्पर जूझने लगे।

(अध्याय १ - ८)