ब्रह्माजी की आज्ञा से कुमार का युद्ध के लिये जाना, तारक के साथ उनका भीषण संग्राम और उनके द्वारा तारक का वध, तत्पश्चात् देवों द्वारा कुमार का अभिनन्दन और स्तवन, कुमार का उन्हें वरदान देकर कैलास पर जा शिव-पार्वती के पास निवास करना
तब ब्रह्माजी ने कहा – शंकरसुवन स्वामी कार्तिक! तुम तो देवाधिदेव हो। पार्वती-सुत! विष्णु और तारकासुर का यह व्यर्थ युद्ध शोभा नहीं दे रहा है; क्योंकि विष्णु के हाथों इस तारक की मृत्यु नहीं होगी। यह मुझसे वरदान पाकर अत्यन्त बलवान् हो गया है। यह मैं बिलकुल सत्य बात कह रहा हूँ। पार्वतीनन्दन! तुम्हारे अतिरिक्त इस पापी को मारनेवाला दूसरा कोई नहीं है, इसलिये महाप्रभो! तुम्हें मेरे कथनानुसार ही करना चाहिये। परंतप! तुम शीघ्र ही उस दैत्य का वध करने के लिये तैयार हो जाओ; क्योंकि पार्वतीपुत्र! तारक का संहार करने के निमित्त ही तुम शंकर से उत्पन्न हुए हो।
ब्रह्माजी कहते हैं – मुने! यों मेरा कथन सुनकर शंकरनन्दन कुमार कार्तिकेय ठठाकर हँस पड़े और प्रसनन्नतापूर्वक बोले – 'तथास्तु – ऐसा ही होगा।' तब महान् ऐश्वर्यशशाली शंकरसुवन कुमार तारकासुर के वध का निश्चय करके विमान से उतर पड़े और पैदल हो गये। जिस समय महाबली शिवपुत्र कुमार अपनी अत्यन्त चमकीली शक्ति को, जो लपटों से दमकती हुई एक बड़ी उल्का-सी जान पड़ती थी, हाथ में लेकर पैदल ही दौड़ रहे थे, उस समय उनकी अद्भुत शोभा हो रही थी। उनके मनमें तनिक भी व्याकुलता नहीं थी। वे परम प्रचण्ड और अप्रमेय बलशाली थे। उन षण्मुख को अपनी ओर आते देखकर तारक सुरश्रेष्ठों से बोला – 'क्या शत्रुओं का संहार करनेवाला कुमार यही है? मैं अकेला वीर इसके साथ युद्ध करूँगा और मैं ही समस्त वीरों, प्रमथगणों, लोकपालों तथा श्रीहरि जिनके नायक हैं, उन देवों को भी मार डालूगा।'
तदनन्तर देवताओंको दुर्वचन कहकर वह असुर तारक भीषण युद्ध करने लगा। उस समय बड़ा विकट संग्राम हुआ। तब शत्रु-वीरों का संहार करनेवाले कुमार ने शिवजी के चरणकमलों का स्मरण करके तारक के वध का विचार किया। फिर तो महातेजस्वी एंव महाबली कुमार रोषावेश में आकर गर्जना करने लगे और बहुत बड़ी सेना के साथ युद्ध के लिये डटकर खड़े हो गये। उस समय समस्त देवताओं ने जय-जयकार का शब्द किया और देवर्षियों ने इष्ट वाणी द्वारा उनकी स्तुति की। तब तारक और कुमार का संग्राम प्रारम्भ हुआ, जो अत्यन्त दुस्सह, महान् भयंकर और सम्पूर्ण प्राणियों को भयभीत करनेवाला था। कुमार और तारक दोनों ही शक्ति-युद्ध में परम प्रवीण थे, अतः अत्यन्त रोषावेश में वे परस्पर एक-दूसरे पर प्रहार करने लगे। परम पराक्रमी वे दोनों नाना प्रकार के पैंतरे बदलते हुए गर्जना कर रहे थे और अनेक प्रकार से दाव-पेंच से एक-दूसरे पर आघात कर रहे थे। उस समय देवता, गन्धर्व और किन्नर – सभी चुपचाप खड़े होकर वह दृश्य देखते रहे। उन्हें परम विस्मय हुआ – यहाँ तक कि वायु का चलना बंद हो गया, सूर्य की प्रभा फीकी पड़ गयी और पर्वत एवं वन-काननों सहित सारी पृथ्वी काँप उठी। इसी अवसर पर हिमालय आदि पर्वत स्नेहाभिभूत होकर कुमार की रक्षा के लिये वहाँ आये। तब उन सभी पर्वतों को भयभीत देखकर शंकर एवं गिरिजा के पुत्र कुमार उन्हें सान्त्वना देते हुए बोले।
कुमार ने कहा – 'महाभाग पर्वतो! तुम लोग खेद मत करो। तुम्हें किसी प्रकार की चिन्ता नहीं करनी चाहिये। मैं आज तुम सब लोगों की आँखों के सामने ही इस पापी का काम तमाम कर दूँगा।' यों उन पर्वतों तथा देवगणों को ढाढ़स बँधाकर कुमार ने गिरिजा और शम्भु को प्रणाम किया तथा अपनी कान्तिमती शक्ति को हाथ में लिया। शम्भुपुत्र कुमार महाबली तथा महान् ऐश्वर्यशाली तो थे ही। जब उन्होंने तारक का वध करने की इच्छा से शक्ति हाथ में ली, उस समय उनकी अद्भुत शोभा हुई। तदनन्तर शंकरजी के तेज से सम्पन्न कुमार ने उस शक्ति से तारकासुर पर, जो समस्त लोकों को कष्ट देनेवाला था, प्रहार किया। उस शक्ति के आघात से तारकासुर के सभी अंग छिन्न-भिन्न हो गये और सम्पूर्ण असुरगणों का अधिपति वह महावीर सहसा धराशायी हो गया। मुने! सबके देखते-देखते वहीं कुमार द्वारा मारे गये तारक के प्राणपखेरू उड़ गये। उस उत्कृष्ट वीर तारक को महासमर में प्राणरहित होकर गिरा हुआ देखकर वीरवर कुमार ने पुनः उस पर वार नहीं किया। उस महाबली दैत्यराज तारक के मारे जाने पर देवताओं ने बहुत-से असुरों को मौत के घाट उतार दिया। उस युद्ध में कुछ असुरों ने भयभीत होकर हाथ जोड़ लिये, कुछ के शरीर छिन्न-भिन्न हो गये और हजारों दैत्य मृत्यु के अतिथि बन गये। कुछ शरणार्थी देत्य अंजलि बाँधकर 'पाहि-पाहि – रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये' यों पुकारते हुए कुमार के शरणापन्न हो गये। कुछ मार डाले गये और कुछ मैदान छोड़कर भाग गये। सहस्त्रों दैत्व जीवन की आशा से भागकर पाताल में घुस गये। उन सबकी आशाएँ भग्न हो गयी थीं और मुख पर दीनता छायी हुई थी।
मुनीश्वर! इस प्रकार वह सारी दैत्य सेना विनष्ट हो गयी। देवगणों के भय से कोई भी वहाँ ठहर न सका। उस दुरात्मा तारक के मारे जाने पर सभी लोक निष्कण्टक हो गये और इन्द्र आदि सभी देवता आनन्दमग्न हो गये। यों कुमार को विजयी देखकर एक साथ ही सम्पूर्ण देवताओं तथा त्रिलोकी के समस्त प्राणियों को महान् आनन्द प्राप्त हुआ। उस समय भगवान् शंकर भी कार्तिकेय की विजय का समाचार पाकर प्रसन्नता से भर गये और पार्वतीजी के साथ गणों से घिरे हुए वहाँ पधारे। तब जिनके हृदय में स्नेह समाता नहीं था, वे पार्वतीजी परम प्रेमपूर्वक सूर्य के समान तेजस्वी अपने पुत्र कुमार को अपनी गोद में लेकर लाड़-प्यार करने लगीं। उसी अवसर पर अपने पुत्रों से घिरे हुए हिमालय ने बन्धु-बान्धवों तथा अनुयायियों के साथ आकर शम्भु, पार्वती और गुह का स्तवन किया। तत्पश्चात् सम्पूर्ण देवगण, मुनि, सिद्ध और चारणों ने शिवनन्दन कुमार, शम्भु और परम प्रसन्न हुई पार्वती की स्तुति की। उस समय उपदेवों ने बहुत बड़ी पुष्प-वर्षा की। सभी प्रकार के बाजे बजने लगे। विशेष रूप से जयकार और नमस्कार के शब्द बारंबार उच्च स्वर से गूँजने लगे। उस समय वहाँ एक महान् विजयोत्सव मनाया गया, जिसमें कीर्तन की विशेषता थी और वह स्थान गाने-बजाने के शब्द तथा अधिकाधिक ब्रह्मघोष से व्याप्त था। मुने! समस्त देवगणों ने प्रसन्नतापूर्वक गा-बजाकर तथा हाथ जोड़कर भगवान् जगन्नाथ की स्तुति की। तत्पश्चात् सबसे प्रशंसित तथा अपने गणों से घिरे हुए भगवान् रुद्र जगज्जननी भवानी के साथ अपने निवास स्थान कैलास पर्वत को चले गये।
इधर तारक को मारा गया देखकर सभी देवताओं तथा अन्य समस्त प्राणियों के चेहरे पर हँसी खेलने लगी। वे भक्तिपूर्वक शंकरसुवन कुमार की स्तुति करने लगे – 'देव! तुम दानवश्रेष्ठ तारक का हनन करनेवाले हो, तुम्हें नमस्कार है। शंकरनन्दन! तुम बाणासुर के प्राणों का अपहरण करनेवाले तथा प्रलम्बासुर के विनाशक हो। तुम्हारा स्वरूप परम पवित्र है, तुम्हें हमारा अभिवादन है।'
ब्रह्माजी कहते हैं – मुने! जब विष्णु आदि देवताओं ने इस प्रकार कुमार का स्तवन किया, तब उन प्रभु ने सभी देवों को क्रमशः नया-नया वर प्रदान किया। तत्पश्चात् पर्वतों को स्तुति करते देखकर वे शंकर-तनय परम प्रसन्न हुए और उन्हें वर देते हुए बोले।
स्कन्द ने कहा – भूधरो! तुम सभी पर्वत तपस्वियों द्वारा पूजनीय तथा कर्मठ और ज्ञानियों के लिये सेवनीय होओगे। ये जो मेरे मातामह (नाना) पर्वतश्रेष्ठ हिमवान् हैं, ये महाभाग आज से तपस्वियों के लिये फलदाता होंगे।
तब देवता बोले - कुमार! यों असुरराज तारक को मारकर तथा देवों को वर प्रदान करके तुमने हम सबको तथा चराचर जगत् को सुखी कर दिया। अब तुम्हें परम प्रसन्ततापूर्वक अपने माता-पिता पार्वती और शंकर का दर्शन करनेके लिये शिव के निवासभूत कैलास पर चलना चाहिये।
ब्रह्माजी कहते हैं – मुने! तदनन्तर सब देवताओं के साथ विमान पर चढ़कर कुमार स्कन्द शिवजी के समीप कैलास पहुँच गये। उस समय शिव-शिवा ने बड़ा आनन्द मनाया। देवताओं ने शिवजी की स्तुति की। शिवजी ने उन्हें वरदान तथा अभयदान देकर विदा किया। मुने! उस अवसर पर देवताओं को परम आनन्द प्राप्त हुआ। वे शिव, पार्वती तथा शंकरनन्दन कुमार के रमणीय यश का बखान करते हुए अपने-अपने लोक को चले गये। इधर परमेश्वर शिव भी शिवा, कुमार तथा गणों के साथ आनन्दपूर्वक उस पर्वत पर निवास करने लगे। मुने! इस प्रकार जो शिव-भक्ति से ओतप्रोत, सुखदायक एवं दिव्य है, कुमार का वह सारा चरित्र मैंने तुमसे वर्णन कर दिया।
(अध्याय ९ - १२)