शिवा का अपनी मैल से गणेश को उत्पन्न करके द्वारपाल-पद पर नियुक्त करना, गणेश द्वारा शिवजी के रोके जाने पर उनका शिवगणों के साथ भयंकर संग्राम, शिवजी द्वारा गणेश का शिरश्छेदन, कुपित हुई शिवा का शक्तियों को उत्पन्न करना और उनके द्वारा प्रलय मचाया जाना, देवताओं और ऋषियों का स्तवन द्वारा पार्वती को प्रसन्न करना, उनके द्वारा पुत्र को जिलाये जाने की बात कही जाने पर शिवजी के आज्ञानुसार हाथि का सिर लाना और गणेश के धड़ से जोड़कर उन्हें जीवित करना
सूतजी कहते हैं – तारकारि कुमार के उत्तम एंव अद्भुत वृतान्त को सुनकर नारदजी को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने पुनः प्रेमपूर्वक ब्रह्माजी से पूछा।
नारदजी बोले – देवदेव! आप तो शिव-सम्बन्धी ज्ञान के अथाह सागर हैं। प्रजानाथ! मैंने स्वामी कार्तिक के सद्वृतान्त को जो अमृत से भी उत्तम है, सुन लिया। अब गणेश का उत्तम चरित्र सुनना चाहता हूँ। आप उनका जन्म वृतान्त तथा दिव्य चरित्र, जो सम्पूर्ण मंगलों के लिये भी मंगलस्वरुप है, वर्णन कीजिये।
सूतजी कहते हैं – महामुनि नारद का ऐसा वचन सुनकर ब्रह्माजी का मन हर्ष से गदगद हो गया। वे शिवजी का स्मरण करके बोले।
ब्रह्माजी ने कहा – नारद! पहले जो मैंने विधिपूर्वक गणेश की उत्पत्ति का वर्णन किया था कि शनि की दृष्टि पड़ने से गणेश का मस्तक कट गया था, तब उस पर हाथी का मुख लगा दिया था, वह कल्पान्तर की कथा है! अब श्वेतकल्प में घटित हुई गणेश की जन्म-कथा का वर्णन करता हूँ, जिसमें कृपालु शंकर ने ही उनका मस्तक काट लिया था। मुने! इस विषय में तुम्हें संदेह नहीं करना चाहिये; क्योंकि भगवान् शम्भु कल्याणकारी, सृष्टिकर्ता और सबके स्वामी हैं। वे ही सगुण और निर्गुण भी हैं। उन्हीं की लीला से सारे विश्व की सृष्टि, रक्षा और विनाश होता है। मुनिश्रेष्ठ! अब प्रस्तुत विषय को आदरपूर्वक श्रवण करो।
एक समय पार्वतीजी की जया-विजया नामवाली सखियाँ उनके पास आकर विचार करने लगीं – 'सखी! सभी गण रुद्र के ही हैं। नन्दी, भृंगी आदि जो हमारे हैं, वे भी शिव के ही आज्ञापालन में तत्पर रहते हैं। जो असंख्य प्रमथगण हैं, उनमे भी हमारा होई नहीं है। वे सभी शिवाज्ञापरायण होकर द्वार पर खड़े रहते हैं। यद्यपि वे सभी हमारे भी हैं, तथापि उनसे हमारा मन नहीं मिलता; अतः पापरहिते! आपको भी हमारे लिये एक गण की रचना करनी चाहिये।'
ब्रह्माजी कहते हैं – मुने! जव सखियों ने पार्वतीजी से ऐसा सुन्दर वचन कहा, तब उन्होंने उसे हितकारक माना और वैसा करने का विचार भी किया। तदनन्तर किसी समय जब पार्वतीजी स्नान कर रही थीं, तब सदाशिव नन्दी को डरा- धमकाकर घर के भीतर चले आये। शंकरजी को आते देखकर स्नान करती हुई जगज्जननी पार्वती उठकर खड़ी हो गयीं। उस समय उनको बड़ी लज्जा आयी। वे आश्चर्यचकित हो गयीं। उस अवसर पर उन्होंने सखियों के वचन को हितकारक तथा सुखप्रद माना। उस समय ऐसी घटना घटित होने पर परमाया परमेश्वरी शिवपत्नी पार्वती ने मन में ऐसा विचार किया कि मेरा कोई एक ऐसा सेवक होना चाहिये, जो परम शुभ, कार्यकुशल और मेरी ही आज्ञा में तत्पर रहनेवाला हो, उससे तनिक भी विचलित होने वाला ने हो। यों विचार कर पार्वती देवी ने अपने शरीर की मैल से एक ऐसे चेतन पुरुष का निर्माण किया, जो सम्पूर्ण शुभलक्षणों से संयुक्त था। उसके सभी अंग सुन्दर एवं दोषरहित थे। उसका वह शरीर विशाल, परम शोभायमान और महान् बल-पराक्रम से सम्पन्न था। देवी ने उसे अनेक प्रकार के वस्त्र, नाना प्रकार के आभूषण और बहुत-सा उत्तम आशीर्वाद देकर कहा – 'तुम मेरे पुत्र हो। मेरे अपने ही हो। तुम्हारे समान प्यारा मेरा यहाँ कोई दूसरा नहीं है।' पार्वती के ऐसा कहने पर वह पुरुष उन्हें नमस्कार करके बोला।
गणेश ने कहा – माँ! आज आपको कौन-सा कार्य आ पड़ा है? मैं आपके कथनानुसार उसे पूर्ण करूँगा।' गणेश के यों पूछने पर पार्वती जी अपने पुत्र को उत्तर देते हुए बोली।
शिवा ने कहा – तात! तुम मेरे पुत्र हो, मेरे अपने हो। अतः तुम मेरी बात सुनो। आज से तुम मेरे द्वारपाल हो जाओ। सत्पुरुष! मेरी आज्ञा के बिना कोई भी हठपूर्वक मेरे महल के भीतर प्रवेश न करने पाये, चाहे वह कहीं से भी आये, कोई भी हो। बेटा! यह मैंने तुमसे बिलकुल सत्य बात कही है।
ब्रह्माजी कहते हैं – मुने! यों कहकर पार्वती ने गणेश के हाथ में एक सुदृढ़ छड़ी दे दी। उस समय उनके सुन्दर रूप को निहार कर पार्वती हर्षमग्न हो गयीं। उन्होंने परम प्रेमपूर्वक अपने पुत्र का मुख चूमा और कृपापरवश हो छाती से लगा लिया। फिर दण्डधारी गणराज को अपने द्वार पर स्थापित कर दिया। बेटा नारद! तदनन्तर पार्वतीनन्दन महावीर गणेश पार्वती की हितकामना से हाथ में छड़ी लेकर गृह-द्वार पर पहरा देने लगे। उधर शिवा अपने पुत्र गणेश को अपने दरवाजे पर नियुक्त करके स्वयं सखियों के साथ स्नान करने लगीं। मुनिश्रेष्ठ! इसी समय भगवान् शिव, जो परम कौतुकी तथा नाना प्रकार की लीलाएँ रचने में निपुण हैं, द्वार पर आ पहुँचे। गणेश उन पार्वतीपति को पहचानते तो थे नहीं, अतः बोल उठे – 'देव! माता की आज्ञा के बिना तुम अभी भीतर न जाओ। माता स्नान करने बैठ गयी हैं। तुम कहाँ जाना चाहते हो? इस समय यहाँ से हट जाओ।' यों कहकर गणेश ने उन्हें रोकने के लिये छड़ी हाथ में ले ली। उन्हें ऐसा करते देख शिवजी बोले – 'मुर्ख! तू किसे रोक रहा है? दुर्बुद्धे! क्या तू मुझे नहीं जानता? मैं शिव के अतिरिक्त और कोई नहीं हूँ।'
फिर महेश्वर के गण उसे समझाकर हटाने के लिये वहाँ आये और गणेश से बोले – सुनो, हम मुख्य शिवगण ही द्वारपाल हैं और सर्वव्यापी भगवान् शंकर की आज्ञा से तुम्हें हटाने के लिये यहाँ आये हैं। तुम्हें भी गण समझकर हम लोगों ने मारा नहीं है, अन्यथा तुम कब के मारे गये होते। अब कुशल इसी में है कि तुम स्वतः ही दूर हट जाओ। क्यों व्यर्थ अपनी मृत्यु बुला रहे हो?
ब्रह्माजी कहते हैं – मुने! यों कहे जाने पर भी गिरिजानन्दन गणेश निर्भय ही बने रहे। उन्होंने शिवगणों को फटकारा और दरवाजे को नहीं छोड़ा। तब उन सभी शिवगणों ने शिवजी के पास जाकर सारा वृतान्त उन्हें सुनाया। मुने! उनसे सब बातें सुनकर संसार के गतिस्वरूप अद्भुत लीलाविहारी महेश्वर अपने उन गणों को डाँटकर कहने लगे।
महेश्वर ने कहा – 'गणों! यह कौन है, जो इतना उच्छृंकल होकर शत्रु की भाँति बक रहा है? इस नवीन द्वारपाल को दूर भगा दो। तुम लोग नपुंसक की तरह खड़े होकर उसका वृतान्त मुझे क्यों सुना रहे हो।' विचित्र लीला रचनेवाले अपने स्वामी शंकर के यों कहने पर वे गण पुनः वहीं लौट आये। तदनन्तर गणेश द्वारा पुनः रोके जाने पर शिवजी ने गणों को आज्ञा दी कि 'तुम पता लगाओ, यह कौन है और क्यों ऐसा कर रहा है?' गणों ने पता लगाकर बताया कि 'ये श्रीगिरिजा के पुत्र हैं तथा द्वारपाल के रूप में बैठे हैं।' तब लीलारूप शंकर ने विचित्र लीला करनी चाही तथा अपने गणों का गर्व भी गलित करना चाहा। इसलिये गणों को तथा देवताओं को बुलाकर गणेशजी से भीषण युद्ध करवाया। पर वे कोई भी गणेश को पराजित न कर सके। तब स्वयं शूलपाणि महेश्वर आये। गणेशजी के माता के चरणों का स्मरण किया, तब शक्ति ने उन्हें बल प्रदान कर दिया। सभी देवता शिवजी के पक्ष में आ गये, घोर युद्ध हुआ। अन्ततोगत्वा स्वयं शूलपाणि महेश्वर ने आकर त्रिशूल से गणेशजी का सिर काट दिया। जब यह समाचार पार्वतीजी को मिला, तब वे क्रुद्ध हो गयीं और बहुत-सी शक्तियों को उत्पन्न करके उन्होंने बिना विचारे उन्हें प्रलय करने की आज्ञा दे दी। फिर तो शक्तियों के द्वारा प्रलय मचायी जाने लगी। उन शक्तियों का वह जाज्वल्यमान तेज सभी दिशाओं को दग्ध-सा किये डालता था। उसे देखकर वे सभी शिवगण भयभीत हो गये और भागकर दूर जा खड़े हुए।
मुने! इसी समय तुम दिव्यदर्शन नारद वहाँ आ पहुँचे। तुम्हारा वहाँ आने का अभिप्राय देवगणों को सुख पहुँचाना था। तब तुमने मुझ देवताओं सहित शंकर को प्रणाम करके कहा कि इस विषय में सबको मिलकर विचार करना चाहिये। तब वे सभी देवता तुझ महामना के साथ सलाह करने लगे कि इस दुःख का शमन कैसे हो सकता है। फिर उन्होंने यही निश्चय किया कि जब तक गिरिजादेवी कृपा नहीं करेंगी तब तक सुख नहीं प्राप्त हो सकेगा। अब इस विषय में और विचार करना व्यर्थ है। ऐसी धारणा करके तुम्हारे सहित सभी देवता और ऋषि भगवती शिवा के निकट गये और क्रोध की शान्ति के लिये उन्हें प्रसन्न करने लगे। उन्होंने प्रेमपूर्वक उन्हें प्रसन्न करते हुए अनेकों स्तोत्रों द्वारा उनकी स्तुति करके बारंबार उनके चरणों में अभिवादन किया। फिर देवगण की आज्ञा से ऋषि बोले।
देवर्षियों ने कहा – जगदम्बे! तुम्हें नमस्कार है। शिवपत्नी! तुम्हें प्रणाम है। चण्डिके! तुम्हें हमारा अभिवादन प्राप्त हो। कल्याणि! तुम्हें बारंबार प्रणाम है। अम्बे! तुम्हीं आदिशक्ति हो। तुम्हीं सदा सारी सृष्टि की निर्माणकर्त्री, पालिकाशक्ति और संहार करने वाली हो। देवेशि! तुम्हारे कोप से सारी त्रिलोकी विकल हो रही है, अतः अब प्रसन्न हो जाओ और क्रोध को शान्त करो। देवि! हम लोग तुम्हारे चरणों में मस्तक झुकाते है।
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! यों तुम सभी ऋषियों द्वारा स्तुति किये जाने पर भी परादेवी पार्वती ने उनकी ओर क्रोध भरी दृष्टि से ही देखा, किंतु कुछ कहा नहीं। तब उन ऋषियों ने पुनः उनके चरणकमलों में सिर झुकाया और भक्तिपूर्वक हाथ जोड़कर पार्वतीजी से निवेदन किया।
ऋषियों ने कहा – देवि! अभी संहार होना चाहता है; अतः क्षमा करो, क्षमा करो। अम्बिके! तुम्हारे स्वामी शिव भी तो यहीं स्थित हैं, तनिक उनकी ओर तो दृष्टिपात करो। हम लोग, ये ब्रह्मा, विष्णु आदि देवता तथा सारी प्रजा – सब तुम्हारे ही हैं और व्याकुल होकर अंजलि बाँधे तुम्हारे सामने खड़े हैं। परमेश्वरि! इन सबका अपराध क्षमा करो। शिवे! अब इन्हें शान्ति प्रदान करो।
ब्रह्माजी कहते हैं – मुने! सभी देवर्षि यों कहकर अत्यन्त दीनभाव से व्याकुल हो हाथ जोड़कर चण्डिका के सम्मुख खड़े हो गये। उनका ऐसा कथन सुनकर चण्डिका प्रसन्न हो गयीं। उनके हृदय में करुणा का संचार हो आया। तब वे ऋषियों से बोलीं।
देवी ने कहा – ऋषियों! यदि मेरा पुत्र जीवित हो जाय और वह तुम लोगों के मध्य पूजनीय मान लिया जाय तो संहार नहीं होगा। हब तुम लोग उसे 'सर्वाध्यक्ष' का पद प्रदान कर दोगे तभी लोक में शान्ति हो सकती है, अन्यथा तुम्हें सुख नहीं प्राप्त हो सकता।
ब्रह्माजी कहते हैं – मुने! पार्वती के यों कहने पर तुम सभी ऋषियों ने उन देवताओं के पास आकर सारा वृतान्त कह सुनाया। उसे सुनकर इन्द्र आदि सभी देवताओं के चेहरे पर उदासी छा गयी। वे शंकरजी के पास गये और हाथ जोड़कर उनके चरणों में नमस्कार करके सारा समाचार निवेदन कर दिया। देवताओं का कथन सुनकर शिवजी ने कहा – 'ठीक है, जिस प्रकार सारी त्रिलोकी को सुख मिल सके वही करना चाहिये। अतः अब उत्तर दिशा की ओर जाना चाहिये और जो जीव पहले मिले, उसका सिर काटकर उस बालक के शरीर पर जोड़ देना चाहिये।'
ब्रह्माजी कहते हैं – मुने! तदनन्तर शिवजी की आज्ञा का पालन करने वाले उन देवताओं ने वह सारा कार्य सम्पन्न किया। उन्होंने उस शिशु-शरीर को धो-पोंछकर विधिवत उसकी पूजा की। फिर वे उत्तर दिशा की ओर गये। वहाँ उन्हें पहले-पहल एक दाँतवाला एक हाथी मिला। उन्होंने उसका सिर लाकर उस शरीर पर जोड़ दिया। हाथी के उस सिर को संयुक्त कर देने के पश्चात् सभी देवताओं ने भगवान् शिव आदि को प्रणाम करके कहा कि हम लोगों ने अपना काम पूरा कर दिया। अब जो करना शेष है, उसे आप लोग पूर्ण करें।
ब्रह्माजी कहते हैं – तब शिवाज्ञा-पालन-सम्बन्धिनी देवताओं की बात सुनकर सभी देवों और पार्षदों को महान् आनन्द हुआ। तत्पश्चात् ब्रह्मा, विष्णु आदि सभी देवता अपने स्वामी निर्गुणस्वरूप भगवान् शंकर को प्रणाम करके बोले – 'स्वामिन्! आप महात्मा के जिस तेज से हम सभी उत्पन्न हुए हैं, आपका वही तेज वेदमन्त्र के अभियोग से इस बालक में प्रवेश करें।' इस प्रकार सभी देवताओं ने मिलकर वेदमन्त्र द्वारा जल को अभिमन्त्रित किया, फिर शिवजी का स्मरण करके उस उत्तम जल को बालक के शरीर पर छिड़क दिया। उस जल का स्पर्श होते ही वह बालक शिवेच्छा से शीघ्र ही चेतनायुक्त होकर जीवित हो गया और सोये हुए की तरह उठ बैठा। वह सौभाग्यशाली बालक अत्यन्त सुन्दर था। उसका मुख हाथीका-सा था। शरीर का रंग हरा-लाल था। चेहरे पर प्रसन्नता खेल रही थी। उसकी आकृति कमनीय थी और उसकी सुन्दर प्रभा फैल रही थी। मुनीश्वर! पार्वतीनन्दन उस बालक को जीवित देखकर वहाँ उपस्थित सभी लोग आनन्दमय हो गये और सारा दुःख विलीन हो गया। तब हर्ष-विभोर होकर सभी लोगों ने उस बालक को पार्वतीजी को दिखाया। अपने पुत्र को जीवित देखकर पार्वतीजी परम प्रसन्न हुईं।
(अध्याय १३ - १८)