पार्वती द्वारा गणेशजी को वरदान, देवों द्वारा उन्हें अग्रपूज्य माना जाना, शिवजी द्वारा गणेश को सर्वाध्यक्ष-पद प्रदान और गणेशचतुर्थी-व्रत का वर्णन, तत्पश्चात् सभी देवताओं का उनकी स्तुति करके हर्षपूर्वक अपने-अपने स्थान को लौट जाना
ब्रह्माजी कहते हैं – मुने! जब विकृत स्वरूपवाले गिरिजा-पुत्र गजानन व्यग्रतारहित होकर जीवित हो उठे, तब गणनायक देवों ने उनका अभिषेक किया। अपने पुत्र को देखकर पार्वती देवी आनन्दमग्न हो गयीं और उन्होंने हर्षातिरेक से उस बालक को दोनों हाथों से पकड़ कर छाती से लगा लिया। फिर अम्बिका ने प्रसन्न होकर अपने पुत्र गणेश को अनेक प्रकार के वस्त्र और आभूषण प्रदान किये। तदनन्तर सिद्धियों ने अनेकों विधि-विधान से उनका पूजन किया और माता ने अपने सर्वदुःखहारी हाथ से उनके अंगों का स्पर्श किया। इस प्रकार शिव-पत्नी पार्वती देवी ने अपने पुत्र का सत्कार करके उसका मुख चूमा और प्रेमपूर्वक उसे वरदान देते हुए कहा – 'बेटा! इस समय तुझे बड़ा कष्ट झेलना पड़ा है। किंतु अब तू कृतकृत्य हो गया है। तू धन्य है। अब से सम्पूर्ण देवताओं में तेरी अग्रपूजा होती रहेगी और तुझे कभी दुःख का सामना नहीं करना पड़ेगा। चूँकि इस समय तेरे मुख पर सिन्दूर दीख रहा है। इसलिये मनुष्यों को सदा सिन्दूर से तेरी पूजा करनी चाहिये। जो मनुष्य पुष्प, चन्दन, सुन्दर गंध, नैवेद्य, रमणीय आरती, ताम्बूल और दान से तथा परिक्रमा और नमस्कार करके विधिपूर्वक तेरी पूजा करेगा, उसे सारी सिद्धियाँ हस्तगत हो जायँगी और उसके सभी प्रकार के विघ्न नष्ट हो जायँगे – इसमें लेशमात्र भी संशय नहीं है।'
ब्रह्माजी कहते हैं – मुने! महेश्वरी देवी ने अपने पुत्र गणेश से यों कहकर उसे नाना प्रकार की वस्तुएँ प्रदान करके पुनः उसका अभिनन्दन किया। विप्र! तब गिरिजा की कृपा से उसी क्षण देवताओं और शिवगणों का मन विशेष रूप से शान्त हो गया। तदनन्तर इन्द्र आदि देवताओं ने हर्षातिरेक से शिवा की स्तुति की और उन्हें प्रसन्न करके वे भक्तिभावित चित्त से गणेश देव को लेकर शिवजी के समीप चले। वहाँ पहुँचकर उन्होंने त्रिलोकी की कल्याण-कामना से भवानी के उस बालक को शिवजी की गोद में बैठा दिया। तब शिवजी भी उस बालक के मस्तक पर अपना करकमल फेरते हुए देवताओं से बोले – 'यह मेरा दूसरा पुत्र है।' तत्पश्चात् गणेश ने भी उठकर शिवजी के चरणों में अभिवादन किया। फिर पार्वती को, मुझको, विष्णु को और नारद आदि सभी ऋषियों को प्रणाम करके आगे खड़े होकर उन्होंने कहा – 'यों अभिमान करना मनुष्यों का स्वभाव ही है, अतः आप लोग मेरा अपराध क्षमा करें।' तब मैं, शंकर और विष्णु – इन तीनों देवताओं ने एक साथ ही प्रेमपूर्वक उन्हें उत्तम वर प्रदान करते हुए कहा – 'सुरवरो! जैसे त्रिलोकी में हम तीनों देवों की पूजा होती है, उसी तरह तुम सबको इन गणेश का भी पूजन करना चाहिये। मनुष्यों को चाहिये कि पहले इनकी पूजा करके तत्पश्चात् हम लोगों का पूजन करें। ऐसा करने से हम लोगों की पूजा सम्पन्न हो जायगी। देवगणों! यदि कहीं इनकी पूजा पहले न करके अन्य देव का पूजन किया गया तो उस पूजन का फल नष्ट हो जायगा – उसमें अन्यथा विचार करने की आवश्यकता नहीं है।'
ब्रह्माजी कहते हैं – मुने! तदनन्तर ब्रह्मा, विष्णु और शंकर आदि सभी देवताओं ने मिलकर पार्वती को प्रसन्न करने के लिये वहीं गणेश को 'सर्वाध्यक्ष' घोषित कर दिया। उसी समय शिवजी परम प्रसन्न चित्त से पुनः गणेश को लोक में सर्वदा सुख देने वाले अनेकों वर प्रदान करते हुए बोले –
शिवजी ने कहा – गिरिजानन्दन! निस्संदेह मैं तुझ पर परम प्रसन्न हूँ। मेरे प्रसन्न हो जाने पर अब तू सारे जगत् को ही प्रसन्न हुआ समझ। अब कोई भी तेरा विरोध नहीं कर सकता। तू शक्ति का पुत्र है, अतः अत्यन्त तेजस्वी है। बालक होने पर भी तूने महान् पराक्रम प्रकट किया है, इसलिये तू सदा सुखी रहेगा। विघ्ननाश के कार्य में तेरा नाम सबसे श्रेष्ठ होगा। तू सबका पूज्य है, अतः अब मेरे सम्पूर्ण गणों का अध्यक्ष हो जा।
इतना कहने के पश्चात् महात्मा शंकर अत्यन्त प्रसन्नता के कारण गणेश को पुनः वरदान देते हुए बोले – 'गणेश्वर! तू भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी तिथि को चन्द्रमा का शुभोदय होने पर उत्पन्न हुआ है। जिस समय गिरिजा के सुन्दर चित्त से तेरा रूप प्रकट हुआ, उस समय रात्रि का प्रथम प्रहर बीत रहा था। इसलिये उसी दिन से आरम्भ करके उसी तिथि में तेरा उत्तम व्रत करना चाहिये। यह व्रत परम शोभन तथा सम्पूर्ण सिद्धियों का प्रदाता है। वर्ष के अन्त में जब पुनः वही चतुर्थी आ जाय तब तक मेरे कथनानुसार तेरे व्रत का पालन करना चाहिये। जिन्हें संसार में अनेकों प्रकार के अनुपम सुखों की कामना हो, उन्हें चतुर्थी के दिन भक्तिपूर्वक विधिसहित तेरा पूजन करना चाहिये। जब मार्गशीर्ष मास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी आये तब उस दिन प्रातःकाल स्नान करके व्रत के लिये ब्राह्मणों से निवेदन करे। पूर्वोक्त विधि से उपवास करे। फिर धातु की, मूँगे की, श्वेत मदार की अथवा मिट्टी की मूर्ति बनाकर उसकी प्राण-प्रतिष्ठा करे और भक्तिभाव से नाना प्रकार के दिव्य गन्धों, चन्दनों और पुष्पों से उसकी पूजा करे। पुनः रात्रि का प्रथम प्रहर बीत जाने पर स्नान करके दुर्वादलों से पूजन करना चाहिये। यह दूर्वा जड़रहित, बारह अंगुल लम्बी और तीन गाँठोंवाली होनी चाहिये। ऐसी एक सौ एक अथवा इक्कीस दूर्वा से उस स्थापित प्रतिमा की पूजा करे। तत्पश्चात् धूप, दीप, अनेक प्रकार के नैवेद्य, ताम्बूल, अर्ध्य और उत्तम-उत्तम पदार्थो द्वारा गणेश की पूजा करे और स्तवन करके उसके आगे प्रणिपात करे। यों गणेश की पूजा करने के पश्चात् बालचन्द्रमा का पूजन करे। तत्पश्चात् हर्षपूर्वक ब्राह्मणों की पूजा करके उन्हें मिष्टान्न का भोजन कराये। उनके भोजन कर लेने के बाद स्वयं भी नमक रहित मिष्टान्न का ही प्रसाद पाये। फिर गणेश का स्मरण करके अपने सभी नियमों का विसर्जन कर दे। इस प्रकार करने से यह शुभव्रत पूर्ण होता है।
'बेटा! यों व्रत करते-करते जब वर्ष पूरा हो जाय, तब व्रती मनुष्य को चाहिये कि वह व्रत की पूर्ति के लिये व्रतोद्यापन का कार्य भी सम्पन्न करे। इसमें मेरे आज्ञानुसार बारह ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये। व्रती को चाहिये कि वह एक कलश स्थापित करके उस पर तेरी मूर्ति की पूजा करे। तत्पश्चात् वेदविधि के अनुसार वेदी का निर्माण करके उस पर अष्टदल कमल बनाये, फिर उसी पर धन की कंजूसी छोड़कर हवन करे। पुनः मूर्ति के सामने दो स्त्रियों और दो बालकों को बिठाकर विधिपूर्वक उनकी पूजा करे और सादर उन्हें भोजन कराये। रात में जागरण करे। प्रातःकाल पुनः पूजन करके पुनरागमन के लिये विसर्जन कर दे। बालकों से आशीर्वाद ग्रहण करे, स्वस्तिवाचन कराये और व्रत की पूर्ति के लिये पुष्पांजलि निवेदित करे। फिर नमस्कार करके नाना प्रकार के कार्यों की कल्पना करे। इस प्रकार जो इस व्रत को पूर्ण करता है, उसे अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। गणेश! जो श्रद्धा सहित अपनी शक्ति के अनुसार नित्य तेरी पूजा करेगा, उसके सभी मनोरथ सफल हो जायँगे। मनुष्यों को सिन्दूर, चन्दन, चावल, केतकी-पुष्प आदि अनेकों उपचारों द्वारा गणेश्वर का पूजन करना चाहिये। यों जो लोग नाना प्रकार के उपचारों से भक्तिपूर्वक तेरी पूजा करेंगे, उनके विघ्नों का सदा के लिये नाश हो जायगा और उनकी कार्यसिद्धि होती रहेगी। सभी वर्ण के लोगों को, विशेषकर स्त्रियों को यह पूजा अवश्य करनी चाहिये तथा अभ्युदय की कामना करनेवाले राजाओं के लिये भी यह व्रत अवश्यकर्तव्य है। वर्ती मनुष्य जिस-जिस वस्तु की कामना करता है, उसे निश्चय वह वस्तु प्राप्त हो जाती है; अतः जिसे किसी वस्तु की अभिलाषा हो, उसे अवश्य तेरी सेवा करनी चाहिये।
ब्रह्माजी कहते हैं – मुने! जब शिवजी ने महात्मा गणेश को इस प्रकार वर प्रदान किया, तब सम्पूर्ण देवताओं, श्रेष्ठ ऋषियों और शिव के प्यारे समस्त गणों ने 'तथास्तु' कहकर उसका समर्थन किया और अत्यन्त विधिपूर्वक गणाधीश का पूजन किया। तत्पश्चात् शिवगणों ने आदरपूर्वक नाना प्रकार की पूजनसामग्री से गणेश्वर की विशेष रूप से अर्चना की और उनके चरणों में प्रणाम किया। मुनीश्वर! उस समय गिरिजा देवी को जो आनन्द प्राप्त हुआ, उसका वर्णन मेरे चारों मुखों से भी नहीं हो सकता; तब फिर मैं उसे कैसे बताऊँ। उस अवसर पर देवताओं की दुन्दुभियाँ बजने लगीं। अप्सराएँ नृत्य करने लगीं। गन्धर्वश्रेष्ठ गान करने लगे और पुष्पों की वर्षा होने लगी। इस प्रकार गणेश के गणाधीश-पद पर प्रतिष्ठित होने पर वहाँ महान् उत्सव मनाया गया। सारे जगत् में शान्ति स्थापित हो गयी और सारा दुःख जाता रहा। नारद! शिव और पार्वती को तो विशेष आनन्द प्राप्त हुआ और सर्वत्र अनेक प्रकार के सुखदायक मंगल होने लगे। तदनन्तर सम्पूर्ण देवगण और ऋषिगण जो वहाँ पधारे हुए थे, वे सभी शिव की आज्ञा से अपने-अपने स्थान को चले। उस समय वे शिवजी की स्तुति करके गणेश और पार्वती की बारंबार प्रशंसा कर रहे थे और 'कैसा अद्भुत युद्ध हुआ' यों परस्पर वार्तालाप करते हुए चले जा रहे थे। इधर जब गिरिजादेवी का क्रोध शान्त हो गया, तब शिवजी भी, जो स्वात्माराम होते हुए भी सदा भक्तों का कार्य सिद्ध करने के लिये उद्यत रहते हैं, गिरिजा के संनिकट गये और लोकों की हितकामना से पूर्ववत् नाना प्रकार के सुखदायक कार्य करने लगे। तब मैं ब्रह्मा और विष्णु दोनों भक्तिपूर्वक शिव-शिवा की सेवा करके शिव की आज्ञा ले अपने-अपने धाम को लौट आये। जो मनुष्य जितेन्द्रिय होकर इस परम मांगलिक आख्यान को श्रवण करता है, वह सम्पूर्ण मंगलों का भागी होकर मंगल-भवन हो जाता है। इसके श्रवण से पुत्रहीन को पुत्र की, निर्धन को धन की, भार्यार्थी को भार्या की, प्रजार्थी को प्रजा की, रोगी को आरोग्य की और अभागे को सौभाग्य की प्राप्ति होती है। जिस स्त्री का पुत्र और धन नष्ट हो गया हो और पति परदेश चला गया हो, उसे उसका पति मिल जाता है। जो शोक-सागर में डूब रहा हो, वह इसके श्रवण से निस्संदेह शोकरहित हो जाता है। यह गणेश-चरित्र सम्बन्धी ग्रन्ध जिसके घर में सदा वर्तमान रहता है, वह मंगलसम्पन्न होता है – इसमें तनिक भी संशय की गुंजाइश नहीं है। जो यात्रा के अवसर पर अथवा किसी भी पुण्यपर्व पर इसे मन लगाकर सुनता है, वह श्रीगणेशजी की कृपा से सम्पूर्ण अभीष्ट फल प्राप्त कर लेता है।
(अध्याय १९)