स्वामी कार्तिक और गणेश की बाल-लीला, दोनों का परस्पर विवाह के विषय में विवाद, शिवजी द्वारा पृथ्वी-परिक्रमा का आदेश, कार्तिकेय का प्रस्थान, गणेश का माता-पिता की परिक्रमा करके उनसे पृथ्वी-परिक्रमा स्वीकृत कराना, विश्वरूप की सिद्धि और बुद्धि नामक दोनों कन्याओं के साथ गणेश का विवाह और उनसे क्षेम तथा लाभ नामक दो पुत्रों की उत्पत्ति, कुमार का पृथ्वी-परिक्रमा करके लौटना और श्षुब्ध होकर क्रौंच पर्वत पर चला जाना, कुमार खण्ड के श्रवण की महिमा

नारदजी ने पूछा – तात! मैंने गणेश के जन्मसम्बन्धी अनुपम वृतान्त तथा परम पराक्रम से विभूषित उनका दिव्य चरित्र भी सुन लिया। सुरेश्वर! उसके बाद कौन-सी घटना घटी, उसका वर्णन कीजिये; क्योकि पिताजी! शिव और पार्वती का उज्ज्वल यश महान् आनन्द प्रदान करने वाला है।

ब्रह्माजी ने कहा – मुनिश्रेष्ठ! तुम तो बड़े कारुणिक हो। तुमने बड़ी उत्तम बात पूछी है। ऋषिसत्तम! अच्छा, अब मैं उसका वर्णन करता हूँ, तुम ध्यान लगाकर सुनो। विपेन्द्र! शिव और पार्वती अपने दोनों पुत्रों की बाललीला देख-देखकर महान् प्रेम में मग्न रहने लगे। पुत्रों का लाड़-प्यार करने के कारण माता-पिता का सुख दिनोंदिन बढ़ता जाता था और वे दोनों कुमार प्रीतिपूर्वक आनन्द के साथ तरह-तरह की लीलाएँ करते थे। मुनीश्वर! वे दोनों बालक स्वामिकार्तिक और गणेश भक्ति-पूरित चित्त से सदा माता-पिता की परिचर्या किया करते थे। इससे माता-पिता का महान् स्नेह षण्मुख और गणेश पर शुक्ल-पक्ष के चन्द्रमा की भाँति दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही गया। एक समय शिव और शिवा दोनों प्रेमपूर्वक एकान्त में बैठ कर यों विचार करने लगे कि 'हमारे ये दोनों पुत्र विवाह के योग्य हो गये, अब इन दोनों का शुभ विवाह कैसे सम्पन्न हो। हमें तो जैसे षडानन प्यारा है, वैसे ही गणेश भी है।' ऐसी चिन्ता में पड़कर वे दोनों लीलावश आनन्दमग्न हो गये। मुने! माता-पिता के विचार को जानकर उन दोनों पुत्रों के मन में भी विवाह की इच्छा जाग उठी। वे दोनों 'पहले मैं विवाह करूँगा, पहले मैं विवाह करूँगा' – यों बारंबार कहते हुए परस्पर विवाद करने लगे। तब जगत् के अधीश्वर वे दोनों दम्पति पुत्रों की बात सुनकर लौकिक आचार का आश्रय ले परम विस्मय को प्राप्त हुए। कुछ समय बाद उन्होंने अपने दोनों पुत्रों को बुलाया और उनसे इस प्रकार कहा।

शिव-पार्वती बोले – सुपुत्रों! हम लोगों ने पहले से ही एक ऐसा नियम बना रखा है, जो तुम दोनों के लिये सुखदायक होगा। अब हम यथार्थ रूप से उसका वर्णन करते हैं, तुम लोग प्रेमपूर्वक सुनो। प्यारे बच्चो! हमें तो तुम दोनों पुत्र समान ही प्यारे हो; किसी पर विशेष प्रेम हो – ऐसी बात नहीं है; अतः हमने तुम लोगों के विवाह के विषय में एक ऐसी शर्त बनायी है, जो दोनों के लिये कल्याणकारिणी है, (वह शर्त यह है कि) जो सारी पृथ्वी की परिक्रमा करके पहले लौट आयेगा, उसी का शुभ विवाह पहले किया जायगा।

ब्रह्माजी कहते हैं – मुने! माता-पिता की यह बात सुनकर शरजन्मा महाबली कार्तिकेय तुरंत ही अपने स्थान से पृथ्वी की परिक्रमा करने के लिये चल दिये। परंतु अगाध-बुद्धि-सम्पन्न गणेश वहीं खड़े रह गये। वे अपनी उत्तम बुद्धि का आश्रय ले बारंबार मन में विचार करने लगे कि 'अब मैं क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? परिक्रमा तो मुझसे हो नहीं सकेगी; क्योंकि कोस भर चलने के बाद आगे मुझसे चला जायगा नहीं। फिर सारी पृथ्वी की परिक्रमा करके मैं कैसे सुख प्राप्त कर सकूँगा?' ऐसा विचार कर गणेश ने जो कुछ किया, उसे सुनो। उन्होंने अपने घर लौटकर विधिपूर्वक स्नान किया और माता-पिता से इस प्रकार कहा।

गणेशजी बोले – पिताजी एवं माताजी! मैंने आप लोगों की पूजा करने के लिये यहाँ दो आसन स्थापित किये हैं। आप दोनों इसपर विराजिये और मेरा मनोरथ पूर्ण कीजिये।

ब्रह्माजी कहते हैं – मुने! गणेश की बात सुनकर पार्वती और परमेश्वर उनकी पूजा ग्रहण करने के लिये आसन पर विराजमान हो गये। तब गणेश ने उनकी विधिपूर्वक पूजा की और बारंबार प्रणाम करते हुए उनकी सात बार प्रदक्षिणा की। बेटा नारद! गणेश तो बुद्धिसागर थे ही, वे हाथ जोड़कर प्रेममग्न माता-पिता की बहुत प्रकार से स्तुति करके बोले।

गणेशजी ने कहा – हे माताजी! तथा हे पिताजी! आप लोग मेरी उत्तम बात सुनिये और शीघ्र ही मेरा शुभ विवाह कर दीजिये।

ब्रहमाजी कहते हैं – मुने! महात्मा गणेश का ऐसा वचन सुनकर वे दोनों माता-पिता महाबुद्धिमान् गणेश से बोले।

शिवा-शिव ने कहा – बेटा! तू पहले काननों सहित इस सारी पृथ्वी की परिक्रमा तो कर आ। कुमार गया हुआ है, तू भी जा और उससे पहले लौट आ।

ब्रह्माजी कहते हैं – मुने! नियमपरायण गणेश माता-पिता की ऐसी बात सुनकर कुपित हो तुरंत बोल उठे।

गणेशजी ने कहा – हे माताजी! तथा हे पिताजी! आप दोनों सर्वश्रेष्ठ, धर्म रूप और महाबुद्धिमान् हैं, अतः धर्मानुसार मेरी बात सुनिये। मैंने सात बार पृथ्वी की परिक्रमा की है, फिर आप लोग ऐसी बात क्यों कह रहे हैं?

ब्रह्माजी कहते हैं – मुने! शिव-पार्वती तो बड़े लीलानन्दी ही ठहरे, वे गणेश का कथन सुन लौकिक गति का आश्रय लेकर बोले।

शिव-पार्वती ने कहा – पुत्र! तूने समुद्रपर्यन्त विस्तारवाली बड़े-बड़े काननों से युक्त इस सप्तद्विपवती विशाल पृथ्वी की परिक्रमा कब कर ली?

ब्रह्माजी कहते हैं – मुने! जब शिव-पार्वती ने ऐसा कहा, तब उसे सुनकर महान् बुद्धिसम्पन्न गणेश बोले।

गणेशजी ने कहा – माताजी एवं पिताजी! मैंने अपनी बुद्धि से आप दोनों शिव-पार्वती की पूजा करके प्रदक्षिणा कर ली है, अतः मेरी समुद्रपर्यन्त पृथ्वी की परिक्रमा पूरी हो गयी। धर्म के संग्रहभूत वेदों और शास्त्रों में जो ऐसे वचन मिलते हैं, ये सत्य हैं अठाव असत्य? जो पुत्र माता-पिता की पूजा करके उनकी प्रदक्षिणा करता है, उसे पृथ्वी-परिक्रमाजनित फल सुलभ हो जाता है। जो माता-पिता को घर पर छोड़कर तीर्थ-यात्रा के लिये जाता है, वह माता-पिता की ह्त्या से मिलनेवाले पाप का भागी होता है; क्योंकि पुत्र के लिये माता-पिता का चरण-सरोज ही महान् तीर्थ है। अन्य तीर्थ तो दूर जाने पर प्राप्त होते हैं; परंतु धर्म का साधनभूत यह तीर्थ तो पास में ही सुलभ है। पुत्र के लिये माता-पिता और स्त्री के लिये पति ये दोनों सुन्दर तीर्थ घर में ही वर्तमान हैं। ऐसा जो वेद-शास्त्र निरन्तर उद्घोषित करते रहते हैं, उसे फिर आप लोग असत्य कर दीजिये। और यदि वह असत्य हो जायगा तो निस्संदेह वेद भी असत्य हो जायगा और वेद द्वारा वर्णित आपका यह स्वरूप भी झूठा समझा जायगा। इसलिये या तो शीघ्र ही मेरा शुभ विवाह कर दीजिये कि वेद-शास्त्र झूठे हैं। आप दोनों धर्मरूप हैं, अतः भली-भाँति विचार करके इन दोनों में जो परमोत्तम प्रतीत हो, उसे प्रयत्नपूर्वक करना चाहिये।

ब्रह्माजी कहते हैं – मुने! तब जो बुद्धिमानों में श्रेष्ठ, उत्तम बुद्धि सम्पन्न तथा महान् ग्यानी हैं, वे पार्वतीनन्दन गणेश इतना कहकर चुप हो गये। उधर वे दोनों पति-पत्नी जगदीश्वर शिव-पार्वती गणेश के वचन सुनकर परम विस्मित हुए। तदनन्तर वे यथार्थभाषी एवं अद्भुत बुद्धिवाले अपने पुत्र गणेश की प्रशंसा करते हुए बोले।

शिवा-शिव ने कहा – बेटा! तु महान् आत्मबल से सम्पन्न है, इसी से तुझमें निर्मल बुद्धि उत्पन्न हुई है। तूने जो बात कही है, वह बिलकुल सत्य है, अन्यथा नहीं है। दुःख का अवसर आने पर जिसकी बुद्धि विशिष्ट हो जाती है, उसका दुःख उसी प्रकार विनष्ट हो जाता है, जैसे सूर्य के उदय होते ही अन्धकार। जिसके पास बुद्धि है, वही बलवान् है; बुद्धिहीन के पास बल कहाँ। पुत्र! वेद-शास्त्र और पुराणों में बालक के लिये धर्म-पालन की जैसी बात कही गयी है, वह सब तूने पूरी कर ली। तूने जो बात की है, वह दूसरा कौन कर सकता है। हमने तेरी वह बात मान ली, अब इसके विपरीत नहीं करेंगे।

ब्रहमाजी कहते हैं – नारद! यों कहकर उन दोनों ने बुद्धिसागर गणेश को सान्त्वना दी और फिर वे उनके विवाह के सम्बन्ध में उत्तम विचार करने लगे। इसी समय जब प्रसन्न बुद्धिवाले प्रजापति विश्वरूप को शिवजी के उद्योग का पता चला, तब उस पर विचार करके उन्हें परम सुख प्राप्त हुआ। उन प्रजापति विश्वरूप के दिव्य रूप-सम्पन्न एवं सर्वांगशोभना दो सुन्दरी कन्याएँ थीं, जिनका नाम 'सिद्धि' और 'बुद्धि' था। भगवान् शंकर और गिरिजा ने उन दोनों के साथ हर्षपूर्वक गणेश का विवाह-संस्कार सम्पन्न कराया। उस विवाह के अवसर पर सम्पूर्ण देवता प्रसन्न होकर पधारे। उस समय शिव और पार्वती का जैसा मनोरथ था, उसी के अनुसार विश्वकर्मा ने वह विवाह किया। उसे देखकर ऋषियों तथा देवताओं को परम हर्ष प्राप्त हुआ। मुने! गणेश को भी उन दोनों पत्नियों के मिलने से जो सुख प्राप्त हुआ, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। कुछ काल के पश्चात् महात्मा गणेश के उन दोनों पत्नियों से तो दिव्य पुत्र उत्पन्न हुए। उनमें गणेश-पत्नी सिद्धि के गर्भ से 'क्षेम' नामक पुत्र पैदा हुआ और बुद्धि के गर्भ से जिस परम सुन्दर पुत्र ने जन्म लिया, उसका नाम 'लाभ' हुआ। इस प्रकार जब गणेश अचिन्त्य सुख का भोग करते हुए निवास करने लगे, तब दूसरे पुत्र स्वामिकार्तिक पृथ्वी की परिक्रमा करके लौटे। उस समय नारदजी ने आकर कुमार स्कन्द को सब समाचार सुनाये। उन्हें सुनकर कुमार के मन में बड़ा क्षोभ हुआ और वे माता-पिता शिवा-शिव के द्वारा रोके जाने पर भी न रुककर क्रौंच पर्वत की ओर चले गये।

देवर्षे! उसी दिन से शिव-पुत्र स्वामिकार्तिक का कुमारत्व [कुँआरपना] प्रसिद्ध हो गया। उनक नाम त्रिलोकी में विख्यात हो गया। वह शुभदायक, सर्वपापहारी, पुण्यमय और उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य की शक्ति प्रदान करने वाला है। कार्तिक की पूर्णिमा को सभी देवता, ऋषि, तीर्थ और मुनीश्वर सदा कुमार का दर्शन करने के लिये क्रौंच पर्वत पर जाते है। जो मनुष्य कार्तिकी पूर्णिमा के दिन कृत्तिका नक्षत्र का योग होने पर स्वामिकार्तिक का दर्शन करता है, उसके सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं और उसे मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है। इधर स्कन्द का बिछोह हो जाने पर उमा को महान् दुःख हुआ। उन्होंने दीन भाव से अपने स्वामी शिवजी से कहा – 'प्रभो! आप मुझे साथ लेकर वहाँ चलिये।' तब प्रिया को सुख देने के निमित्त स्वयं भगवान् शंकर अपने एक अंश से उस पर्वत पर गये और सुखदायक मल्लिकार्जुन नामक ज्योतिर्लिंग के रूप में वहाँ प्रतिष्ठित हो गये। वे सत्पुरुषों की गति तथा अपने सभी भक्तों के मनोरथ पूर्ण करने वाले है। वे आज भी शिवा के सहित उस पर्वत पर विराजमान हैं।

बेटा नारद! वे दोनों शिवा-शिव भी पुत्र-स्नेह से विह्वल होकर प्रत्येक पर्व पर कुमार को देखने के लिये जाते हैं। अमावास्या के दिन वहाँ स्वयं शम्भु पधारते हैं और पूर्णिमा के दिन पार्वतीजी जाती हैं। मुनीश्वर! तुमने स्वामिकार्तिक और गणेश का जो-जो वृतान्त मुझसे पूछा था, वह सब मैंने तुम्हें कह सुनाया। इसे सुनकर बुद्धिमान् मनुष्य समस्त पापों से मुक्त हो जाता है और उसकी सभी शुभ कामानाएँ पूर्ण हो जाती हैं। जो मनुष्य इस चरित्र को पढ़ता अथवा पढाता है एवं सुनता अथवा सुनाता है, निस्संदेह उसके सभी मनोरथ सफल हो जाते हैं। यह अनुपम आख्यान पापनाशक, कीर्तिप्रद, सुखवर्धक, आयु बढ़ानेवाला, स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाला, पुत्र-पौत्र की वृद्धि करने वाला, मोक्षप्रद, शिवजी के उत्तम ज्ञान का प्रदाता, शिव-पार्वती में प्रेम उत्पन्न करने वाला और शिवभक्ति-वर्धक है। यह कल्याणकारक, शिवजी के अद्वैत ज्ञान का दाता और सदा शिवमय है; अतः मोक्षकामी एवं निष्काम भक्तों को सदा इसका श्रवण करना चाहिये।

(अध्याय २०)

।। रुद्रसंहिता का कुमारखण्ड सम्पूर्ण।।