तारकपुत्र तारकाक्ष, विद्युन्माली और कमलाक्ष की तपस्या, ब्रह्मा द्वारा उन्हें वर-प्रदान, मय द्वारा उनके लिये तीन पुरों का निर्माण और उनकी सजावट-शोभा का वर्णन
नारदजी ने कहा – पिताजी! जो गणेश और स्वामिकार्तिक की उत्तम कथाओं से ओतप्रोत तथा आनन्द प्रदान करने वाला है, भगवान् शंकर के गृहस्थ-सम्बन्धी उस उत्तम चरित्र को हमने सुन लिया। अब आप कृपा करके उस परमोत्तम चरित्र का वर्णन कीजिये, जिसमें रुद्रदेव ने खेल-ही-खेल में दुष्टों का वध किया था। महान् वीर्यशाली भगवान् शंकर ने देव-द्रोहियों के तीनों नगरों को एक ही साथ एक ही बाण से किस कारण एवं कैसे भस्म कर डाला था? भगवन्! जिनके भाल में बालचन्द्रमा सुशोभित है तथा जो सदा माया के साथ विहार करने वाले हैं, उन भगवान् शंकर का चरित तो देवर्षियों को आनन्द प्रदान करने वाला है। आप वह सारा चरित विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये।
ब्रहमाजी बोले – ऋषिश्रेष्ठ! पहले किसी समय व्यास ने सनत्कुमार से ऐसा ही प्रश्न किया था। उस समय सनत्कुमार ने जो कुछ उत्तर दिया था, वहीं मैं वर्णन करता हूँ।
उस समय सनत्कुमार ने कहा था – महाबुद्धिमान् व्यासजी! विश्व का संहार करने वाले चन्द्रमौलि शिव ने जिस प्रकार एक ही बाण से त्रिपुर को भस्म किया था, वह चरित्र कहता हूँ; सुनो। मुनीश्वर! जब शिवकुमार स्कन्द ने तारकासुर को मार डाला, तब उसके तीनों पुत्रों को महान् संताप हुआ। उनमें तारकाक्ष सबसे जेष्ठ था, विद्युन्माली मझला था और छोटे का नाम कमलाक्ष था। उन तीनों में समान बल था। वे जितेन्द्रिय, सदा कार्य के लिये उद्यत, संयमी, सत्यवादी, दृढ़चित्त, महान् वीर और देवों से द्रोह करने वाले थे। उन तीनों ने सभी उत्तमोत्तम एवं मनोहर भोगों का परित्याग करके मेरु पर्वत की एक कन्दरा में जाकर परम अद्भुत तपस्या आरम्भ की। वहाँ उन्होंने हजारों वर्षों तक ब्रह्माजी की प्रसन्नता के लिये अत्यन्त उग्र तप किया। तब सुर और असुरों के गुरु महायशस्वी ब्रह्माजी उनकी तपस्यासे अत्यन्त संतुष्ट होकर उन्हें वर देने के लिये प्रकट हुए।
ब्रह्माजी ने कहा – महादैत्यों! मैं तुम लोगों के तप से प्रसन्न हो गया हूँ, अतः तुम्हारी कामना के अनुसार तुम्हें सभी वर प्रदान करूँगा। देवद्रोहियों! मैं सबकी तपस्या के फलदाता और सर्वदा सब कुछ करने में समर्थ हूँ, अतः बताओ, तुम लोगों ने इतना घोर तप किस लिये किया है?
सनत्कुमारजी कहते है – मुने! ब्रह्माजी की वह बात सुनकर उन सबने अंजलि बाँधकर पितामह के चरणों में प्रणिपात किया और फिर धीरे-धीरे अपने मन की बात कहना आरम्भ किया।
दैत्य बोले – देवेश! यदि आप हम पर प्रसन्न हैं और हमें वर देना चाहते हैं तो यह वर दीजिये कि समस्त प्राणियों में हम सबके लिये अवध्य हो जायँ। जगन्नाथ! आप हमें स्थिर कर दें और हमारे जरा, रोग आदि सभी शत्रु नष्ट हो जायँ तथा कभी भी मृत्यु हमारे समीप न फटके। हम लोगों का ऐसा विचार है कि हम लोग अजर-अमर हो जायँ और त्रिलोकी में अन्य सभी प्राणियों को मौत के घाट उतारते रहें; क्योंकि ब्रह्मन्! यदि पाँच ही दिनों में काल के गाल मे चला जाना निश्चित ही है तो अतुल लक्ष्मी, उत्तमोत्तम नगर, अन्यान्य भोग-सामग्री, उत्कृष्ट पद और ऐश्वर्य से क्या प्रयोजन है। मेरे विचार से तो उस प्राणी के लिये ये सभी व्यर्थ हैं।
सनत्कुमारजी कहते है – महर्षे! उन तपस्वी दैत्यों की यह बात सुनकर ब्रह्मा अपने स्वामी गिरिशायी भगवान् शंकर का ध्यान करके बोले।
ब्रहमाजी ने कहा – असुरो! अमरत्व सभी को नहीं मिल सकता, अतः तुम लोग अपना यह विचार छोड़ दो। इसके अतिरिक्त अन्य कोई वर जो तुम्हें रुचता हो, माँग लो। क्योंकि दैत्यो! इस भूतल पर जहाँ कहीं भी जो प्राणी जन्मा है अथवा जन्म लेगा, वह जगत् में अजर-अमर नहीं हो सकता। इसलिए पापरहित असुरो! तुम लोग स्वयं अपनी बुद्धि से विचार कर मृत्यु की वंचना करते हुए कोई ऐसा दुर्लभ एवं दुस्साध्य वर माँग लो, जो देवता और असुरों के लिये अशक्य हो। उस प्रसंग में तुम लोग अपने बल का आश्रय लेकर पृथक्-पृथक् अपने मरण में किसी हेतु को माँग लो, जिससे तुम्हारी रक्षा हो जाय और मृत्यु तुम्हें वरण न कर सके।
सनत्कुमारजी कहते है – महर्षे! ब्रह्माजी के ऐसे वचन सुनकर वे दो घड़ी तक ध्यानस्थ हो गये, फिर कुछ सोच-विचार कर सर्वलोकपितामह ब्रह्माजी से बोले।
दैत्यों ने कहा – भगवान्! यद्यपि हम लोग प्रबल पराक्रमी हैं तथापि हमारे पास कोई ऐसा घर नहीं है, जहाँ हम शत्रुओं से सुरक्षित रहकर सुखपूर्वक निवास कर सकें; अतः आप हमारे लिये ऐसे तीन नगरों का निर्माण करा दीजिये, जो अत्यन्त अद्भुत और सम्पूर्ण सम्पत्तियों से सम्पन्न हों तथा देवता जिनका प्रधर्षण न कर सकें। लोकेश! आप तो जगद्गुरु हैं। हम लोग आपकी कृपा से ऐसे तीनों पुरों में अधिष्ठित होकर इस पृथ्वी पर विचरण करेंगे। इसी बीच तारकाक्ष ने कहा कि विश्वकर्मा मेरे लिये जिस नगर का निर्माण करें, वह स्वर्णमय हो और देवता भी उसका भेदन न कर सकें। तत्पश्चात् कमलाक्ष ने चाँदी के बने हुए अत्यन्त विशाल नगर की याचना की और विद्युन्माली ने प्रसन्न होकर वज्र के समान कठोर लोहे का बना हुआ बड़ा नगर माँगा। ब्रह्मन्! ये तीनों पुर मध्याह्न के समय अभिजित् मुहूर्त में चन्द्रमा के पुष्य नक्षत्र पर स्थित होने पर एक स्थान पर मिला करें और आकाश में नीले बादलों पर स्थित होकर ये क्रमशः एक के ऊपर एक रहते हुए लोगों की दृष्टि से ओझल रहें। फिर पुष्करावर्त नामक कालमेघों के वर्षा करते समय एक सहस्त्र वर्ष के बाद ये तीनों नगर परस्पर मिलें और एकीभाव को प्राप्त हों, अन्यथा नहीं। उस समय कृत्तिवासा भगवान् शंकर, जो वैर भाव से रहित, सर्वदेवमय और सबके देव हैं। लीलापूर्वक सम्पूर्ण सामग्रियों से युक्त एक असम्भव रथ पर बैठ कर एक अनोखे बाण से हमारे पुरों का भेदन करें। किंतु भगवान् शंकर सदा हम लोगों के वन्दनीय, पूज्य और अभिवादन के पात्र हैं, अतः वे हम लोगों को कैसे भस्म करेंगे – मन में ऐसी धारणा करके हम ऐसे दुर्लभ वर को माँग रहे हैं।
सनत्कुमारजी कहते है – व्यासजी! उन दैत्यों का कथन सुनकर सृष्टिकर्ता लोकपितामह ब्रह्मा ने शिवजी का स्मरण करके उनसे कहा कि 'अच्छा, ऐसा ही होगा।' फिर मय को भी आज्ञा देते हुए उन्होंने कहा – 'हे मय! तुम सोने, चाँदी और लोहे के तीन नगर बना दो।' यों मय को आदेश देकर ब्रह्माजी उन तारक-पुत्रों के देखते-देखते अपने धाम स्वर्ग को चले गये। तदनन्तर धैर्यशाली मय ने अपने तपोबल से नगरों का निर्माण करना आरम्भ किया। उसने तारकाक्ष के लिये स्वर्णमय, कमलाक्ष के लिये रजतमय और विद्युन्माली के लिये लौहमय – यों तीन प्रकार के उत्तम दुर्ग तैयार किये। वे पुर क्रमशः स्वर्ग, अन्तरिक्ष और भूतल पर निर्मित हुए थे। असुरों के हित में तत्पर रहनेवाला मय इन तीनों पुरों को तारकाक्ष आदि असुरों के हवाले करके स्वयं भी उसी में प्रवेश कर गया। इस प्रकार उन तीनों पुरों को पाकर महान् बल-पराक्रम से सम्पन्न वे तारकासुर के लड़के उनमें प्रविष्ट हुए और समस्त भोगों का उपभोग करने लगे। वे नगर कल्पवृक्षों से व्याप्त तथा हाथी घोड़ों से सम्पन्न थे। उनमें मणिनिर्मित जालियों से आच्छादित बहुतेरे महल बने हुए थे। वे पद्मराग के बने हुए एवं सूर्य-मण्डल के समान चमकीले विमानों से, जिनमें चारों ओर दरवाजे लगे थे, शोभायमान थे। कैलास-शिखर के समान ऊँचे तथा चन्द्रमा के समान उज्ज्वल दिव्य प्रासादों तथा गोपुरों से उनकी अद्भुत शोभा हो रही थी। वे अप्सराओं, गन्धर्वो, सिद्धों तथा चारणों से खचाखच भरे थे। प्रत्येक महल में शिवालय तथा अग्निहोत्रशाला की प्रतिष्ठा हुई थी। उनमें शिवभक्ति-परायण शास्त्रज्ञ ब्राह्मण सदा निवास करते थे। वे बावली, कूप, तालाब और बड़ी-बड़ी तलैयों से तथा समूह-के-समूह स्वर्ग से च्युत हुए वृक्षों से युक्त उद्यानों और वनों में सुशोभित थे। बड़ी-बड़ी नदियों, नदों और छोटी-छोटी सरिताओं से, जिन में कमल खिले हुए थे, उनकी शोभा और बढ़ गयी थी। उनमें सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाले अनेकों फलों के भार से लदे हुए वृक्ष लगे थे, जिनसे वे नगर विशेष मनोहर लगते थे। वे झुण्ड-के-झुण्ड मदमत्त गजराजों से, सुन्दर-सुन्दर घोड़ों से, नाना प्रकार के आकार-विकारवाले रथों एवं शिबिकाओं से अलंकृत थे। उनमें समयानुसार पृथक्-पृथक् क्रीडास्थल बने थे और वेदाध्ययन की पाठशालाएँ भी भिन्न-भिन्न निर्मित हुई थीं। वे पापी पुरुषों के लिये मन-वाणी से भी अगोचर थे। उन्हें सदाचारी पुण्यशील महात्मा ही देख सकते थे। पति सेवापरायण तथा कुधर्म से विमुख रहनेवाली पतिव्रता नारियों ने उन नगरों के उत्तम स्थलों को सर्वत्र पवित्र कर रखा था। उनमें महाभाग शूरवीर दैत्य और श्रुति-स्मृति के अर्थ के तत्त्वज्ञ एवं स्वधर्मपरायण ब्राह्मण अपनी स्त्रियों तथा पुत्रों के साथ निवास करते थे। उनमें मय द्वारा सुरक्षित ऐसे सुदृढ़ पराक्रमी वीर भरे हुए थे, जिनके केश नील कमल के समान नीले और घुँघराले थे। वे सभी सुशिक्षित थे, जिससे उनमें सदा युद्ध की लालसा भरी रहती थी। वे बड़े-बड़े समरों से प्रेम करने वाले थे, ब्रह्मा और शिव का पूजन करने से उनके पराक्रम विशुद्ध थे; वे सूर्य, मरुद्गण और महेंद्र के समान बली थे और देवताओं के मथन करने वाले थे। वेदों, शास्त्रों और पुराणों में जिन-जिन धर्मों का वर्णन किया गया है, वे सभी धर्म और शिव के प्रेमी देवता वहाँ चारों ओर व्याप्त थे। उन नगरों में प्रवेश करके वे दैत्य सदा शिवभक्तिनिरत होकर सारी त्रिलोकी को बाधित करके विशाल राज्य का उपभोग करने लगे। मुने! इस प्रकार वहाँ निवास करने वाले उन पुण्यात्माओं के सुख एवं प्रीतिपूर्वक उत्तम राज्य का पालन करते हुए बहुत लंबा काल व्यतीत हो गया।
(अध्याय १)