तारकपुत्रों के प्रभाव से संतप्त हुए देवों की ब्रह्मा के पास करुण पुकार, ब्रह्मा का उन्हें शिव के पास भेजना, शिव की आज्ञा से देवों का विष्णु की शरण में जाना और विष्णु का उन दैत्यों को मोहित करके उन्हें आचारभ्रष्ट करना

सनत्कुमारजी कहते हैं – महर्षे! तदनन्तर तारकपुत्रों के प्रभाव से दग्ध हुए इन्द्र आदि सभी देवता दुःखी हो परस्पर सलाह करके ब्रह्माजी की शरण में गये। वहाँ सम्पूर्ण देवताओं ने दीन होकर प्रेमपूर्वक पितामह को प्रणाम किया और अवसर देखकर उनसे अपना दुखड़ा सुनाते हुए कहा।

देवता बोले – धातः! त्रिपुरों के स्वामी तारकपुत्रों ने तथा मयासुर ने समस्त स्वर्गवासियों को संतप्त कर दिया है। ब्रह्मन्! इसीलिये हम लोग दुःखी होकर आपकी शरण में आये हैं। आप उनके वध का कोई उपाय कीजिये, जिससे हम लोग सुख से रह सकें।

ब्रह्माजी ने कहा – देवगणों! तुम्हें उन दानवों से विशेष भय नहीं करना चाहिये। मैं उनके वधका उपाय बतलाता हूँ। भगवान् शिव तुम्हारा कल्याण करेंगे। मैंने ही इन दैत्यों को बढ़ाया है, अतः मेरे हाथों इनका वध होना उचित नहीं। साथ ही त्रिपुर में इनका पुण्य भी वृद्धिंगत होता रहेगा। अतः इन्द्र सहित सभी देवता शिवजी से प्रार्थना करें। वे सर्वाधीश यदि प्रसन्न हो जायँगे तो वे ही तुम लोगों का कार्य पूर्ण करेंगे।

सनत्कुमारजी कहते हैं – व्यासजी! ब्रह्माजी की यह वाणी सुनकर इन्द्र सहित सभी देवता दुःखी हो उस स्थान पर गये, जहाँ वृषभध्वज शिव आसीन थे। तब इन सबने अंजलि बाँधकर देवेश्वर शिव को भक्तिपूर्वक प्रणाम किया और कंधा झुकाकर लोकों के कल्याणकर्ता शंकर का स्तवन किया। मुने! इस प्रकार नाना प्रकार के दिव्य स्तोत्रों द्वारा त्रिशूलधारी परमेश्वर की स्तुति करके स्वार्थ-साधन में निपूण इन्द्र आदि देवताओं ने दीनभाव से कंधा झुकाये हुए हाथ जोड़कर प्रस्तुत स्वार्थ को निवेदन करना आरम्भ किया।

देवताओं ने कहा – महादेव! तारक के पुत्र तीनों भाइयों ने मिलकर इन्द्र सहित समस्त देवताओं को परास्त कर दिया है। भगवन्! उन्होंने त्रिलोकी को तथा मुनीश्वरों को अपने अधीन कर लिया है और सम्पूर्ण सिद्ध स्थानों को नष्ट-भ्रष्ट करके सारे जगत् को उत्पीड़ित कर रखा है। वे दारुण दैत्य समस्त यज्ञभागों को स्वयं ग्रहण करते हैं। उन्होंने ऋषि-धर्म का निवारण करके अधर्म का विस्तार कर रखा है। शंकर! निश्चय ही वे तारक-पुत्र समस्त प्राणियों के लिये अवध्य हैं, इसीलिये वे स्वेच्छानुसार सभी कार्य करते रहते हैं। प्रभो! ये त्रिपुरनिवासी दारुण दैत्य जब तक जगत् का विनाश न कर डालें, उसके पहले ही आप किसी ऐसी नीति का विधान करें, जिससे इसकी रक्षा हो सके।

सनत्कुमारजी कहते है – मुने! यों भाषण करते हुए उन स्वर्गवासी इन्द्रादि देवों की बात सुनकर शिवजी उत्तर देते हुए बोले।

शिवजी ने कहा – देवगण! इस समय वे त्रिपुराधिश महान् पुण्य-कार्यों में लगे हुए हैं और ऐसा नियम है कि जो पुण्यात्मा हो, उस पर विद्वानों को किसी प्रकार भी प्रहार नहीं करना चाहिये। मैं देवताओं के सारे महान् कष्टों को जानता हूँ; फिर भी वे दैत्य बड़े प्रबल हैं, अतः देवता और असुर मिलकर भी उनका वध नहीं कर सकते। ये तारक-पुत्र सब-के-सब पुण्य-सम्पन्न हैं, इसलिये उन सभी त्रिपुरवासियों का वध दुस्साध्य है। यद्यपि मैं रणकर्कश हूँ, तथापि जान-बुझकर मैं मित्र-द्रोह कैसे कर सकता हूँ; क्योंकि पहले किसी समय ब्रहमाजी ने कहा था कि मित्रद्रोह से बढ़कर दूसरा कोई बड़ा पाप नहीं है। सत्पुरुषों ने ब्रह्महत्यारे, शराबी, चोर तथा व्रत-भंग करने वाले के लिये प्रायश्चित का विधान किया है; परंतु कृतघ्न के उद्धार का कोई उपाय नहीं है। देवताओं! तुम लोग भी तो धर्मज्ञ हो, अतः धर्मदृष्टि से विचार कर तुम्हीं बताओ कि जब वे दैत्य मेरे भक्त हैं, तब मैं उन्हें कैसे मार सकता हूँ। इसलिये अमरो! जब तक वे दैत्य मेरी भक्ति में तत्पर हैं, तब तक उनका वध असम्भव है। तथापि तुम लोग विष्णु के पास जाकर उनसे यह कारण निवेदन करो।

तदनन्तर देवगण भगवान् विष्णु के समीप गये और उनके द्वारा ऐसी व्यवस्था की गयी कि जिससे वे असुर शैव-सनातन धर्म से विमुख होकर सर्वथा अनाचारपरायण हो गये। वैदिक धर्म का नाश होने से वहाँ स्त्रियों ने पातिव्रत-धर्म छोड़ दिया, पुरुष इन्द्रियों के वश हो गये। यों स्त्री-पुरुष सभी दुराचारी हो गये। देवाराधन, श्राद्ध, यज्ञ, व्रत, तीर्थ, शिव-विष्णु-सूर्य-गणेश आदि का पूजन, स्नान, दान आदि सभी शुभ आचरण नष्ट हो गये। तब माया तथा अलक्ष्मी इन पुरों में जा पहुँची। तप से प्राप्त लक्ष्मी वहाँ से चली गयीं। इस प्रकार वहाँ अधर्म का विस्तार हो गया। मुने! तब शिवेच्छा से भाइयों सहित उस दैत्यराज की तथा मय की भी शक्ति कुण्ठित हो गयी।

(अध्याय २ - ५)