देवों का शिवजी के पास जाकर उनका स्तवन करना, शिवजी के त्रिपुरवध के लिये उद्यत न होने पर ब्रह्मा और विष्णु का उन्हें समझाना, विष्णु के बतलाये हुए शिव-मन्त्र का देवों द्वारा तथा विष्णु द्वारा जप, शिवजी की प्रसन्नता और उनके लिये विश्वकर्म द्वारा सर्वदेवमय रथ का निर्माण

व्यासजी ने पूछा – सनत्कुमारजी! जब भाइयों तथा पुरवासियों सहित उस दैत्यराज की बुद्धि विशेष रूप से मोहाच्छन्न हो गयी, तब उसके बाद कौन-सी घटना घटी? विभो! वह सारा वृतान्त वर्णन कीजिये।

सनत्कुमारजी ने कहा – महर्षे! जब तीनों पुरों की पूर्वोक्त दशा हो गयी, दैत्यों ने शिवार्चन का परित्याग कर दिया, सम्पूर्ण स्त्री-धर्म नष्ट हो गया और चारों और दुराचार फैल गया, तब भगवान् विष्णु और ब्रह्मा के साथ सब देवता कैलास पर्वत पर गये और सुन्दर शब्दों में शिव की स्तुति करने लगे – 'महेश्वर देव! आप परमोत्कृष्ट आत्मबल से सम्पन्न हैं; आप ही सृष्टि के कर्ता ब्रह्मा, पालक विष्णु और संहर्ता रुद्र हैं, परब्रह्मस्वरूप आपको नमस्कार है।' यों महादेवजी का स्तवन करके देवों ने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। फिर भगवान् विष्णु ने जल में खड़े होकर अपने स्वामी परमेश्वर शिव का मन-ही-मन स्मरण करके तन्मय हो दक्षिणामूर्ति के द्वारा प्रकटित रुद्रमन्त्र का डेढ़ करोड़ की संख्या तक जप किया। तब तक सभी देवता उन महेश्वर में मन लगाकर यों उनकी स्तुति करते रहे।

देवों ने कहा – प्रभो! आप समस्त प्राणियों के आत्मस्वरूप, कल्याणकर्ता और भक्तो की पीड़ा हरनेवाले हैं। आपके गले में नीला चिह्न है, जिससे आप नीलकंठ कहलाते हैं। अप चिद्रूप एवं प्रचेता हैं, आप रुद्र को हमारा प्रणाम है। असुरनिकन्दन! आप ही हमारी सारी आपत्तियों के निवारण करने वाले हैं, अतः सदा से आप ही हमारी गति हैं और आप ही सर्वदा हम लोगों के वन्दनीय हैं। आप सबके आदि हैं और आप ही अनादि भी हैं। आप ही आनन्दस्वरूप, अव्यय, प्रभु, प्रकृति पुरुष के भी साक्षात् स्रष्टा और जगदीश्वर हैं। आप ही रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण के आश्रय से ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र होकर जगत् के कर्ता, भर्ता और संहारक बनते हैं। आप ही इस भवसागर से तारनेवाले हैं। आप समस्त प्राणियों के स्वामी, अविनाशी, वरदाता, वाङ्मयस्वरूप, वेद्प्रतिपाद्य और वाच्य-वाचकता से रहित है। योगवेत्ता योगी आप ईशान से मुक्ति की याचना करते हैं। आप योगियों के ह्रदयकमल की कर्णिका पर विराजमान रहते हैं। वेद और संतजन कहते हैं कि आप परब्रह्मस्वरूप, तत्त्वरूप, तेजोराशि और परात्पर हैं। शर्व! आप सर्वव्यापी, सर्वात्मा और त्रिलोकी के अधिपति हैं। भव! इस जगत् में जिसे परमात्मा कहा जाता है, वह आप ही हैं। जगद्गुरो! इस जगत् में जिसे देखने, सुनने, स्तवन करने तथा जानने योग्य बताया जाता है और जो अणु से भी सूक्ष्म तथा महान् से भी महान् है, वह आप ही हैं। आप चारों ओर हाथ, पैर, नेत्र, सिर, मुख, कान और नाकवाले हैं; अतः आपको चारों ओर से नमस्कार है। सर्वव्यापिन्! आप सर्वज्ञ, सर्वेश्वर, अनावृत्त और विश्वरूप हैं; आप विरूपाक्ष को सब ओर से अभिवादन है। आप सर्वेश्वर, भवाध्यक्ष, सत्यमय, कल्याणकर्ता, अनुपमेय और करोड़ों सूर्यों के समान प्रभावशाली हैं; आपको हम चारों ओर से दण्डवत्-प्रणाम करते हैं। विश्वाराध्य, आदि-अन्तशून्य, छब्बीसवें तत्त्व, नियमकरहित तथा समस्त प्राणियों को अपने-अपने कार्यों में प्रवृत्त करने वाले आपको हमारा सब ओर से प्रणाम है। आप प्रकृति के भी प्रवर्तक, सबके प्रपितामह और समस्त शरीरों में व्याप्त हैं; आप परमेश्वर को हमारा नमस्कार है। श्रुतियाँ तथा श्रुतितत्त्व के ज्ञाता विज्ञजन आपको वरदायक, समस्त भूतों में निवास करने वाला, स्वयम्भू और श्रुति-तत्त्वज्ञ बतलाते हैं। नाथ! आपने जगत् में अनेकों ऐसे कार्य किये हैं, जो हमारी समझ से परे हैं; इसीलिये देवता, असुर, ब्राह्मण और अन्यान्य स्थावर-जंगम भी आपकी ही स्तुति करते हैं। शम्भो! त्रिपुरवासी दैत्यों ने हमें प्रायः नष्ट-सा कर डाला है, अतः आप शीघ्र ही उन असुरों का विनाश करके हमारी रक्षा कीजिये; क्योंकि देववल्लभ! हम देवों के एकमात्र आप ही गति हैं। परमेश्वर! इस समय वे आपकी माया से मोहित हो गये हैं, अतः प्रभो! ये भगवान् विष्णु द्वारा बतायी हुई युक्ति के चक्र में फँसकर सारा धर्म-कर्म छोड़ बैठे हैं। भक्तवत्सल! हमारे सौभाग्यवश इस समय उन दैत्यों ने सम्पूर्ण धर्मों का परित्याग कर दिया है और नास्तिक शास्त्र का आश्रय ले रखा है। शरणदाता! आप सदा से देवताओं का कार्य करते आये हैं, इसीलिये आज भी हम लोग आपके शरणापन्न हुए हैं। अब आपकी जैसी इच्छा हो, वैसा कीजिये।

सनत्कुमारजी कहते हैं – मुनिवर! इस प्रकार महेश्वर का स्तवन करके देवगण दीनभाव से अंजलि बाँधकर सामने खड़े हो गये। उस समय उनके मस्तक झुके हुए थे। इस प्रकार जब सुरेन्द्र आदि देवों ने महेश्वर की स्तुति की और विष्णु ने ईशान-सम्बन्धी मन्त्र का जप किया, तब सर्वेश्वर भगवान् शिव प्रसन्न हो गये और वृष पर सवार हो वहीं प्रकट हो गये। उस समय पार्वतीपति शिव का मन प्रसन्न था। उन्होंने नन्दीश्वर की पीठ से उतरकर विष्णु का आलिंगन किया और फिर वे नन्दी पर हाथ टेककर खड़े हो गये और सम्पूर्ण देवताओं की ओर कृपा भरी दृष्टि से देखकर गम्भीर वाणी में श्रीहरि से बोले।

शिवजी ने कहा – देवश्रेष्ठ! उन अधर्मनिष्ठ दैत्यों के तीनों पुरों को मैं नष्ट कर डालूँगा – इसमें संशय नहीं है; परंतु वे महादैत्य मेरे भक्त थे और उनका मन सुदृढ़ रूप से मुझमें लगा रहता था; अतः यद्यपि इस समय उन्होंने व्याजवश उत्तम धर्म का परित्याग कर दिया है, तथापि क्या वे मेरे ही द्वारा मारने योग्य हैं? इसलिये जिन्होंने त्रिपुरवासी सारे दैत्यों को धर्मभ्रष्ट करके मेरी भक्ति से विमुख कर दिया है, वे विष्णु अथवा अन्य कोई ही उन्हें क्यों नहीं मारते? मुनीश्वर! शम्भु के ये वचन सुनकर उन समस्त देवताओं का तथा श्रीहरि का भी मन उदास हो गया। जब सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने देखा कि देवताओं और विष्णु के मुख पर उदासी छा गयी है, तब उन्होंने हाथ जोड़कर शम्भु से कहना आरम्भ किया।

ब्रहमाजी बोले – परमेश्वर! आप योगवेत्ताओं में श्रेष्ठ, परब्रह्म तथा सदा से देवों और ऋषियों की रक्षा में तत्पर हैं; अतः पाप आपका स्पर्श नहीं कर सकता। साथ ही आपके आदेश से ही तो उन्हें मोह में डाला गया है। इसके प्रेरक तो आप ही हैं। इस समय अवश्य ही उन्होंने अपने धर्म का परित्याग कर दिया है और वे आपको भक्ति से विमुख हो गये हैं; तथापि आपके सिवा दूसरा कोई उनका वध नहीं कर सकता। देवों और ऋषियों के प्राणरक्षक महादेव! साधुओं की रक्षा के लिये आपके द्वारा उन म्लेच्छों का वध उचित है। आप तो राजा हैं, अतः राजा को धर्मानुसार पापियों का वध करने से पाप नहीं लगता; इसलिये इस काँटे को उखाड़कर साधु-ब्राह्मणों की रक्षा कीजिये। राजा यदि अपने राज्य तथा सर्वलोकाधिपत्य को स्थिर रखना चाहता हो तो उसे अपने राज्य में एवं अन्यत्र भी ऐसा ही व्यवहार करना चाहिये। इसलिये आप देवगणों की रक्षा के लिये उद्यत हो जाइये, विलम्ब मत कीजिये। देवदेवेश! बड़े-बड़े मुनीश्वर, यज्ञ, सम्पूर्ण वेद, शास्त्र, मैं और विष्णु भी निश्चय ही आपकी प्रजा हैं। प्रभो! आप देवताओं के सार्वभौम सम्राट् हैं। ये श्रीहरि आदि देवगण तथा सारा जगत्‌ आपका ही कुटुम्ब है। अजन्मा देव! श्रीहरि आपके युवराज हैं और मैं ब्रह्मा आपका पुरोहित हूँ तथा आपकी आज्ञा का पालन करनेवाले शक्र राजकार्य सँभालने वाले मन्त्री हैं। सर्वेश! अन्य देवता भी आपके शासन के नियन्त्रण में रहकर सदा अपने-अपने कार्य में तत्पर रहते हैं। यह बिलकुल सत्य है।

सनत्कुमारजी कहते हैं – व्यासजी! ब्रह्मा की यह बात सुनकर सुरपालक परमेश्वर शिव का मन प्रसन्न हो गया। तब उन्होंने ब्रह्माजी से कहा।

शिवजी बोले – ब्रह्मन्! यदि आप मुझे देवताओं का सम्राट् बतला रहे हैं तो मेरे पास उस पद के योग्य कोई ऐसी सामग्री तो है नहीं, जिससे मैं उस पद को ग्रहण कर सकूँ; क्योंकि न तो मेरे पास कोई महान् दिव्य रथ है, न उसके उपयुक्त सारथि है और न संग्राम में विजय दिलानेवाले वैसे धनुष-बाण ही हैं कि जिन्हें लेकर मैं मनोयोगपूर्वक संग्राम में उन प्रबल दैत्यों का वध कर सकूँ। यों कहकर वे चुप हो गये। परंतु शिवजी को शीघ्र प्रस्तुत होते न देखकर समस्त देवता, कश्यप आदि ऋषि अत्यन्त व्याकुल तथा दुःखी हो गये। तब भगवान् हरि ने उनसे कहा।

भगवान् विष्णु बोले – "देवो तथा मुनियों! तुम लोग क्यों दुःखी हो रहे हो? तुम्हें अपने सारे दुःख का परित्याग कर देना चाहिये। अब तुम सब लोग आदरपूर्वक मेरी बात सुनो। देवगण! तुम्हीं लोग विचार करो कि महान् पुरुषों की आराधना सुखसाध्य नहीं होती। मैंने ऐसा सुना है कि महदाराधन में पहले महान् कष्ट झेलना पड़ता है। पीछे भक्त की दृढ़ता देखकर इष्टदेव अवश्य प्रसन्न होते हैं। परंतु शिव तो समस्त गणों के अध्यक्ष तथा परमेश्वर हैं। ये तो आशुतोष ही ठहरे। अतः पहले 'ॐ' का उच्चारण करके फिर 'नमः' का प्रयोग करे। फिर 'शिवाय' कहकर दो बार 'शुभम्' का उच्चारण करे। उसके बाद दो बार 'कुरु' का प्रयोग करके फिर 'शिवाय नमः' 'ॐ' जोड़ दे। [ऐसा करने से 'ॐ नमःशिवाय शुभं शुभं कुरु कुरु शिवाय नमः ॐ' यह मन्त्र बनता है।] बुद्धिविशारदो! यदि तुम लोग शिव की प्रसन्नता के लिये इस मन्त्र का पुनः एक करोड़ जप करोगे तो शिवजी अवश्य तुम्हारा कार्य पूर्ण करेंगे।" मुने! प्रभावशाली श्रीहरि ने जब यों कहा, तब सभी देवता पुनः शिवाराधन में लग गये। तत्पश्चात्‌ श्रीहरि भी देवों तथा मुनियों के कार्य की सिद्धि के हेतु शिव में मन लगाकर विशेष रूप से विधिपूर्वक जप में तत्पर हो गये। मुनिश्रेष्ठ! इधर देवगण धेर्यसम्पन्न हो बारंबार 'शिव'-'शिव' यों उच्चारण करते हुए एक करोड़ जप करके सामने खड़े हो गये। इसी समय स्वयं साक्षात्‌ शिव पूर्वोक्त स्वरूप धारण करके प्रकट हो गये और यों कहने लगे।

श्रीशिवजी बोले – हरे! ब्रह्मन्! देवगण तथा उत्तम व्रत का पालन करनेवाले मुनियो! मैं तुम लोगों के इस जप से प्रसन्न हो गया हूँ, अतः अब तुम लोग अपना मनोवांछित वर माँग लो।

देवताओं ने कहा – देवाधिदेव! कल्याण-कर्ता जगदीश्वर! यदि आप हम पर प्रसन्न हैं तो देवों की विकलता का विचार करके शीघ्र ही त्रिपुर का संहार कर दीजिये। परमेश्वर! आप दीनबन्धु तथा कृपा की खान हैं। आपने ही सदा से हम देवताओं की बारंबार विपत्तियों से रक्षा की है, अतः इस समय भी आप हमारी रक्षा कीजिये।

सनत्कुमारजी कहते हैं – ब्रह्मन्‌! तब ब्रह्मा और विष्णु सहित देवों की वह बात सुनकर शिवजी मन-ही-मन प्रसन्न हुए और पुनः इस प्रकार बोले।

महेश्वर ने कहा – हरे! ब्रह्मन्! देवगण! तथा मुनियों! अब त्रिपुर को नष्ट हुआ ही समझो। तुम लोग आदरपूर्वक मेरी बात सुनो। मैंने पहले जिस दिव्य रथ, सारथि, धनुष और उत्तम बाण को अंगीकार किया है, वह सब शीघ्र ही तैयार करो। विष्णो तथा विधे! निश्चय ही तुम दोनों त्रिलोकी के अधिपति हो; इसलिये तुम्हें चाहिये कि मेरे लिये प्रयत्नपूर्वक सम्राट् के योग्य सारा उपकरण प्रस्तुत कर दो। तुम दोनों सृष्टि के सृजन और पालन-कार्य में नियुक्त हो, अतः त्रिपुर को नष्ट हुआ समझकर देवताओं की सहायता के लिये यह कार्य अवश्य करो। यह शुभ मन्त्र जिसका तुम लोगों ने जप किया है, महान् पुण्यमय तथा मुझे प्रसन्न करने वाला है। यह भुक्ति-मुक्ति का दाता, सम्पूर्ण कामनाओं का पूरक और शिवभक्तों के लिये आनन्दप्रद है। यह स्वर्गकामी पुरुषों के लिये धन, यश और आयु की वृद्धि करने वाला है। यह निष्काम के लिये मोक्ष तथा साधन करने वाले पुरुषों के लिये भुक्ति-मुक्ति का साधक है। जो मनुष्य पवित्र होकर सदा इस मन्त्र क कीर्तन करता है, सुनता है अथवा दूसरे को सुनाता है, उसकी सारी अभिलाषाएँ पूर्ण हो जाती हैं।

सनत्कुमारजी कहते हैं – मुने! परमात्मा शिव की यह बात सुनकर सभी देवता परम प्रसन्न हुए और ब्रह्मा तथा विष्णु को तो विशेष आनन्द प्राप्त हुआ। उस समय विश्वकर्मा ने शिव के आज्ञानुसार विश्व के हित के लिये एक सर्वदेवमय तथा परम शोभन दिव्य रथ का निर्माण किया।

(अध्याय ६ - ८)