सर्वदेवमय रथ का वर्णन, शिवजी का उस रथ पर चढ़कर युद्ध के लिये प्रस्थान, उनका पशुपति नाम पड़ने का कारण, शिवजी द्वारा गणेश का पूजन और त्रिपुर-दाह, मयदानव का त्रिपुर से जीवित बच निकलना

व्यासजी ने कहा – शैवप्रवर सनत्कुमारजी! आपकी बुद्धि बड़ी उत्तम है, आप सर्वज्ञ हैं। तात! आपने परमेश्वर शिव की जो कथा सुनायी है, वह अत्यन्त अद्भुत है। अब बुद्धिमान् विश्वकर्मा ने शिवजी के लिये जिस देवमय एवं परमोत्कृष्ट दिव्य रथ का निर्माण किया था, उसका वर्णन कीजिये।

सूतजी कहते हैं – मुने! व्यासजी की यह बात सुनकर मुनीश्वर सनत्कुमार शिवजी के चरणकमलों का स्मरण करके बोले।

सनत्कुमारजी ने कहा – महाबुद्धिमान् मुनिवर व्यासजी! मैं शिवजी के पादपद्मों का स्मरण करके अपनी बुद्धि के अनुसार रथ की निर्माण-कथा का वर्णन करता हूँ, सुनो। तदनन्तर विश्वकर्मा ने रुद्रदेव के लिये बड़े यत्न से आदरपूर्वक सर्वलोकमय दिव्य रथ की रचना की। वह सर्वसम्मत तथा सर्वभूतमय रथ सुवर्ण का बना हुआ था। उसके दाहिने चक्र में सूर्य और वामचक्र में चन्द्रमा विराजमान थे। दाहिने चक्र में बारह अरे लगे हुए थे, जिनमें बारहों सूर्य प्रतिष्ठित थे और बायाँ पहिया सोलह अरों से युक्त था, जिनमें चन्द्रमा की सोलह कलाएँ विराजमान थीं। उत्तम व्रत का पालन करने वाले विपेन्द्र! अश्विनी आदि सभी सत्ताईसों नक्षत्र भी उस वामचक्र की हो शोभा बढ़ा रहे थे। विप्रश्रेष्ठ! छहों ऋतूएँ उन दोनों पहियों की नेमि बनीं। अन्तरिक्ष रथ का अग्रभाग हुआ और मन्दराचल ने रथ की बैठक का स्थान ग्रहण किया। उदयाचल और अस्ताचल – ये दोनों उस रथ के कूबर हुए। महामेरु अधिष्ठान हुआ और शाखापर्वत उसके आश्रयस्थान हुए। संवत्सर उस रथ का वेग, उत्तरायण और दक्षिणायन – दोनों लोहधारक, मुहूर्त बन्धुर (रस्सा), कलाएँ उसकी कीलें हुई। काष्ठाएँ उसका घोणा (नासिकारूप अग्रभाग), क्षण अक्षदण्ड, निमेष अनुकर्ष (नीचे का काष्ठ) और लव ईषादण्ड हुए। द्युलोक इस रथ का वरूथ (ऊपरी पर्दा) तथा स्वर्ग और मोक्ष ध्वजाएँ हुईं। अभ्रमु (ऐरावत की पत्नी) और कामधेनु जुए के अंतिम छोर पर स्थित हुए। अव्यक्त (प्रकृति) उसका ईषादण्ड, बुद्धि नड्वल, अंहकार कोना और पंच महाभूत उसका बल थे। मुनिश्रेष्ठ! इन्द्रियाँ उसे चारों ओर से विभूषित कर रही थीं और श्रद्धा उस रथ की चाल थी। उस समय वेदों के छहों अंग ही उसके भूषण और पुराण, न्याय, मीमांसा तथा धर्मशास्त्र उपभूषण हुए। सम्पूर्ण शुभ लक्षणों से युक्त बलसम्पन्न श्रेष्ठ मन्त्र घण्टा के स्थानापन्न हुए और वर्ण तथा आश्रम उसके पाद बने। सहस्त्र फणों से सुशोभित शेषनाग बन्धनरज्जू हुए और दिशाएँ तथा उपदिशाएँ उसके पाद बनीं। पुष्कर आदि तीर्थों ने रत्नजटित स्वर्णमय पताकाओं का स्थान ग्रहण किया और चारों समुद्र उस रथ के आच्छादन-वस्त्र बने। गंगा आदि सभी श्रेष्ठ सरिताओं ने सुन्दरी स्त्रियों का रूप धारण किया और समस्त आभूषणों से विभूषित हो हाथ में चँवर ले यत्र-तत्र स्थित होकर ये रथ की शोभा बढ़ाने लगीं। आवह आदि सातों वायुओं ने स्वर्णमय उत्तम सोपान का काम सँभाला। लोकालोक पर्वत उसके चारों ओर का उपसोपान और मानस आदि सरोवर उसके सुन्दर बाहरी विषमस्थान हुए। सारे वर्षाचल उसके चारों ओर के पाश बने और नीचे के लोकों के निवासी उस रथ का टल भाग हुए। देवाधिदेव भगवान् ब्रह्मा लगाम पकड़नेवाले सारथि हुए और ब्रह्मदैवत ॐकार उन ब्रह्मदेव का चाबुक हुआ। अकार ने विशाल छत्र का रूप धारण किया। मन्दराचल पार्श्व भाग का दण्ड हुआ। शैलराज हिमालय धनुष और स्वयं नागराज शेष उसकी प्रत्यंचा बने। श्रुतिरूपिणी सरस्वती देवी उस धनुष की घण्टा हुईं और महातेजस्वी विष्णु बाण तथा अग्नि उस बाण के नोक बने। मुने! चारों वेद उस रथ में जुतनेवाले चार घोड़े कहे गये हैं। इसके बाद शेष बची हुई ज्योतियाँ उन अश्वों की आभूषण हुईं। विष से उत्पन्न हुई वस्तुओं ने सेना का रूप धारण किया, वायु बाजा बजानेवाले और व्यास आदि मुख्य-मुख्य ऋषि वाहवाहक हुए। मुनीश्वर! अधिक कहने से क्या लाभ, मैं संक्षेप में ही बतलाता हूँ कि ब्रह्माण्ड में जो कुछ वस्तु थी, वह सब उस रथ में विद्यमान थी। इस प्रकार बद्धिमान् विश्वकर्मा ने ब्रह्मा और विष्णु की आज्ञा से उस शुभ रथ का तथा रथसामग्री का निर्माण किया था।

सनत्कुमारजी कहते हैं – महर्षे! इस प्रकार के महान् दिव्य रथ में, जो अनेकविध आश्चर्यों से युक्त था, वेद रूपी अश्वों को जोतकर ब्रह्मा ने इसे शिव को समर्पित कर दिया। शम्भु को निवेदित करने के पश्चात् जो विष्णु आदि देवों के सम्माननीय एवं त्रिशूल धारण करने वाले हैं, उन देवेश्वर की प्रार्थना करके ब्रह्माजी उन्हें उस रथ पर चढ़ाने लगे। तब महान् ऐश्वर्यशाली सर्वदेवमय शम्भु रथसामग्री से युक्त उस दिव्य रथ पर आरूढ़ हुए। उस समय ऋषि, देवता, गन्धर्व, नाग, लोकपाल और ब्रह्मा, विष्णु भी उनकी स्तुति कर रहे थे। गानविद्याविशारद अप्सराओं के गण उन्हें घेरे हुए थे। सारथि के स्थान पर ब्रह्मा को देखकर उन वरदायक शम्भु की विशेष शोभा हुई। लोक की सारी वस्तुओं से कल्पित उस रथ पर शिवजी चढ़ ही रहे थे कि वेदसम्भूत वे घोड़े सिर के बल भूमि पर गिर पड़े। पृथ्वी में भूकम्प आ गया। सारे पर्वत डगमगाने लगे। सहसा शेषनाग शिवजी का भार न सह सकने के कारण आतुर हो काँप उठे। तब उसी क्षण भगवान् धरणीधर ने उठकर नन्दीश्वर का रूप धारण किया और रथ के नीचे जाकर उसे ऊपर को उठाया; परंतु नन्दीश्वर भी रथारूढ़ महेश के उस उत्तम तेज को सहन न कर सके, अतः उन्होंने तत्काल ही पृथ्वी पर घुटने टेक दिये। तत्पश्चात् भगवान् ब्रह्मा ने शिवजी की आज्ञा से हाथ में चाबुक ले घोड़ों को उठाकर उस श्रेष्ठ रथ को खड़ा किया। तदनन्तर महेश द्वारा अधिष्ठित उस उत्तम रथ में बैठे हुए ब्रह्माजी ने रथ में जुते हुए मन और वायु के समान वेगशाली वेदमय अश्वों को उन तपस्वी दानवों के आकाशस्थित तीनों पुरों को लक्ष्य करके आगे बढ़ाया। तत्पश्चात् लोकों के क्ल्याणकर्ता भगवान् रुद्र देवों की ओर दृष्टिपात करके कहने लगे – 'सुरश्रेष्ठों! यदि तुम लोग देवों तथा अन्य प्राणियों के विषय में पृथक्-पृथक् पशुत्व की कल्पना करके उन पशुओं का अधिपत्य मुझे प्रदान करोगे, तभी मैं उन असुरों का संहार करूँगा; क्योंकि वे दैत्यश्रेष्ठ तभी मारे जा सकते हैं, अन्यथा उनका वध असम्भव है।'

सनत्कुमारजी कहते हैं – मुने! अगाध बुद्धिसम्पन्न देवाधिदेव भगवान् शंकर की यह बात सुनकर सभी देवता पशुत्व के प्रति सशंकित हो उठे, जिससे उनका मन खिन्न हो गया। तब उनके भाव को समझकर देवदेव अम्बिकापति शम्भु करुणार्द्र हो गये। फिर वे हँसकर उन देवताओं से इस प्रकार बोले।

शम्भु ने कहा – देवश्रेष्ठों! पशुभाव प्राप्त होने पर भी तुम लोगों का पतन नहीं होगा। मैं उस पशुभाव से विमुक्त होने का उपाय बतलाता हूँ, सुनो और वैसा ही करो। समाहित मनवाले देवताओं! मैं तुम लोगों से सच्ची प्रतिज्ञा करता हूँ कि जो इस दिव्य पाशुपत व्रत का पालन करेगा, वह पशुत्व से मुक्त हो जायगा। सुरश्रेष्ठों! तुम्हारे अतिरिक्त जो अन्य प्राणी भी मेरे पाशुपत व्रत को करेंगे, वे भी निस्संदेह पशुत्व से छुट जायँगे। जो नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए बारह वर्ष तक, छः वर्ष तक अथवा तीन वर्ष तक मेरी सेवा करेगा अथवा करायेगा, वह पशुत्व से विमुक्त हो जायगा। इसलिये श्रेष्ठ देवताओं! तुम लोग भी जब इस परमोत्कृष्ट दिव्य व्रत का पालन करोगे तो उसी समय पशुत्व से मुक्त हो जाओगे — इसमें कुछ भी संशय नहीं है।

सनत्कुमारजी कहते हैं – महर्षे! परमात्मा महेश्वर का वचन सुनकर विष्णु और ब्रह्मा आदि देवताओं ने कहा – 'तथेति' – बहुत अच्छा, ऐसा ही होगा। इसीलिये बड़े-बड़े देवता तथा असुर भगवान् शंकर के पशु बने और पशुत्व-रूपी पाश से विमुक्त करने वाले रुद्र पशुपति हुए। तभी से महेश्वर का 'पशुपति' यह नाम विश्व में विख्यात हो गया। यह नाम समस्त लोकों में कल्याण प्रदान करने वाला है। उस समय सम्पूर्ण देवता तथा ऋषि हर्षमग्न होकर जय-जयकार करने लगे और देवेश्वर ब्रह्मा, विष्णु तथा अन्यान्य प्राणी भी परमानन्दमग्न हो गये। उस अवसर पर महात्मा शिव का जैसा रूप प्रकट हुआ था, उसका वर्णन सैकड़ों वर्षों में भी नहीं हो सकता। तदनन्तर जो शिवा तथा सम्पूर्ण जगत् के स्वामी और समस्त प्राणियों के सुख प्रदान करनेवाले हैं, वे महेश्वर यों सुसज्जित होकर त्रिपुर का संहार करने के लिये प्रस्थित हुए। जिस समय देवदेव महादेव त्रिपुर का विनाश करने के लिये चले, उस अवसर पर देवराज आदि सभी प्रधान-प्रधान देवता भी उनके साथ प्रस्थित हुए। पर्वत के समान विशालकाय उन सुरेश्वरों का मन प्रसन्न था, वे सूर्य के समान प्रकाशित हो रहे थे। सभी हाथों में हल, शाल, मुसल, भुशुण्डी और नाना प्रकार के पर्वत-जैसे विशाल आयुधों को धारण करके हाथी, घोड़े, सिंह, रथ और बैलों पर सवार हो चल रहे थे। उस समय जिनके शरीर परम प्रकाशमान थे और मन महान् उत्साह से सम्पन्न थे तथा जो नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित थे, वे इन्द्र, ब्रह्मा और विष्णु आदि देव शम्भु की जय-जयकार बोलते हुए महेश्वर के आगे-आगे चले। सभी दण्डी एवं जटाधारी मुनि हर्ष मनाने लगे और आकाशचारी सिद्ध तथा चारण पुष्पों की वृष्टि करने लगे। विपेन्द्र! त्रिपुर की यात्रा करते समय जितने गणेश्वर शिवजी के साथ थे, उनकी गणना करके कौन पार पा सकता है; तथापि मैं कुछ का वर्णन करता हूँ। योगिन्! समस्त गणराजों में श्रेष्ठ भृंगी गणेश्वरों तथा देवगणों से घिरकर विमान पर आरूढ़ हो महेंद्र की भाँति त्रिपुर का विनाश करने के लिये चले। उनके साथ-साथ केश, विगतबास, महाकेश, महाज्वर, सोमवल्ली-सवर्ण, सोमप, सनक, सोमधृक, सुर्यवर्चा, सूर्यप्रेक्षणक, सुर्याक्ष, सूरिनामा, सुर, सुन्दर, प्रस्कन्द, कुन्दर, चण्ड, कम्पन, अतिकम्पन, इन्द्र, इन्द्रजय, यन्ता, हिमकर, शताक्ष, पंचाक्ष, सहस्त्राक्ष, महोदर, सतीजहू, शतास्य, रंक, कर्पुरपुतन, द्विशिख, त्रिषिख, अहंकारकारक, अजवक्त्र, अष्टवक्त्र, हयवक्त्र, अर्धवक्त्र आदि बहुत-से अप्रमेय बलशाली वीर गणाध्यक्ष लक्ष्य-लक्षण की परवाह न करते हुए महेश्वर को घेर कर चल रहे थे।

व्यासजी! तदनन्तर महादेव शम्भु सम्पूर्ण सामग्रियों सहित उस रथ पर स्थित हो उन सुरद्रोहियों के तीनों पुरों को पूर्णतया दग्ध करने के लिये उद्यत हुए। उन्होंने रथ के शीर्ष-स्थान पर स्थित हो उस महान् अद्भुत धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ायी और उस पर उत्तम बाण का संधान करके वे रोषावेश से होठ को चाटने लगे। फिर धनुष की मूठ को दृढ़तापूर्वक पकड़कर और दृष्टि में दृष्टि मिलाकर वे वहाँ अचल भाव से खड़े हो गये। परंतु उनके अँगूठे के अग्रभाग में स्थित होकर गणेश निरन्तर पीड़ा ही पहुँचाने रहे, जिससे वे तीनों पुर त्रिशूलधारी शंकर का लक्ष्य नहीं बन सके। तब धनुष-बाणधारी मुंजकेश विरूपाक्ष शंकर ने परम शोभन आकाशवाणी सुनी। उस व्योमवाणी ने कहा – 'ऐश्वर्यशाली जगदीश्वर! जब तक आप इन गणेश की अर्चना नहीं कर लेंगे, तब तक इन तीनों पुरों का संहार नहीं कर सकेंगे।' तब ऐसी बात सुनकर अन्धकारसुर के निहन्ता भगवान् शिव ने भद्रकाली को बुलाकर गजानन का पूजन किया। जब हर्षपूर्वक विधि-विधान सहित अग्रभाग में स्थित उन विनायक की पूजा की गयी, तब वे प्रसन्न हो गये। फिर तो भगवान् शंकर को उन तारकपुत्र महामनस्वी दैत्यों के तीनों नगर यथोक्तरूप से आकाश में स्थित दीख पड़े। इस विषय में कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि जब शिवजी स्वयं स्वतन्त्र, परब्रह्म, सगुण, निर्गुण, सबके द्वारा अलक्ष्य, स्वामी, परमात्मा, निरंजन, पंचदेवमय, पंचदेवों के उपास्य और परात्पर प्रभु हैं, वे ही सबके उपास्य हैं, उनका उपास्य कोई नहीं है, तब सबके वन्दनीय परब्रह्मस्वरूप उन देवेश्वर महेश्वर के विषय में यह बात उचित नहीं जान पड़ती कि उनकी कार्यसिद्धि अन्य की कृपा पर अवलम्बित हो। परंतु मुने! उन देवाधिदेव वरदानी महेश्वर के चरित्र में लीलावश सब कुछ घटित हो सकता है। अस्तु! इस प्रकार जब गणाधिप का पूजन करके महादेवजी स्थित हुए, तब वे तीनों पुर कालवश शीघ्र ही एकता को प्राप्त हो गये। मुने! उन त्रिपुरों के परस्पर मिलकर एक हो जाने पर महान् आत्मबल से सम्पन्न देवताओं को महान् हर्ष हुआ। तब सम्पूर्ण देवगण, सिद्ध और परमर्षि अष्टमुर्तिधारी शिव की स्तुति करके उच्च स्वर से जय-जयकार करने लगे। उस समय ब्रह्मा और जगदीश्वर विष्णु ने कहा – 'महेश्वर! तारक के पुत्र उन त्रिपुरनिवासी दैत्यों के वध का समय भी आ गया है। विभो! इसीलिये ये पुर एकाता को प्राप्त हो गये हैं। अतः देवेश! जब तक ये त्रिपुर पुनः विलग हों उसके पहले ही आप बाण छोड़कर इन्हें भस्म कर डालिये और देवताओं का कार्य सिद्ध कीजिये।'

मुने! तदनन्तर शिवजी ने धनुष्य की डोरी चढ़ाकर उस पर पूज्य पाशुपतास्त्र नामक बाण का संधान किया और उसे वे त्रिपुर पर छोड़ने का विचार करने लगे। शंकरजी ने जिस समय अपने अद्भुत धनुष को खींचा था, उस समय अभिजित् मुहूर्त चल रहा था। उन्होंने धनुष की टंकार तथा दुस्सह सिंहनाद करके अपना नाम घोषित किया और उन महासुरों को ललकारकर करोड़ों सुर्यों के समान प्रकाशमान उस भीषण बाण को उन पर छोड़ दिया। तब जिसके नोक पर अग्निदेव प्रतिष्ठित थे और जो विशेष रूप से पाप का विनाशक तथा विष्णुमय था; उस महान् जाज्वल्यमान शीघ्रगामी बाण ने उन त्रिपुरनिवासी दैत्यों को दग्ध कर दिया। तत्पश्चात् वे तीनों पुर भी भस्म हो गये और एक साथ ही चारों समुद्रों रूपी मेखलावाली भूमि पर गिर पड़े। उस समय शिवजी की पुजा का अतिक्रमण कर देने के कारण सैकड़ों दैत्य उस बाण स्थित अग्नि से जलकर हाहाकार मचा रहे थे। जब भाइयों सहित तारकाक्ष जलने कगा, तब उसने अपने स्वामी भक्तवत्सल भगवान् शंकर का स्मरण किया और मन-ही-मन महादेव को देखकर परम भक्तिपूर्वक नाना प्रकार से विलाप करता हुआ वह उनसे कहने लगा।

तारकाक्ष बोला – 'भव! आप हम पर प्रसन्न हैं, यह हमें ज्ञात हो गया है। इस सत्य के प्रभाव से आप फिर कब भाइयों सहित हमको दग्ध करेंगे। भगवन्! जो देवता और असुरों के लिये अप्राप्य है, वह दुर्लभ लाभ हमें प्राप्त हो गया। अब जिस-जिस योनि में हम जन्म धारण करें, वहाँ हमारी बुद्धि आपकी भक्ति से भावित रहे।' मुने! यों वे दैत्य विलाप कर ही रहे थे कि शिवजी की आज्ञा से उस अग्नि ने उन्हें अद्भुत रीति से जलाकर राख की ढेरी बना दिया। व्यासजी! और भी जो बालक और वृद्ध दानव थे, वे शिवाज्ञानुसार उस अग्नि द्वारा शीघ्र ही जलकर भस्म हो गये। यहाँ तक कि उन त्रिपुरों में जितनी स्त्रियाँ और पुरुष थे, वे सब-के-सब उस अग्नि से उसी प्रकार दग्ध हो गये जैसे कल्पान्त में जगत् भस्म हो जाता है। उस समय उस भीषण अग्नि से कोई भी स्थावर-जंगम बिना जले नहीं बचा, किंतु असुरों का विश्वकर्मा अविनाशी मय बच गया; क्योंकि वह देवों का अविरोधी, शम्भु के तेज से सुरक्षित और सद्भक्त था। विपत्ति के अवसर पर भी वह महेश्वर का शरणागत बना रहता था। जिन दैत्यों तथा अन्य प्राणियों का भाव-अभाव अथवा कृत-अकृत के प्राप्त होने पर नाशकारक पतन नहीं होता, वे विनाश से बचे रहते हैं। इसलिये सत्पुरुषों को अत्यन्त सम्भावित – उत्तम कर्म के लिये ही प्रयत्न करना चाहिये; क्योंकि निन्दित कर्म करने से प्राणि का विनाश हो जाता है। अतः गर्हित कर्म का आचरण भूलकर भी न करे। उस समय भी जो दैत्य बन्धु-बान्धवों सहित शिवजी की पूजा के प्रभाव से (दुसरे जनम में) गणों के अधिपति हो गए।

(अध्याय ९ - १०)