देवों के स्तवन से शिवजी का कोप शान्त होना और शिवजी का उन्हें वर देना, मय दानव का शिवजी के समीप जाना और उनसे वर-याचना करना, शिवजी से वर पाकर मय का वितललोक में जाना
व्यासजी ने पूछा – महाबुद्धिमान् सनत्कुमारजी! आप तो ब्रह्मा के पुत्र और शिवभक्तों में सर्वश्रेष्ठ हैं, अतः आप धन्य हैं। अब यह बतलाइये कि त्रिपुर के दग्ध हो जाने पर सम्पूर्ण देवताओं ने क्या किया? मय कहाँ गया और उन त्रिपुराध्यक्षों की क्या गति हुई? यदि यह वृत्तान्त शम्भु की कथा से सम्बन्ध रखनेवाला हो तो वह सब विस्तारपूर्वक मुझसे वर्णन कीजिये।
सूतजी कहते हैं – मुने! व्यासजी का प्रश्न सुनकर सृष्टिकर्ता ब्रह्मा के पुत्र भगवान् सनत्कुमार शिवजी के युगल चरणों का स्मरण करके बोले।
सनत्कुमारजी ने कहा – महाबुद्धिमान् व्यासजी! जब महेश्वर ने दैत्यों से खचाखच भरे हुए सम्पूर्ण त्रिपुर को भस्म कर दिया, तब सभी देवताओं को महान् आश्चर्य हुआ। उस समय शंकरजी के महान् भयंकर रौद्र रूप को, जो करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान और प्रलयकालीन अग्नि की भाँति तेजस्वी था तथा जिसके तेज से दसों दिशाएँ प्रज्वलित-सी दीख रही थीं, देखकर साथ ही हिमाचल-पुत्री पार्वती देवी की ओर दृष्टिपात करके सम्पूर्ण देवता भयभीत हो गये। तब मुख्य-मुख्य देवता विनम्र होकर सामने खड़े हो गये। उस अवसर पर बड़े-बड़े ऋषि भी देवताओं की वाहिनी को भयभीत देखकर खड़े ही रह गये, कुछ बोल न सके। वे चारों ओर से शम्भु को प्रणाम करने लगे। तत्पश्चात् ब्रह्मा भी शिवजी के उस रूप को देखकर भयग्रस्त हो गये। तब उन्होंने डरे हुए विष्णु तथा देवगणों के साथ प्रसन्न मन से सावधानीपूर्वक उन गिरिजा सहित महेश्वर का, जो देवों के भी देव, भव तथा हरनाम से प्रसिद्ध, भक्तों के अधीन रहने वाले और त्रिपुरहन्ता हैं, स्तवन किया। तदनन्तर सभी प्रमुख देवताओं ने भगवान् शिव की स्तुति की। यों स्तुति किये जाने पर लोकों के कल्याणकर्ता शंकर प्रसन्न होकर बोले।
शंकरजी ने कहा – ब्रह्मा, विष्णु तथा देवगण! मैंने तुम लोगों पर विशेष रूप से प्रसन्न हूँ, अतः अब तुम सभी विचार करके अपना मनोवांछित वर माँग लो।
सनत्कुमारजी कहते हैं – मुनिश्रेष्ठ! शिव द्वारा कहे हुए वचन को सुनकर सभी देवताओं का मन प्रसन्नता से खिल उठा। फिर तो वे बोल उठे।
देवताओं ने कहा – भगवन्! देवदेवेश! यदि आप हमपर प्रसन्न हैं और हम देवगणों को अपना दास समझकर वर देना चाहते हैं तो देवसत्तम! जब-जब देवताओं पर दुःख की सम्भावना हो, तब-तब आप प्रकट होकर सदा उनके दुःखों का विनाश करते रहें।
सनत्कुमारजी कहते हैं – महर्षे! जब ब्रह्मा, विष्णु और देवताओं ने भगवान् रुद्र से ऐसी प्रार्थना की, तब वे शान्त तथा प्रसन्न होकर एक साथ ही सबसे बोले – 'अच्छा, सदा ऐसा ही होगा।' ऐसा कहकर शंकरजी ने, जो सदा देवों का दुःख हरण करने वाले हैं, प्रसन्नतापूर्वक देवों को जो कुछ अभीष्ट था, वह सारा-का-सारा उन्हें प्रदान कर दिया। इस समय मय दानव, जो शिवजी की कृपा के बल से जलने से बच गया था, शम्भु को प्रसन्न देखकर हर्षित मन से वहाँ आया। उसने विनीत भाव से हाथ जोड़कर प्रेमपूर्वक हर तथा अन्यान्य देवों को भी प्रणाम किया। फिर वह शिवजी के चरणों में लोट गया। तत्पश्चात् दानवश्रेष्ठ मय ने उठकर शिवजी की ओर देखा। उस समय प्रेम के कारण उसका गला भर आया और वह भक्तिपूर्ण चित्त से उनकी स्तुति करने लगा। द्विजश्रेष्ठ! मय द्वारा किये गये स्तवन को सुनकर परमेश्वर शिव प्रसन्न हो गये और आदरपूर्वक उससे बोले।
शिवजी ने कहा – दानवश्रेष्ठ मय! मैं तुझ पर प्रसन्न हूँ, अतः तू वर माँग ले। इस समय जो कुछ भी तेरे मन की अभिलाषा होगी, उसे मैं अवश्य पूर्ण करूँगा।
सनत्कुमारजी कहते हैं – मुने! शम्भु के इस मंगलमय वचन को सुनकर दानवश्रेष्ठ मय ने अंजलि बाँधकर विनम्र हो उन प्रभु के चरणों में नमस्कार करके कहा।
मय बोला – देवाधिदेव महादेव! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं और मुझे वर पाने का अधिकारी समझते हैं तो अपनी शाश्वती भक्ति प्रदान कीजिये। परमेश्वर! मैं सदा अपने भक्तों से मित्रता रखूँ, दीनों पर सदा मेरा दयाभाव बना रहे और अन्यान्य दुष्ट प्राणियों की मैं उपेक्षा करता रहूँ। महेश्वर! कभी भी मूझ में आसुर भाव का उदय न हो। नाथ! निरन्तर आपके शुभ भजन में तल्लीन रहकर निर्भय बना रहूँ।
सनत्कुमारजी कहते हैं – व्यासजी! शंकर तो सबके स्वामी तथा भक्तवत्सल हैं। मय ने जब इस प्रकार उन परमेश्वर की प्रार्थना की, तब वे प्रसन्न होकर मय से बोले।
महेश्वर ने कहा – दानवसत्तम! तू मेरा भक्त है, तुझमें कोई भी विकार नहीं हैं; अतः तू धन्य है। अब मैं तेरा जो कुछ भी अभीष्ट वर है, वह सारा-का-सारा तुझे प्रदान करता हूँ। अब तू मेरी आज्ञा से अपने परिवार सहित वितललोक को चला जा। वह स्वर्ग से भी रमणीय है। तू वहाँ प्रसन्नचित्त से मेरा भजन करते हुए निर्भय होकर निवास कर। मेरी आज्ञा से कभी भी तुझमें आसुर भाव का प्राकट्य नहीं होगा।
सनत्कुमारजी कहते हैं – मुने! मय ने महात्मा शंकर की उस आज्ञा को सिर झुकाकर स्वीकार किया और उन्हें तथा अन्यान्य देवों को भी प्रणाम करके वह वितललोक को चला गया। तदनन्तर महादेवजी देवताओं के उस महान् कार्य को पूर्ण करके देवी पार्वती, अपने पुत्र और सम्पूर्ण गणों सहित अन्तर्धान हो गये। जब परिवार समेत भगवान् शंकर अन्तर्हित हो गये, तब वह धनुष, बाण, रथ आदि सारा उपकरण भी अदृश्य हो गया। तत्पश्चात् ब्रह्मा, विष्णु तथा अन्यान्य देव, मुनि, गन्धर्व, किंनर, नाग, सर्प, अप्सरा और मनुष्यों को महान् हर्ष प्राप्त हुआ। वे सभी शंकरजी के उत्तम यश का बखान करते हुए आनन्दपूर्वक अपने-अपने स्थान को चले गये। वहाँ पहुँचकर उन्हें परम सुख की प्राप्ति हुई। महर्षे! इस प्रकार मैंने शशिमौलि शंकरजी का विशाल चरित, जो त्रिपुरविनाश को सूचित करने वाला तथा परमोत्कृष्ट लीला से युक्त है, सारा-का-सारा तुम्हें सुना दिया।
(अध्याय ११ - १२)