शंखचूड का असुर राज्य पर अभिषेक और उसके द्वारा देवों का अधिकार छीना जाना, देवों का ब्रह्मा की शरण में जाना, ब्रह्मा का उन्हें साथ लेकर विष्णु के पास जाना, विष्णु द्वारा शंखचूड के जन्म का रहस्योद्घाटन और फिर सबका शिव के पास जाना और शिवसभा में उनकी झाँकी करना तथा अपना अभिप्राय प्रकट करना
सनत्कुमारजी कहते हैं – महर्षे! जब शंखचूड ने तप करके वर प्राप्त कर लिया और वह विवाहित होकर अपने घर लौट आया, तब दानवों और दैत्यों को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे सभी असुर तुरंत ही अपने लोक से निकलकर अपने गुरु शुक्राचार्य को साथ ले दल बनाकर उसके निकट आये और विनयपूर्वक उसे प्रणाम करके अनेकों प्रकार से आदर प्रदर्शित करते हुए उसका स्तवन करने लगे। फिर उसे अपना तेजस्वी स्वामी मानकर अत्यन्त प्रेम भाव से उसके पास ही खड़े हो गये। उधर दम्भकुमार शंखचूड ने भी अपने कुलगुरु शुक्राचार्य को आया हुआ देखकर बड़े आदर और भक्ति के साथ उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। तदनन्तर गुरु शुक्राचार्य ने समस्त असुरों के साथ सलाह करके उनकी सम्मति से शंखचूड को दानवों तथा असुरों का अधिपति बना दिया। दम्भपुत्र शंखचूड प्रतापी एवं वीर तो था ही, उस समय असुर-राज्य पर अभिषिक्त होने के कारण वह असुर राज विशेष रूप से शोभा पाने लगा। तब उसने सहसा देवताओं पर आक्रमण करके वेगपूर्वक उनका संहार करना आरम्भ किया। सम्पूर्ण देवता मिलकर भी उसके उत्कृष्ट तेज को सहन न कर सके, अतः वे समरभूमि से भाग चले और दीन होकर यत्र-तत्र पर्वतों की खोहों में जा छिपे। उनकी स्वतंत्रता जाती रही। वे शंखचूड के वशवर्ती होने के कारण प्रभाहीन हो गये। इधर शूरवीर प्रतापी दम्भकुमार दानवराज शंखचूड ने भी सम्पूर्ण लोकों को जीत कर देवताओं का सारा अधिकार छीन लिया। वह त्रिलोकी को अपने अधीन करके सम्पूर्ण लोकों पर शासन करने लगा और स्वयं इन्द्र बनकर सारे यज्ञभागों को भी हड़पने लगा तथा अपनी शक्ति से कुबेर, सोम, सूर्य, अग्नि, यम और वायु आदि के अधिकारों का भी पालन कराने लगा। उस समय महान् बल-पराक्रम से सम्पन्न महावीर शंखचूड समस्त देवताओं, असुरों, दानवों, राक्षसों, गन्धर्वों, नागों, किंनरों, मनुष्यों तथा त्रिलोकी के अन्यान्य प्राणियों का एकछत्र सम्राट् था। इस प्रकार महान् राजराजेश्वर शंखचूड बहुत वर्षों तक सम्पूर्ण भुवनों के राज्य का उपभोग करता रहा। उसके राज्य में न अकाल पड़ता था, न महामारी और न अशुभ ग्रहों का ही प्रकोप होता था; आधि-व्याधियाँ भी अपना प्रभाव नहीं डाल पाती थीं। पृथ्वी बिना जोते ही अनेक प्रकार के धान्य उत्पन्न करती थी। नाना प्रकार की ओषधियाँ उत्तम-उत्तम फलों और रसों से युक्त थीं। उत्तम-उत्तम मणियों की खदानें थीं। समुद्र अपने तटों पर निरन्तर ढेर-के ढेर रत्न बिखेरते रहते थे। वृक्षों में सदा पुष्प-फल लगे रहते थे। सरिताओं में सुस्वादु नीर बहता रहता था। देवताओं के अतिरिक्त सभी जीव सुखी थे। उनमें किसी प्रकार का विकार नहीं उत्पन्न होता था। चारों वर्णों और आश्रमों के सभी लोग अपने-अपने धर्म में स्थित रहते थे। इस प्रकार जब वह त्रिलोकी का शासन कर रहा था, उस समय कोई भी दुःखी नहीं था; केवल देवता भ्रातृ-द्रोह वश दुःख उठा रहे थे। मुने! महाबली शंखचूड गोलोक निवासी श्रीकृष्ण का परम मित्र था। साधु-स्वभाववाला वह सदा श्रीकृष्ण की भक्ति में निरत रहता था। पूर्वशापवश उसे दानव की योनि में जन्म लेना पड़ा था, परंतु दानव होने पर भी उसकी बुद्धि दानव की सी नहीं थी।
प्रिय व्यासजी! तदनन्तर जो पराजित होकर राज्य से हाथ धो बैठे थे, वे सभी सुरगण तथा ऋषि परस्पर मन्त्रणा करके ब्रह्माजी की सभा को चले। वहाँ पहुँचकर उन्होंने ब्रह्माजी का दर्शन किया और उनके चरणों में अभिवादन करके विशेष रूप से उनकी स्तुति की। फिर आकुलतापूर्वक अपना सारा वृतान्त उन्हें कह सुनाया। तब ब्रह्मा इन सभी देवताओं तथा मुनियों को ढाढ़स बंधाकर उन्हें साथ ले सत्पुरुषों को सुख प्रदान करने वाले वैकुण्ठ-लोक को चल पड़े। वहाँ पहुँचकर देवगणों सहित ब्रह्मा ने रमापति का दर्शन किया। उनके मस्तक पर किरीट सुशोभित था, कानों में कुण्डल झलमला रहे थे और कण्ठ वनमाला से विभूषित था। वे चतुर्भुज देव अपनी चारों भुजाओं में शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये हुए थे। श्रीविग्रह पर पीताम्बर शोभा दे रहा था और सनन्दनादि सिद्ध उनकी सेवा में नियुक्त थे। ऐसे सर्वव्यापी विष्णु की झाँकी करके ब्रह्मा आदि देवताओं तथा मुनीश्वरों ने उन्हें प्रणाम किया और फिर भक्तिपूर्वक हाथ जोड़कर वे उनकी स्त॒ति करने लगे।
देवता बोले – सामर्थ्यशाली वैकुण्ठाधिपते! आप देवों के भी देव और लोकों के स्वामी हैं। आप त्रिलोकी के गुरु हैं। श्रीहरे! हम सब आपके शरणापन्न हुए हैं, आप हमारी रक्षा कीजिये। अपनी महिमा से कभी च्युत न होने वाले ऐश्वर्यशाली त्रिलोकेश! आप ही लोकों के पालक हैं। गोविन्द! लक्ष्मी आप में ही निवास करती है और आप अपने भक्तों के प्राणस्वरूप हैं, आपको हमारा नमस्कार है। इस प्रकार स्तुति करके सभी देवता श्रीहरि के आगे रो पड़े। उनकी बात सुनकर भगवान् विष्णु ने ब्रह्मा से कहा।
विष्णु बोले – ब्रह्मन्! यह वैकुण्ठ योगियों के लिये भी दुर्लभ है। तुम यहाँ किस लिये आये हो? तुम पर कौन सा कष्ट आ पड़ा है? वह यथार्थ रूप से मेरे सामने वर्णन करो।
सनत्कुमारजी कहते हैं – मुने! श्रीहरि का वचन सुनकर ब्रह्माजी ने विनम्र भाव से सिर झुकाकर उन्हें बारंबार प्रणाम किया और अंजलि बाँधकर परमात्मा विष्णु के समक्ष स्थित हो देवताओं के कष्ट से भरी हुई शंखचूड की सारी करतूत कह सुनायी। तब समस्त प्राणियों के भावों के ज्ञाता भगवान् श्रीहरि उस बात को सुनकर हँस पड़े और ब्रह्मा से उस रहस्य का उद्घाटन करते हुए बोले।
श्रीभगवान् ने कहा – कमलयोनि! मैं शंखचूड का सारा वृतान्त जानता हूँ। पूर्वजन्म में वह महातेजस्वी गोप था, जो मेरा भक्त था। मैं उसके वृतान्त से सम्बन्ध रखने वाले इस पुरातन इतिहास का वर्णन करता हूँ, सुनो। इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं करना चाहिये। भगवान् शंकर सब कल्याण करेंगे। गोलोक में मेरे ही रूप श्रीकृष्ण रहते हैं। उनकी स्त्री श्रीराधा नाम से विख्यात है। वह जगज्जननी तथा प्रकृति की परमोत्कृष्ट पाँचवी मूर्ति है। वही वहाँ सुन्दर रूप से विहार करने वाली है। उनके अंग से उद्भूत बहुत-से गोप और गोपियाँ भी वहाँ निवास करती हैं। वे नित्य राधा-कृष्ण का अनुवर्तन करते हुए उत्तम-उत्तम क्रीड़ाओं में तत्पर रहते हैं। वही गोप इस समय शम्भु की इस लीला से मोहित होकर शाप वश अपने को दुःख देने वाली दानवी योनि को प्राप्त हो गया है। श्रीकृष्ण ने पहले से ही रुद्र के त्रिशूल से उसकी मृत्यु निर्धारित कर दी है। इस प्रकार वह दानव-देह का परित्याग करके पुनः कृष्ण-पार्षद हो जायगा। देवेश! ऐसा जानकर तुम्हें भय नहीं करना चाहिये। चलो, हम दोनों शंकर की शरण में चलें; वे शीघ्र ही कल्याण का विधान करेंगे। अब हमें, तुम्हें तथा समस्त देवों को निर्भय हो जाना चाहिये।
सनत्कुमारजी कहते हैं – मुने! यों कहकर ब्रह्मा सहित विष्णु शिवलोक को चले। मार्ग में वे मन-ही-मन भक्तवत्सल सर्वेश्वर शम्भु का स्मरण करते जा रहे थे। व्यासजी! इस प्रकार वे रमापति विष्णु ब्रह्मा के साथ उसी समय उस शिवलोक में जा पहुँचे, जो महान् दिव्य, निराधार तथा भौतिकता से रहित है। वहाँ पहुँचकर उन्होंने शिवजी की सभा का दर्शन किया। वह ऊँची एवं उत्कृष्ट प्रभावशाली सभा प्रकाशयुक्त शरीरोंवाले शिव-पार्षदों से घिरी होने के कारण विशेष रूप से शोभित हो रही थी। उन पार्षदों का रूप सुन्दर कान्ति से युक्त महेश्वर के रूप के सदृश था। उनके दस भुजाएँ थीं। पाँच मुख और तीन नेत्र थे। गले में नील चिह्न तथा शरीर का वर्ण अत्यन्त गौर था। वे सभी श्रेष्ठ रत्नों से युक्त रुद्राक्ष और भस्म के आभरण से विभूषित थे। वह मनोहर सभा नवीन चन्द्रमण्डल के समान आकारवाली और चौकोर थी। उत्तम-उत्तम मणियों तथा हीरों के हारों से वह सजायी गयी थी। अमूल्य रत्नों के बने हुए कमलपत्रों से सुशोभित थी। उसमें मणियों की जालियों से युक्त गवाक्ष बने थे, जिससे वह चित्र-विचित्र दीख रही थी। शंकर की इच्छा से उसमें पद्मरागमणि जड़ी हुई थी, जिससे वह अद्भुत-सी लग रही थी। वह स्यमन्तकमणि की बनी हुई सैकड़ों सीढ़ियों से युक्त थी। उसमें चारों ओर इन्द्रनील मणि के खंभे लगे थे, जिन पर स्वर्ण सत्र से ग्रथित चन्दन के सुन्दर पल्लव लटक रहे थे, जिससे वह मन को मोहे लेती थी। वह भलीभाँति संस्कृत तथा सुगन्धित वायु से सुवासित थी। एक सहस्त्र योजन विस्तारवाली वह सभा बहुत-से किंकरों से खचाखच भरी थी। उसके मध्य-भाग में अमूल्य रत्नों द्वारा निर्मित एक विचित्र सिंहासन था, उसी पर उमा सहित शंकर विराजमान थे। उन्हें सुरेश्वर विष्णु ने देखा। वे तारकाओं से घिरे हुए चन्द्रमा के समान लग रहे थे। वे किरीट, कुण्डल और रत्नों की मालाओं से विभूषित थे। उनके सारे अंग में भस्म रमायी हुई थी और वे लीला-कमल धारण किये हुए थे। महान् उल्लास से भरे हुए उमाकान्त का मन शान्त तथा प्रसन्न था। देवी पार्वती ने उन्हें सुवासित ताम्बूल प्रदान किया था, जिसे वे चबा रहे थे। शिवगण हाथ में एबेत चँवर लेकर परमभक्ति के साथ उनकी सेवा कर रहे थे और सिद्ध भक्तिवश सिर झुकाकर उनके स्तवन में लगे थे। वे गुणातीत, परेशान, त्रिदेवों के जनक, सर्वव्यापी, निर्विकल्प, निराकार, स्वेच्छानुसार साकार, कल्याण-स्वरूप, माया रहित, अजन्मा, आद्य, माया के अधीश्वर, प्रकृति और पुरुष से भी परात्पर, सर्वसमर्थ, परिपूर्णतम और समतायुक्त हैं। ऐसे विशिष्ट गुणों से युक्त शिव को देखकर ब्रह्मा और विष्णु ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया और फिर वे स्तुति करने लगे। विविध प्रकार से स्तुति करके अन्त में वे बोले 'भगवन्! आप दीनों और अनाथों के सहायक, दीनों के प्रतिपालक, दीनबन्धु, त्रिलोकी के अधीश्वर और शरणागतवत्सल हैं। गौरीश! हमारा उद्धार कीजिये। परमेश्वर! हम पर कृपा कीजिये। नाथ! आप आपके ही अधीन हैं; अब आपकी जैसी इच्छा हो, वैसा करें।'
(अध्याय २९ - ३०)