देवताओं का रुद्र के पास जाकर अपना दुःख निवेदन करना, रुद्र द्वारा उन्हें आश्वासन और चित्ररथ को शंखचूड के पास भेजना, चित्ररथ के लौटने पर रुद्र का गणों, पुत्रों और भद्रकाली सहित युद्ध के लिये प्रस्थान, उधर शंखचूड का सेना सहित पुष्पभद्रा के तट पर पड़ाव डालना तथा दानवराज के दूत और शिव की बातचीत
सनत्कुमारजी कहते हैं – मुने! तदनन््तर जो अत्यन्त दीनता को प्राप्त हो गये थे, उन ब्रह्मा और विष्णु का वचन सुनकर शिवजी मुसकराये और मेघगर्जना के समान गम्भीर वाणी में बोले।
शिवजी ने कहा – हे हरे! हे ब्रह्मन्! तुम लोग शंखचूड द्वारा उत्पन्न हुए भय को सर्वथा त्याग दो। निस्संदेह तुम्हारा कल्याण होगा। मैं शंखचूड का सारा वृत्तान्त यथार्थ रूप से जानता हूँ। यह पूर्वजन्म में एक गोप था, जो ऐश्वर्यशाली भगवान् श्रीकृष्ण का भक्त था। इसका नाम सुदामा था। वही सुदामा राधाजी के शाप से शंखचूड नामक दानवराज होकर उत्पन्न हुआ है। यह परम धर्मज्ञ और देवताओं से द्रोह करनेवाला है। यह दुर्बुद्धिवश अपने उत्कृष्ट बल के भरोसे सम्पूर्ण देवगणों को क्लेश दे रहा है। अब तुम लोग प्रेमपूर्वक मेरी बात सुनो और देवों को आनन्दित करने के लिये शीघ्र ही कैलासवासी रुद्र के समीप जाओ। वह रुद्ररूप मेरा ही उत्तम पूर्ण रूप है। मैं ही देव-कार्य की सिद्धि के हेतु पृथक् स्वरूप धारण करके वहाँ प्रकट हुआ हूँ। मेरा वह रूप ऐश्वर्यशाली तथा परिपूर्णतम है। हरे! इसीलिये में भक्तों के वशीभूत हो कैलास पर्वत पर सदा निवास करता हूँ।
तदनन्तर कैलास पहुँचकर देवताओं ने भगवान् महेश की स्तुति की और अन्त में कहा – 'महेशान! आप तो कृपा के आकर हैं। दीनों का उद्धार करना तो आपका बाना ही है। प्रभो! दानवराज शंखचूड का वध करके इन्द्र को उसके भय से मुक्त कीजिये और देवों को इस विपत्तिसे उबारिये।' तब भक्तवत्सल शम्भु देवताओं की इस प्रार्थना को सुनकर हँसे और मेघगर्जन की-सी गम्भीर वाणी में बोले।
श्रीशंकर ने कहा – हे हरे! हे ब्रह्मन्! हे देवगण! तुम लोग अपने-अपने स्थान को लौट जाओ। मैं निश्चय ही सैनिकों सहित शंखचूड का वध कर डालूँगा। इसमें तनिक भी संशय नहीं है।
सनत्कुमारजी कहते हैं – व्यासजी! महेश्वर के उस अमृतस्त्रावी वचन को सुनकर सम्पूर्ण देवताओं को परम आनन्द प्राप्त हुआ। उस समय उन्होंने समझ लिया कि अब दानव शंखचूड मरा हुआ ही है। तब महेश्वर के चरणों में प्रणिपात करके विष्णु वैकुण्ठ को और ब्रह्मा सत्यलोक को चले गये तथा सम्पूर्ण देवता भी अपने-अपने स्थान को प्रस्थित हुए। इधर उन महारुद्र ने, जो परमेश्वर, दुष्टों के लिये काल रूप और सत्पुरुषों की गति हैं, देवताओं की इच्छा से अपने मन में शंखचूड के वध का निश्चय किया। तब उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक अपने प्रेमी गन्धर्वराज चित्ररथ को दूत बनाकर शीघ्र ही शंखचूड के पास भेजा। चित्ररथ ने वहाँ जाकर शंखचूड को खूब समझाकर कहा, परंतु उसने बिना युद्ध किये देवताओं को राज्य लौटाना स्वीकार नहीं किया और कहा – 'मैंने ऐसा दृढ़ निश्चय कर लिया है कि महेश्वर के साथ युद्ध किये बिना न तो मैं राज्य ही वापस दूँगा और न अधिकारों को ही लौटाऊँगा। तू कल्याणकर्ता रुद्र के पास लौट जा और मेरी कही हुई बात यथार्थ रूप से उनसे कह दे। वे जैसा उचित समझेंगे, वैसा करेंगे। तू व्यर्थ बकवाद मत कर।'
सनत्कुमारजी कहते हैं – मुनिश्रेष्ठ! यों कहे जाने पर वह शिवदूत पुष्पदन्त (चित्ररथ) अपने स्वामी महेश्वर के पास लौट गया और उसने सारी बातें ठीक-ठीक कह दीं। तब उस दूतके वचन को सुनकर देवताओं के स्वामी भगवान् शंकर को क्रोध आ गया। उन्होंने अपने वीरभद्र आदि गणों से कहा।
रुद्र बोले – हे वीरभद्र! हे नन्दिन्! क्षेत्रपाल! आठों भैरव! मैं आज शीघ्र ही शंखचूड का वध करने के निमित्त चलता हूँ, अतः मेरी आज्ञा से मेरे सभी बलशाली गण आयुधों से लैस होकर तैयार हो जायँ और अभी-अभी कुमारों (स्वामिकार्तिक और गणेश) के साथ रणयात्रा करें। भद्रकाली भी अपनी सेना के साथ युद्ध के लिये प्रस्थान करें।
सनत्कुमारजी कहते हैं – मुने! ऐसी आज्ञा देकर शिवजी अपनी सेना के साथ चल पड़े। फिर तो सभी वीरगण हर्षमग्न होकर उनके पीछे-पीछे चलने लगे। इसी समय सम्पूर्ण सेनाओं के अध्यक्ष स्कन्द और गणेश भी हर्ष से भरे हुए कवच धारण करके सशस्त्र शिवजी के निकट आ पहुँचे। फिर वीरभद्र, नन््दी, महाकाल, सुभद्रक, विशालाक्ष, बाण, पिंगलाक्ष, विकम्पन, विरूप, विकृति, मणिभद्र, बाष्कल, कपिल, दीर्घदंष्ट्र, विकार, ताम्रलोचन, कालंकर, बलीभद्र, कालजिह्न, कुटीचर, बलोन्मत्त, रणश्लाध्य, दुर्जय तथा दुर्गम आदि गणनायक जो प्रधान-प्रधान सेनापति थे, शिवजी के साथ चले। उनके गणों की संख्या करोड़ों करोड़ थी। आठों भैरव, एकादश भयंकर रुद्र, आठों वसु, इन्द्र, बारहों आदित्य, अग्नि, चन्द्रमा, विश्वकर्मा, दोनों अश्विनीकुमार, कुबेर, यम, निर्ऋति, नलकूबर, वायु, वरुण, बुध, मंगल तथा अन्यान्य ग्रह, पराक्रमी कामदेव, उग्रदंष्ट्र, उग्रदण्ड, कोरट तथा कोटभ आदि ने भी शीघ्र ही महेश्वर का अनुगमन किया। स्वयं महेश्वरी देवी भद्रकाली भी सौ भुजा धारण करके शिवजी के साथ चलीं। वे उत्तमोत्तम रत्नों से बने हुए विमान पर आरूढ़ थीं। उनके शरीर पर लाल चन्दन का अनुलेप लगा था और लाल वस्त्र शोभा पा रहा था। वे हर्षमग्न होकर हँसती, नाचती और उत्तम स्वर से गान करती हुई अपने भक्तों को अभय तथा शत्रुओं को भय प्रदान कर रही थीं। उनकी एक योजन लंबी भीषणाकार जिह्वा लपलपा रही थी। वे अपने हाथों में शंख, चक्र, गदा, पद्म, ढाल, तलवार, धनुष, बाण, एक योजन विस्तारवाला गहरा गोलाकार खप्पर, गगनचुम्बी त्रिशूल, एक योजन लंबी शक्ति, मुद्गर, मुसल, वज्र, खड़्ग, तीखा फलक, वैष्णवास्त्र, वारुणास्त्र, वायव्यास्त्र, नागपाश, नारायणास्त्र, गन्धर्वास्त्र, ब्रह्मास्त्र, गारुडास्त्र, पर्जन्यास्त्र, पाशुपतास्त्र, जृम्भणास्त्र, पर्वतास्त्र, महान् पराक्रमी सूर्यास्त्र, कालकाल, महानल, महेश्वरास्त्र, यमदण्डास्त्र, सम्मोहनास्त्र तथा समर्थ दिव्य अस्त्र और अन्यान्य सैकड़ों दिव्यास्त्र धारण किये हुए थीं। करोड़ों योगिनियाँ तथा डाकिनियाँ उनके साथ थीं। फिर भूत, प्रेत, पिशाच, कृष्माण्ड, ब्रह्मराक्षस, वेताल, राक्षस, यक्ष और किंनर आदि से घिरे हुए स्कन्द ने पिता के पास आकर उन चन्द्रशेखर को प्रणाम किया और उनकी आज्ञा से पार्श्व भाग में स्थित होकर सहायक का स्थान ग्रहण किया। तदनन्तर रुद्ररूपधारी शम्भु अपनी सारी सेना को एकत्रित करके शंखचूड के साथ लोहा लेने के लिये निर्भयतापूर्वक आगे बढ़े और देवताओं का उद्धार करने के लिये चन्द्रभागा नदी के तट पर मनोहर वटवृक्ष के नीचे खड़े हो गये।
व्यासजी! उधर जब शिवदूत चला गया, तब प्रतापी शंखचूड ने महल के भीतर जाकर तुलसी से वह सारी वार्ता कह सुनायी।
शंखचूड ने कहा – 'देवि! शम्भु के दूत के मुख से (रणनिमन्त्रण सुनकर) मैं युद्ध के लिये उद्यत हुआ हूँ और उनसे जूझने के लिये मैं निश्चय ही जाऊँगा। तुम इसके लिये मुझे आज्ञा दो।' यों कहकर उस ज्ञानी ने अपनी प्रिया को नाना प्रकार से समझाया। फिर ब्राह्ममुहूर्त में उठकर प्रातः- कृत्य समाप्त किया और पहले नित्य कर्म पूरा करके बहुत-सा दान दिया। तत्पश्चात् अपने पुत्र को सम्पूर्ण दानवों के राज्य पर अभिषिक्त करके उसे अपनी भार्या, राज्य और सारी सम्पत्ति समर्पित कर दी। पुनः जब उसकी प्रिया तुलसी रोती हुई उसकी रणयात्रा का निषेध करने लगी, तब राजा शंखचूड ने नाना प्रकार की कथाएँ कहकर उसे ढाढ़स बंधाया। तदनन्तर उस समादृत दानवराज ने कवच धारण करके युद्ध करने के लिये उद्यत हो अपने वीर सेनापति को बुलाकर उसे आदेश देते हुए कहा।
शंखचूड बोला – सेनापते! मेरे सभी वीर, जो सम्पूर्ण कार्यों में कुशल और समर में शोभा पानेवाले हैं, आज कवच धारण करके युद्ध के लिये प्रस्थान करें। शूरवीर दानवों और दैत्यों की छियासी टुकड़ियाँ तथा बलशाली कंक़ों की निर्भीक सेनाएँ अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित होकर नगर से बाहर निकलें। करोड़ों प्रकार से पराक्रम प्रकट करनेवाले जो असुरों के पचास कुल हैं, वे भी देवों के पक्षपाती शम्भु से युद्ध करने के लिये प्रस्थित हों, मेरी आज्ञा से धूम्रों के सौ कुल भी कवच से विभूषित हो शम्भु के साथ लोहा लेने के लिये शीघ्र ही निकलें। कालकेयों, मौर्यों, दौर्हृदों तथा कालकों को भी मेरी यह आज्ञा सुना दो कि वे रुद्र के साथ संग्राम करने के लिये रण सामग्री से सुसज्जित हो चलें।
सनत्कुमारजी कहते हैं – मुने! सेनापति को यों आदेश देकर असुरों का राजा महाबली दानवेन्द्र शंखचूड सहस्त्रों प्रकार की बहुत बड़ी सेनाओं से घिरा हुआ नगर से बाहर निकला। उसका सेनापति भी युद्धशास्त्र में निपुण, महारथी, महान् शूरवीर और रणभूमि में रथियों में अग्रगण्य था। इस प्रकार युद्धस्थल में वीरों को भयभीत कर देनेवाला वह दानवराज तीन लाख अक्षौहिणी सेनाओं पर शासन करता हुआ शिविर से बाहर निकला और उत्तमोत्तम रत्नों द्वारा निर्मित विमान पर आरूढ़ हो गुरुजनों को आगे करके युद्ध के लिये चल पड़ा। आगे बढ़ने पर वह पृष्पभद्रा नदी के तट पर सिद्धाश्रम में जा पहुँचा। वहाँ एक मनोहर वटवृक्ष विराजमान था। वह सिद्धिक्षेत्र सिद्धों को उत्तम सिद्धि प्रदान करनेवाला था। पृण्य क्षेत्र भारत में वह कपिल का तपःस्थान कहलाता था। वह भूभाग पश्चिम समुद्र से पूर्व, मलय पर्वत से पश्चिम, श्रीशैल से उत्तर और गन्धमादन से दक्षिण था। उसकी चौड़ाई पाँच योजन और लंबाई पाँच सौ योजन थी। भारत के उस भाग में उत्तम पुण्य प्रदान करने वाली तथा शुद्ध स्फटिक के समान स्वच्छ जल से परिपूर्ण पुष्पभद्रा और सरस्वती नाम की दो रमणीय नदियाँ बहती हैं। सदा सौभाग्य से संयुक्त रहनेवाली लवणसागर की प्रिया भार्या पुष्पभद्रा सरस्वती के साथ हिमालय से निकली है और गोमन्तपर्वत को बायें करके पश्चिम समुद्र में जा मिली है। वहाँ पहुँचकर शंखचूड ने शिवजी की सेना को देखा।
मुने! उसने पहले शिवजी के पास एक दानवेश्वर को दूत के रूप में भेजा। उसने शिवजी से युद्ध न करने के लिये कहा और शिवजी ने उसे देवताओं का राज्य लौटा देने की बात कही। अन्त में महेश्वर ने कहा – 'दूत! हम किसी का भी पक्ष नहीं लेते; क्योंकि हम तो कभी स्वतन्त्र रहते ही नहीं, सदा भक्तों के अधीन रहते हैं और उनकी इच्छा से उन्हीं का कार्य करते रहते हैं। देखो, पूर्वकाल में ब्रह्मा की प्रार्थना से पहले-पहल प्रलय-समुद्र में श्रीहरि और दैत्य श्रेष्ठ मधु-कैटभ का भी युद्ध हुआ था। पुनः भक्तों के हितकारी उन्हीं श्रीविष्णु ने देवताओं के प्रार्थना करने पर प्रह्लाद के कारण हिरण्यकशिपु का वध किया था। तुमने यह भी सुना होगा कि पहले जो मैंने त्रिपुरों के साथ युद्ध करके उन्हें भस्म कर डाला था, वह भी देवों की प्रार्थना पर ही हुआ था। पूर्वकाल में सर्वेश्वरी जगज्जननी का जो शुम्भ आदि के साथ युद्ध हुआ था और जिसमें उन्होंने उन दैत्यों का वध कर डाला था, वह भी देवताओं के प्रार्थना करने पर ही घटित हुआ था। वे ही सभी देवगण आज भी ब्रह्मा के शरणापनन हुए थे। तब वे उन देवताओं और श्रीहरि के साथ मेरी शरण में आये थे। दूत! इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु और देवगणों की प्रार्थना के वशीभूत हो देवों का अधीश्वर होने के कारण मैं भी युद्ध के लिये आया हूँ। तुम भी तो महात्मा श्रीकृष्ण के श्रेष्ठ पार्षद हो। अब तक जो-जो दैत्य मारे गये हैं, उनमें से कोई भी तुम्हारी समानता नहीं कर सकता। इसलिये राजन्! देवकार्य की सिद्धि के लिये तुम्हारे साथ युद्ध करने में मुझे कौन-सी बड़ी लज्जा होगी। अर्थात् कुछ नहीं; क्योंकि मैं ईश्वर हूँ और देवताओं ने मुझे विनयपूर्वक भेजा है। अतः तुम जाओ और शंखचूड से मेरी बात कह दो। वह जैसा उचित समझेगा, वैसा करेगा। मुझे तो देवताओं का कार्य करना ही है।' यों कहकर कल्याणकर्ता महेश्वर चुप हो गये। तब शंखचूड का वह दूत उठा और उसके पास चल दिया।
(अध्याय ३१ - ३५)