देवताओं और दानवों का युद्ध, शंखचूड के साथ वीरभद्र का संग्राम, पुनः उसके साथ भद्रकाली का भयंकर युद्ध करना और आकाशवाणी सुनकर निवृत्त होना, शिवजी का शंखचूड के साथ युद्ध और आकाशवाणी सुनकर युद्ध से निवृत्त हो विष्णु को प्रेरित करना, विष्णु द्वारा शंखचूड के कवच और तुलसी के शील का अपहरण, फिर रुद्र के हाथों त्रिशूल द्वारा शंखचूड का वध, शंख की उत्पत्ति का कथन

सनत्कुमारजी कहते हैं – महर्ष! जब उस दूत ने शंखचूड के पास जाकर विस्तारपूर्वक शिवजी का वचन कह सुनाया तथा तत्त्वतः उनके यथार्थ निश्चय को भी प्रकट किया, तब उसे सुनकर प्रतापी दानवराज शंखचूड ने भी परम प्रसन्नतापूर्वक युद्ध को ही अंगीकार किया। फिर तो वह तुरंत ही मन्त्रियों सहित रथ पर जा बैठा और उसने अपनी सेना को शंकर के साथ युद्ध करने के लिये आदेश दिया। इधर अखिलेश्वर शिवजी ने भी तत्काल ही अपनी सेना को तथा देवों को आगे बढ़ने की आज्ञा दी और स्वयं भी लीलावश युद्ध के लिये संनद्ध हो गये। फिर तो शीघ्र ही युद्ध आरम्भ हो गया। उस समय नाना प्रकार के रणवाद्य बजने लगे। वीरों के शब्द और कोलाहल चारों ओर गूँज उठे। मुने! इस प्रकार देवताओं और दानवों का परस्पर युद्ध होने लगा। उस समय वे दोनों सेनाएँ धर्मपूर्वक जूझने लगीं। स्वयं महेन्द्र वृषपर्वा के साथ लड़ने लगे और विप्रचित्ति के साथ सूर्य का धर्मयुद्ध होने लगा। विष्णु दम्भ के साथ भीषण संग्राम करने लगे। कालासुर से काल, गोकर्ण से अग्नि, कालकेय से कुबेर, मय से विश्वकर्मा, भयंकर से मृत्यु, संहार से यम, कालाम्बिक से वरुण, चंचल से वायु, घटपृष्ठ से बुध, रक्ताक्ष से शनैश्चर, रत्नसार से जयन्त, वर्चागणों से वसुगण, दोनों दीप्तिमानों से दोनों अश्विनीकुमार, धूम्र से नलकूबर, धुरंधर से धर्म, गणकाक्ष से मंगल, शोभाकर से वैश्वानर, पिपिट से मन्मथ, गोकामुख, चूर्ण, खड्ग, धूम्र, संहल, प्रतापी विश्व और पलाश नामक असुरों से बारहों आदित्य धर्मपूर्वक लोहा लेने लगे। इस प्रकार शिव की सहायता के लिये आये हुए अमरों का असुरों के साथ युद्ध होने लगा। ग्यारहों महारुद्र महान्‌ बल-पराक्रम से सम्पन्न ग्यारह भयंकर असुर-वीरों से भिड़ गये। उग्र और चण्ड आदि के साथ महामणि, राहु के साथ चन्द्रमा और शुक्राचार्य के साथ बृहस्पति धर्मयुद्ध करने लगे। इस प्रकार उस महायुद्ध में नन्दीश्वर आदि सभी शिवगण श्रेष्ठ दानवों के साथ संग्राम करने लगे। विस्तारभय से उनका पृथक वर्णन नहीं किया गया है। मुने! उस समय सारी सेनाएँ निरन्तर युद्ध में व्यस्त थीं और शम्भु काल्यसुत के साथ वटवृक्ष के नीचे विराजमान थे। उधर शंखचूड भी रत्नाभरणों से विभूषित हो करोड़ों दानवों के साथ रमणीय रत्नसिंहासन पर बैठा हुआ था। फिर देवताओं तथा असुरों में चिरकाल तक अत्यन्त भयानक युद्ध होता रहा। तदनन्तर शंखचूड भी आकर उस भीषण संग्राम में जुट गया। इसी बीच महाबली वीर वीरभद्र समरभूमि में बलशाली शंखचूड से जा भिड़े। उस युद्ध में दानवराज जिन-जिन अस्त्रों की वर्षा करता था, उन-उन को वीरभद्र खेल-ही-खेल में अपने बाणों से काट डालते थे।

व्यासजी! इसी समय देवी भद्रकाली ने समरभूमि में जाकर बड़ा भयंकर सिंहनाद किया। उनके उस शब्द को सुनकर सभी दानव मूच्छित हो गये। उस समय देवी ने बारंबार अट्टहास किया और मधुपान करके वे रण के मुहाने पर नृत्य करने लगीं। उनके साथ ही उग्रदंष्ट्रा, उग्रदण्डा और कोटवीने ने भी मधुपान किया तथा अन्यान्य देवियों ने भी खूब मधु पीकर युद्धस्थल में नाचना आरम्भ किया। उस समय शिवगणों तथा देवों के दलों में महान्‌ कोलाहल मच गया। सारा सुरसमुदाय बहुत प्रकार से गर्जना करता हुआ हर्षमग्न हो गया। तदनन्तर काली ने शंखचूड के ऊपर प्रलयकालीन अग्नि की शिखा के समान उद्दीप्त आग्नेयास्त्र चलाया, परंतु दानवराज ने वैष्णवास्त्र से उसे शीघ्र ही शान्त कर दिया। तब देवी भद्गकाली ने उस पर नारायणास्त्र का प्रयोग किया। वह अस्त्र दानव-शत्रु को देखकर बढ़ने लगा। तब प्रलयाग्नि की ज्वाला के समान उद्दीप्त होते हुए नारायणास्त्र को देखकर शंखचूड दण्ड की भाँति भूमि पर लेट गया और बारंबार प्रणाम करने लगा। तब उस दानव को नमप्न हुआ देखकर वह अस्त्र निवृत्त हो गया। तत्पश्चात्‌ देवी ने उस पर मन्त्रपूर्वक ब्रह्मास्त्र छोड़ा। उस अस्त्र को प्रज्वलित होता हुआ देखकर दानवराज ने भूमि पर खड़े होकर उसे प्रणाम किया और ब्रह्मास्त्र से ही उसका निवारण कर दिया। तदनन्तर वह दानवराज कुपित हो उठा और वेगपूर्वक अपने धनुष को खींचकर देवी के ऊपर मन्त्रपाठ करते हुए दिव्यास्त्रों की वर्षा करने लगा। भद्रकाली समरभूमि में अपने विस्तृत मुख को फैलाकर उन अस्त्रों को निगल गयीं और अट्टहासपूर्वक गर्जना करने लगीं, जिस से दानव भयभीत हो गये। तब शंखचूड ने काली के ऊपर एक सौ योजन लंबी शक्ति से वार किया; परंतु देवी ने अपने दिव्यास्त्रसमूह से उसके सौ टुकड़े कर दिये। यों उन दोनों में चिरकाल तक युद्ध होता रहा और सभी देवता तथा दानव दर्शक बनकर उसे देखते रहे। अन्त में देवी ने महान्‌ कोपावेश से उस पर वेगपूर्वक मुष्टि-प्रहार किया। उसकी चोट से वह दानवराज चक्कर काटने लगा और उसी क्षण मूर्च्छित हो गया। फिर क्षणभर में ही उसकी चेतना लौट आयी और वह उठ खड़ा हुआ; परंतु उस प्रतापी ने मातृबुद्धि होने के कारण देवी के साथ बाहुयुद्ध नहीं किया। तब देवी ने उस दानव को पकड़कर उसे बारंबार घुमाया और बड़े क्रोध से वेगपूर्वक ऊपर को उछाल दिया। प्रतापी शंखचूड वेग से ऊपर को उछला और पृथ्वी पर गिरकर पुनः उठ खड़ा हुआ। उस महायुद्ध में वह तनिक भी भ्रान्त नहीं हुआ था; बल्कि उसका मन प्रसन्न था। तत्पश्चात्‌ वह भद्रकाली को प्रणाम करके बहुमूल्य रत्नों द्वारा निर्मित अपने परम मनोहर विमान पर जा बैठा। इधर कालिका भूख से विहल होकर दानवों का रक्तपान करने लगीं। इसी अवसर पर वहाँ यों आकाशवाणी हुई – 'ईश्वरि! अभी रणभूमि में सिंहनाद करनेवाले डेढ़ लाख दानवेन्द्र और बचे हैं। ये बड़े उद्धत हैं, अतः तुम इन्हें अपना आहार बना लो। परंतु देवि! संग्राम में दानवराज शंखचूड को मारने के लिये मन मत दौड़ाओ; क्योंकि यह तुम्हारे लिये अवध्य है – ऐसा निशचय समझो।' आकाशवाणी द्वारा कहे हुए वचन को सुनकर देवी भद्रकाली ने बहुत-से दानवों का मांस भक्षण करके उनका रक्तपान किया और फिर वे शिवजी के निकट चली गयीं। वहाँ उन्होंने पूर्वापर के क्रम से सारा युद्ध-वृत्तान्त कह सुनाया।

व्यासजी ने पूछा – महाबुद्धिमान्‌ सनत्कुमारजी! काली का वह कथन सुनकर महेश्वर ने उस समय क्या कहा और कौन-सा कार्य किया। उसे आप वर्णन करने की कृपा करें; क्योंकि मेरे मन में उसे सुनने की प्रबल उत्कण्ठा जाग उठी है।

सनत्कुमारजी बोले – मुने! शम्भु तो जीवों के कल्याणकर्ता, परमेश्वर और बड़े लीलाविहारी हैं। वे काली द्वारा कहे हुए वचन को सुनकर उन्हें आश्वासन देते हुए हँसने लगे। तदनन्तर आकाशवाणी को सुनकर तत्त्वज्ञान-विशारद स्वयं शंकर अपने गणों के साथ समरभूमि की ओर चले। उस समय वे महावृषभ नन्दीश्वर पर सवार थे और उन्हीं के समान पराक्रमी वीरभद्र, भैरव और क्षेत्रपाल आदि उनके साथ थे। रणभूमि में पहुँचकर महेश्वर ने वीर रूप धारण किया। उस समय उन रुद्र की बड़ी शोभा हो रही थी और वे मूर्तिमान्‌ काल-से दीख रहे थे। जब शंखचूड की दृष्टि शिवजी पर पड़ी, तब वह विमान से उतर पड़ा और परम भक्ति के साथ दण्ड की भाँति पृथ्वी पर लोटकर उसने सिर के बल उन्हें प्रणाम किया। इस प्रकार नमस्कार करने के पश्चात्‌ वह तुरंत ही अपने विमान पर जा बैठा और कवच धारण करके उसने धनुष-बाण उठाया। फिर तो दोनों ओर से बाणों की झड़ी लग गयी। यों व्यर्थ ही बाण-वर्षा करनेवाले शिव और शंखचूड का वह उग्र युद्ध सैकड़ों वर्षों तक चलता रहा। अन्त में युद्धस्थल में शंखचूड का वध करने के लिये महाबली महेश्वर ने सहसा अपना वह त्रिशूल उठाया, जिसका निवारण करना बड़े-बड़े तेजस्वियों के लिये भी अशक्य है। तब तत्काल ही उसका निषेध करने के लिये यों आकाशवाणी हुई – ''शंकर! मेरी प्रार्थना सुनिये और इस समय इस त्रिशूल को मत चलाइये। ईश! यद्यपि आप क्षण मात्र में पूरे ब्रह्माण्ड का विनाश करने में सर्वथा समर्थ हैं, फिर इस अकेले दानव शंखचूड की तो बात ही क्या है, तथापि आप स्वामी के द्वारा देवमर्यादा का विनाश नहीं होना चाहिये। महादेव! आप उस (देवमर्यादा) को सुनिये और उसे सत्य एवं सफल बनाइये। '(वह देवमर्यादा यह है कि) जब तक इस शंखचूड के हाथ में श्रीहरि का परम उग्र कवच वर्तमान रहेगा और इसकी पतिव्रता पत्ती (तुलसी) का सतीत्व अखण्डित रहेगा, तब तक इसपर जरा और मृत्यु अपना प्रभाव नहीं डाल सकेंगे।' अतः जगदीश्वर शंकर! ब्रह्मा के इस वचन को सत्य कीजिये।'

तब सत्पुरुषों के आश्रयस्वरूप शिवजी ने उस आकाशवाणी को सुनकर 'तथास्तु' कहकर उसे स्वीकार कर लिया और विष्णु को उस कार्य के लिये प्रेरित किया। फिर तो शिवजी की इच्छा से विष्णु वहाँ से चल पड़े। वे तो मायावियों में भी श्रेष्ठ मायावी ठहरे। अतः उन्होंने एक वृद्ध ब्राह्मण का वेष धारण किया और शंखचूड के निकट जाकर उस से यों कहा।

वृद्ध ब्राह्मण बोले – 'दानवेन्द्र! इस समय मैं याचक होकर तुम्हारे पास आया हूँ, तुम मुझे भिक्षा दो। दीनवत्सल! अभी मैं अपने मनोरथ को प्रकट नहीं करूँगा। (जब तुम देना स्वीकार कर लोगे, तब) पीछे मैं उसे बताऊँगा और तब तुम उसे पूर्ण करना।' ब्राह्मण की बात सुनकर राजेन्द्र शंखचूड का मुख और नेत्र प्रसन्नता से खिल उठे। जब उसने 'ओम्' कहकर उसे स्वीकार कर लिया, तब ब्राह्मण ने छलपूर्वक कहा – 'मैं तुम्हारा कवच चाहता हूँ।' यह सुनकर ऐश्वर्यशाली दानवराज शंखचूड ने, जो ब्राह्मण-भक्त और सत्यवादी था, वह दिव्य कवच जो उसे प्राण के समान था, ब्राह्मण को दे दिया। इस प्रकार श्रीहरि ने माया द्वारा उस से वह कवच ले लिया और फिर शंखचूड का रूप धारण करके वे तुलसी के पास पहुँचे। वहाँ जाकर सबके आत्मा एवं तुलसी के नित्य स्वामी श्रीहरि ने शंखचूड रूप से उसके शील का हरण कर लिया।

इसी समय विष्णु भगवान् ने शम्भु से अपनी सारी बात कह सुनायी। तब शिवजी ने शंखचूड के वध के निमित्त अपना उद्दीप्त त्रिशूल हाथ में लिया। परमात्मा शंकर का वह विजय नामक त्रिशूल अपनी उत्कृष्ट प्रभा बिखेर रहा था। उससे सारी दिशाएँ, पृथ्वी और आकाश प्रकाशित हो उठे। वह मध्याह्नकालीन करोड़ों सूर्यों तथा प्रलयाग्नि की शिखा के समान चमकीला था। उसका निवारण करना असम्भव था। वह दुर्धर्ष, कभी व्यर्थ न होने वाला और शत्रुओं का संहारक था। वह तेजों का अत्यन्त उग्र समूह, सम्पूर्ण शस्त्रास्त्रों का सहायक, भयंकर और सारे देवताओं तथा असुरों के लिये दुस्सह था। वह एक ही स्थान पर ऐसा दमक रहा था, मानो लीला का आश्रय लेकर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का संहार करने के लिये उद्यत हो। उसकी लंबाई एक हजार धनुष और चौड़ाई सौ हाथ थी। उस जीव-ब्रह्मस्वरूप शूल का किसी के द्वारा निर्माण नहीं हुआ था। उसका रूप नित्य था। आकाश में चक्कर काटता हुआ वह त्रिशूल शिवजी की आज्ञा से शंखचूड के ऊपर गिरा और उसने उसी क्षण उसे राख की ढेरी बना दिया। विप्र! महेएवर का वह शूल मन के समान वेगशाली था। वह शीघ्र ही अपना कार्य पूर्ण करके शंकर के पास आ पहुँचा और फिर आकाश मार्ग से चला गया। उस समय स्वर्ग में दुन्दुभियाँ बजने लगीं। गन्धर्व और किन्नर गान करने लगे। देवों तथा मुनियों ने स्तुति करना आरम्भ किया और अप्सराएँ नृत्य करने लगीं। शिवजी के ऊपर लगातार पुष्पों की वर्षा होने लगी और ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र आदि देवता तथा मुनिगण उनकी प्रशंसा करने लगे। दानवराज शंखचूड भी शिवजी की कृपा से शापमुक्त हो गया और उसे उसके पूर्व (श्रीकृष्ण-पार्षद) रूप की प्राप्ति हो गयी। शंखचूड की हड्डियों से शंख-जाति का प्रादुर्भाव हुआ, जिस शंख का जल शंकर के अतिरिक्त समस्त देवताओं के लिये प्रशस्त माना जाता है। महामुने! श्रीहरि और लक्ष्मी को तथा उनके सम्बन्धियों को भी शंख का जल विशेष रूप से अत्यन्त प्रिय है; किंतु शिव के लिये नहीं। इस प्रकार शंखचूड को मारकर शंकर उमा, स्कन्द और गणों के साथ प्रसन्नतापूर्वक नन्दीश्वर पर सवार हो शिवलोक को चले गये। भगवान्‌ विष्णु ने वैकुण्ठ के लिये प्रस्थान किया और देवगण परमानन्दमग्न हो अपने-अपने लोक को चले गये। उस समय जगत्‌ में चारों ओर परम शान्ति छा गयी। सबको निर्विघ्न रूप से सुख मिलने लगा। आकाश निर्मल हो गया और सारी पृथ्वी पर उत्तम-उत्तम मंगल कार्य होने लगे। मुने! इस प्रकार मैंने तुम से महेश के जिस चरित्र का वर्णन किया है, वह आनन्ददायक, सर्वदुःखहारी, लक्ष्मीप्रद और सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करनेवाला है।

(अध्याय ३६ - ४०)