उमा द्वारा शम्भु के नेत्र मूँद लिये जाने पर अन्धकार में शम्भु के पसीने से अन्धकासुर की उत्पत्ति, हिरण्याक्ष की पुत्रार्थ तपस्या और शिव का उसे पुत्ररूप में अन्धक को देना, हिरण्याक्ष का त्रिलोकी को जीतकर पृथ्वी को रसातल में ले जाना और वराहरूपधारी विष्णु द्वारा उसका वध
सनत्कुमारजी कहते हैं – व्यासजी! अब जिस प्रकार अन्धकासुर ने परमात्मा शम्भु के गणाध्यक्ष-पद को प्राप्त किया था, महेश्वर के उस मंगलमय चरित को श्रवण करो। मुनीश्वर! अन्धकासुर ने पहले शिवजी के साथ बड़ा घोर संग्राम किया था, परंतु पीछे बारंबार सात्त्विक भाव के उद्रेक से उसने शम्भु को प्रसन्न कर लिया; क्योंकि नाना प्रकार की लीलाएँ करने वाले शम्भु शरणागतरक्षक तथा परम भक्तवत्सल हैं। उनका माहात्म्य परम अद्भुत है।
व्यासजी ने पूछा – ऐश्वर्यशाली मुनिवर! वह अन्धक कौन था और भूतल पर किस वीर्यवान् के कुल में उत्पन्न हुआ था? दैत्यों में प्रधान तथा महामनस्वी उस बलवान् अन्धक का स्वरूप कैसा था और वह किसका पुत्र था? उसने परम तेजस्वी शम्भु की गणाध्यक्षता को कैसे प्राप्त किया? यदि अन्धक गणेश्वर हो गया तब तो वह परम धन्यवाद का पात्र है।
सनत्कुमारजी ने कहा – मुने! पूर्वकाल की बात है, एक समय भक्तों पर कृपा करने वाले तथा देवताओं के चक्रवर्ती सम्राट् भगवान् शंकर को विहार करने की इच्छा हुई। तब वे पार्वती और गणों को साथ ले अपने निवासभूत कैलास पर्वत से चलकर काशीपुरी में आये। वहाँ उन्होंने उस पुरी को अपनी राजधानी बनाया और भैरव नामक वीर को उसका रक्षक नियुक्त किया। फिर पार्वतीजी के साथ रहते हुए वे भक्तजनों को सुख देने वाली अनेक प्रकार की लीलाएँ करने लगे। एक समय वे उसके वरदान के प्रभाववश अनेकों विराग्रगण्य गणेश्वरों और शिवा के साथ मन्दराचल पर गये और वहाँ भी तरह-तरह की क्रीडाएँ करने लगे। एक दिन जब प्रचण्ड पराक्रमी कपर्दी शिव मन्दराचल की पूर्व दिशा में बैठे थे, उसी समय गिरिजा ने नर्मक्रीडावश उनके नेत्र बंद कर दिये। इस प्रकार जब पार्वती ने मूँगे, सुवर्ण और कमल की प्रभावाले अपने करकमलों से हर के नेत्र बंद कर दिये, तब उनके नेत्रों के मूँद जाने के कारण वहाँ क्षणभर में ही घोर अन्धकार फैला गया। पार्वती के हाथों का महेश्वर के शरीर से स्पर्श होने के कारण शम्भु के ललाट में स्थित अग्नि से संतप्त होकर मदजल प्रकट हो गया और जल की बहुत-सी बूँदे टपक पड़ीं। तदनन्तर उन बूँदों ने एक गर्भ का रूप धारण कर लिया। उससे एक ऐसा जीव प्रकट हुआ, जिसका मुख विकराल था। वह अत्यन्त भयंकर, क्रोधी, कृतघ्न, अंधा, कुरूप, जटाधारी, काले रंग का, मनुष्य से भिन्न, बेडौल और सुन्दर बालोंवाला था। उसके कण्ठ से घोर घर-घर शब्द निकल रहा था। वह कभी गाता, कभी हँसता और कभी रोने लगता था तथा जबड़ों को चाटते हुए नाच रहा था। उस अद्भुत दृश्यवाले जीव के प्रकट होने पर शिवजी मुसकराकर पार्वतीजी से बोले।
श्रीमहेश्वर ने कहा – 'प्रिये! मेरे नेत्रों को मूँदकर तुमने ही तो यह कर्म किया है, फिर तुम उससे भय क्यों कर रही हो?' शंकरजी के उस वचन को सुनकर गौरी हँस पड़ीं और उनके नेत्रों पर से उन्होंने अपने हाथ हटा लिये। फिर तो वहाँ प्रकाश छा गया, परंतु उस प्राणि का रूप भयंकर ही बना रहा और अन्धकार से उत्पन्न होने के कारण उसके नेत्र भी अंधे थे। तब वैसे प्राणी को प्रकट हुआ देखकर गौरी ने महेश्वर से पूछा।
गौरी ने कहा – भगवन्! मुझे सच-सच बताइये कि हम लोगों के सामने प्रकट हुआ यह बेडौल प्राणी कौन है। यह तो अत्यन्त भयंकर है। किस निमित्त को लेकर किसने इसकी दृष्टि की है और यह किसका पुत्र है?
सनत्कुमारजी कहते हैं – महर्षे! जब लीला रचनेवाली तथा तीनों लोकों की जननी गौरी ने सृष्टिकर्ता की उस अंधीसृष्टि के विषय में यों प्रश्न किया, तब लीला-विहारी भगवान् शंकर अपनी प्रिया के उस वचन को सुनकर कुछ मुसकराये और इस प्रकार बोले।
महेश्वर ने कहा – अद्भुत चरित्र रचनेवाली अम्बिके! सुनो! जब तुमने मेर नेत्र मूँद लिये थे, उसी समय यह अद्भुत एवं प्रचण्ड पराक्रमी प्राणी मेरे पसीने से प्रकट हुआ। इसका नाम अन्धक है। तुम्हीं इसको उत्पन्न करने वाली हो, अतः सखियों सहित तुम्हें करुणापूर्वक इसकी गणों से यथायोग्य रक्षा करते रहना चाहिये। आर्ये! इस प्रकार बुद्धिवर्धक विचार करके ही तुम्हें सब कार्य करना चाहिये।
सनत्कुमारजी कहते हैं – मुने! अपने स्वामी के ऐसे वचन सुनकर गौरीका हृदय करुणार्द्र हो गया। वे अपनी सखियों सहित अन्धक की अपने पुत्र की भाँति नाना प्रकार के उपायों द्वारा रक्षा करने लगीं। तदनन्तर शिशिर-ऋतू आने पर दैत्य हिरण्याक्ष पुत्र की कामना से उसी वन में आया; क्योंकि उसकी पत्नी ने उसके ज्येष्ठ बन्धू की संतान-परम्परा को देखकर उसे संतानार्थ तपश्चर्या के लिये प्रेरित किया था। वहाँ वह कश्यपनन्दन हिरण्याक्ष बनकर आश्रय ले पुत्र-प्राप्ति के लिये घोर तप करने लगा। उसके मन में महेश्वर के दर्शन की इच्छा थी, अतः वह क्रोध आदि दोषों को अपने काबू में करके ठूँठ की भाँति निश्चल होकर समाधिस्थ हो गया। द्विजेन्द्र! तब जिसकी ध्वजा में वृष का चिह्न वर्तमान हैं तथा जो पिनाक धारण करने वाले हैं, वे महेश उसकी तपस्या से पूर्णतया प्रसन्न होकर उसे वर प्रदान करने के लिये चले और उस स्थान पर पहुँचकर दैत्यप्रवर हिरण्याक्ष से बोले।
महेश ने कहा – दैत्यनाथ! अब तू अपनी इन्द्रियों का विनाश मत कर। किस लिये तूने इस व्रत का आश्रय लिया है? तू अपना मनोरथ तो प्रकट कर। मैं वरदाता शंकर हूँ, अतः तेरी जो अभिलाषा होगी, वह सब मैं तुझे प्रदान करूँगा।
सनत्कुमारजी कहते हैं – महर्षे! महेश्वर के उस सरस वचन को सुनकर दैत्यराज हिरण्याक्ष परम प्रसन्न हुआ। उसने गिरीश के चरणों में नमस्कार करके अनेक प्रकार से उनकी स्तुति की; फिर वह अंजलि बाँधे सिर झुकाकर कहने लगा।
हिरण्याक्षने कहा – चन्द्रभाल! मेरे उत्तम पराक्रम सम्पन्न तथा दैत्यकुल के अनुरूप कोई पुत्र नहीं है, इसीलिये मैंने इस व्रत का अनुष्ठान किया है। देवेश! मुझे परम बलशाली पुत्र दीजिये।
सनत्कुमारजी कहते हैं – मुने! दैत्यराज के उस वचन को सुनकर कृपालु शंकर प्रसन्न हो गये और उससे बोले – 'दैत्याधिप! तेरे भाग्य में तेरे वीर्य से उत्पन्न होने वाला पुत्र तो नहीं लिखा है, किंतु मैं तझे एक पुत्र देता हूँ। मेरा एक पुत्र है, जिसका नाम अन्धक है। वह तेरे ही समान पराक्रमी और अजेय है। तू सम्पूर्ण दुःखों को त्याग कर उसी को पुत्ररूप से वरण कर ले और इस प्रकार पुत्र प्राप्त कर ले।'
सनत्कुमारजी कहते हैं – महर्षे! उससे यों कहकर गौरी के साथ विराजमान उन महात्मा भूतनाथ त्रिपुरारि शंकर ने प्रसन्न होकर हिरण्याक्ष को वह पुत्र दे दिया। इस प्रकार शिवजी से पुत्र प्राप्त करके वह महामनस्वी दैत्य परम प्रसन्न हुआ। उसने अनेकों स्तोत्रों द्वारा रुद्र की पूजा करके प्रदक्षिणा की और फिर वह अपने राज्य को चला गया। गिरीश से पुत्र प्राप्त कर लेने के बाद वह प्रचण्ड पराक्रमी दैत्य सम्पूर्ण देवताओं को जीत कर इस पृथ्वी को अपने देश रसातल में उठा ले गया। तब देवताओं, मुनियों और सिद्धों ने अनन्त पराक्रमी विष्णु की आराधना की। फिर तो भगवान् विष्णु सर्वात्मक यज्ञमय विकराल वाराह शरीर धारण कर थूथुन के अनेकों प्रहारों से पृथ्वी को विदीर्ण करके पाताललोक में जा घुसे। वहाँ उन्होंने कभी न टूटनेवाले अपनी अगली दाढ़ों से तथा थूथुन से सैकड़ों दैत्यों का कचूमर निकालकर अपने वज्रसदृश कठोर पाद-प्रहारों से निशाचरों की सेना को मथ डाला। तत्पश्चात् अद्भुत एवं प्रचण्ड तेजस्वी विष्णु ने करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान सुदर्शन-चक्र से हिरण्याक्ष के प्रज्वलित सिर को काट लिया और दुष्ट दैत्यों को जलाकर भस्म कर दिया। यह देखकर देवराज इन्द्र को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने उस असुर – राज्य पर अन्धक को अभिषिक्त कर दिया। फिर माहात्मा इन्द्र विष्णु को अपनी दाढ़ों द्वारा पाताललोक से पृथ्वी को लाते हुए देखकर परम प्रसन्न हुए और अपने स्थान पर आकर पूर्ववत् स्वर्ग और भूतल की रक्षा करने लगे। इधर वाराहरूप धारण करके उत्तम कार्य करने वाले उग्ररूपधारी श्रीहरि प्रसन्नचित्त हुए समस्त देवों, मुनियों और पद्मयोनि ब्रह्मा द्वारा प्रशंसित होकर अपने लोक को चले गये। इस प्रकार वाराहरूपधारी विष्णु द्वारा असुरराज हिरण्याक्ष के मारे जाने पर समस्त देव, मुनि तथा अन्यान्य सभी जीव सुखी हो गये।
(अध्याय ४२)