हिरण्यकशिपु की तपस्या और ब्रह्मा से वरदान पाकर उसका अत्याचार, नृसिंह द्वारा उसका वध और प्रह्लाद को राज्य प्राप्ति
सनत्कुमारजी कहते हैं – व्यासजी! इधर बराह रूपधारी श्रीहरि के द्वारा इस प्रकार भाई के मारे जाने पर हिरण्यकशिपु शोक और क्रोध से संतप्त हो उठा। श्रीहरि के साथ बैर करना तो उसे रुचता ही था, अतः उसने संहारप्रेमी वीर असुरों को प्रजा का विनाश करने के लिये आज्ञा दे दी। तब वे संहारप्रिय असुर स्वामी की आज्ञा को सिर चढ़ाकर देवताओं और प्रजाओं का विनाश करने लगे। इस प्रकार जब उन दुष्ट-चित्तवाले असुरों द्वारा सारा देवलोक तहस-नहस कर दिया गया, तब देवता स्वर्ग को छोड़कर गुप्त रूप से भूतल पर विचरने लगे। उधर भाई की मृत्यु से दुःखी हुए हिरण्यकशिपु ने भाई को जलांजलि देकर उसकी स्त्री आदि को ढाढ़स बँधाया। तत्पश्चात् उस दैत्यराज ने अपने लिये विचार किया कि 'मैं अजेय, अजर और अमर हो जाऊँ। मेरा ही एकच्छत्र साम्राज्य रहे और मेरा प्रतिद्वन्द्वी कोई न रह जाय।' यों धारणा बनाकर वह मन्दराचल पर गया और वहाँ एक गुफा में अत्यन्त घोर तपस्या करने लगा। उस समय वह पैर के अँगूठे के बल खड़ा था। उसकी भुजाएँ ऊपर को उठी थीं और दृष्टि आकाश की ओर लगी थी। उसकी तपस्या से संतप्त होकर देवताओं का मुख विकृत हो उठा। वे स्वर्ग को छोड़कर ब्रहालोक में जा पहुँचे और उन्होंने ब्रह्मा से अपना दुखड़ा कह सुनाया। व्यासजी! उन देवताओं के इस प्रकार कहने पर स्वयम्भू ब्रह्मा भृगु, दक्ष आदि के साथ उस दैत्येश्वर के आश्रम पर गये। तब जिसने अपने तप से सम्पूर्ण लोकों को संतप्त कर दिया था, उस हिरण्यकशिपु ने वर देने के लिये आये हुए पद्मयोनि ब्रह्मा को अपने सामने उपस्थित देखा। उधर पितामह ने भी उस से कहा – 'वर माँग।' तब जिसकी बुद्धि मोहित नहीं हुई थी, उस असुर ने विधाता की उस मधुर वाणी को सुनकर इस प्रकार कहा।
हिरण्यकशिपु बोला – ऐश्वर्यशाली प्रजापति! पितामह! मैं चाहता हूँ कि स्वर्ग में, भूतल पर, दिन में, रात में, ऊपर अथवा नीचे – कहीं भी शस्त्र, अस्त्र, पाश, वज्र, शुष्क वृक्ष, पर्वत, जल, अग्नि के रूप में शत्रु के प्रहार से, देवता, दैत्य, मुनि, सिद्ध किंबहुना आप द्वारा रचे हुए जीवों के हाथों मुझे कभी भी मृत्यु का भय न हो।
सनत्कुमारजी कहते हैं – मुने! हिरण्यकशिपु के वैसे वचन सुनकर पद्मयोनि ब्रह्म के मन में दया का भाव जाग्रत् हो उठा। उन्होंने मन-ही-मन विष्णु को प्रणाम करके उससे कहा – दैत्येन्द्र! मैं तुझ पर प्रसन्न हूँ, अतः तुझे सारी वस्तुएँ प्राप्त होंगी। तूने छियानबे हजार वर्षों तक तप किया है, अब तेरी कामना पूर्ण हो चुकी है; अतः तप से विरत होकर उठ और दानवों के राज्य का उपभोग कर।' ब्रह्मा की वाणी सुनकर हिरण्यकशिपु का मुख प्रसनन्नता से खिल उठा। इस प्रकार जब पितामह ने उसे दानव-राज्य पर अभिषिक्त कर दिया, तब वह उन्मत्त हो उठा और त्रिलोकी को नष्ट करने का विचार करने लगा। फिर तो उसने सम्पूर्ण धर्मों का उच्छेद करके संग्राम में समस्त देवताओं को भी जीत लिया। तब देवता भागकर विष्णु के पास पहुँचे। वहाँ श्रीहरि ने देवताओं और मुनियों की दुःखगाथा सुनकर उन्हें आश्वासन दिया और शीघ्र ही उस दैत्य के वध करने का वचन दिया। तब देवता अपने स्थान को लौट गये। तदनन्तर महात्मा विष्णु ने ऐसा रूप धारण किया, जो आधा सिंह और आधा मनुष्य का था। वह अत्यन्त भयंकर तथा विकराल दीख रहा था। उसका मुख खूब फैला हुआ था, नासिका बड़ी सुन्दर थी और नख तीखे थे। गर्दन पर जटाएँ लहरा रही थीं। दाढ़ें ही आयुध थे। उससे करोड़ो सूर्यों के समान प्रभा छिटक रही थी और उसका प्रभाव प्रलयकालीन अग्नि के सदृश था। अधिक कहाँ तक कहा जाय, वह रूप जगन्मय था। इसी रूप से वे भगवान् भास्कर के अस्ताचल की शरण लेने पर असुरों की नगरी में प्रविष्ट हुए। उन अतुल प्रभावशाली नृसिंह को देखकर सभी दैत्य एक साथ उन पर टूट पड़े। तब उन अदभुत पराक्रमी नृसिंह ने महाबली दैत्यों के साथ युद्ध करके बहुतों को मार डाला और बहुतों को पकड़कर तोड़-मरोड़ दिया। फिर वे उस नगर में घूमने लगे। तब उन सर्वमय सिंह को देखकर दैत्यराज के पुत्र प्रह्लाद ने राजा से कहा – 'यह मृगेन्द्र तो जगन्मय दीख रहा है। यह यहाँ किसलिये आया है।'
प्रह्लाद ने पुन कहा – पिताजी! मुझे तो ऐसा प्रतीत हो रहा है कि ये भगवान् अनन्त हैं और नृसिंह का रूप धारण करके आप के नगर में प्रविष्ट हुए हैं; क्योंकि मुझे इनकी मूर्ति बड़ी विकराल दीख रही है। अतः आप युद्ध से हटकर इनकी शरण में जाइये। इनसे बढ़कर त्रिलोकी में दूसरा कोई योद्धा नहीं है, इसलिये आप इन मृगेन्द्र के सामने झुककर अपने राज्य का उपभोग कीजिये। अपने पुत्र की बात सुनकर उस दुरात्मा ने उससे कहा – 'बेटा! क्या तू भयभीत हो गया?' अपने पुत्र से यों कहकर देत्यों के अधिपति राजा हिरण्यकशिपु ने महाबली दैत्यों को आज्ञा देते हुए कहा – वीरो! तुम लोग इस बेडौल भ्रुकुटि और नेत्रवाले सिंह को पकड़ लो।' तब स्वामी की आज्ञा से उन मृगेन्द्र को पकड़ने की इच्छा से वे सभी बड़े-बड़े दवैत्य रणभूमि में घुसे; परंतु जैसे रूप की अभिलाषा से अग्नि में प्रवेश करनेवाले पतिंगे जल-भून जाते हैं, उसी तरह वे सब-के-सब क्षणभर में ही जलकर भस्म हो गये। दैत्यों के दग्ध हो जाने पर भी वह दैत्यराज सम्पूर्ण शस्त्र, अस्त्र, शक्ति, ऋष्टि, पाश, अंकुश और पावक आदि से उन मृगेन्द्र के साथ लोहा लेता ही रहा। इस प्रकार बहुत काल तक भयानक युद्ध हुआ। अन्त में उन नृसिंह ने वज्र के समान कठोर अपनी अनेकों भुजाओं से उस देत्य को पकड़ लिया और उसे अपने जानुओं पर लिटाकर दानवों के मर्म को विदीर्ण करनेवाले नखांकुरों से उसकी छाती चीर डाली तथा खून से लथपथ हुए उसके हदयकमल को निकाल लिया। फिर तो उसी क्षण उसके प्राणपखेरू उड़ गये। तब भगवान् नृसिंह ने बारंबार के आघात से जिसके सारे अंग चूर-चूर हो गये थे, उस काष्ठ भूत दैत्य को छोड़ दिया। उस समय उस देवशत्रु के मारे जाने पर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। उसी अवसर पर प्रह्लाद ने आकर उनके चरणों में सिर झुकाया। तब अद्भुत पराक्रमी विष्णु ने प्रह्लाद को बुलाकर उन्हें दैत्यों के राज्य पर अभिषिक्त कर दिया और स्वयं अतर्कित गति को प्राप्त हो गये अर्थात् अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर पितामह आदि समस्त सुरेश्वर परम प्रसन्न हो अपना कार्य सिद्ध करनेवाले पूजनीय भगवान् विष्णु को उसी दिशा में प्रणाम करके अपने-अपने धाम को चले गये। विप्रवर! प्रसंगवश मैंने रुद्र से अन्धक की उत्पत्ति, वराह से हिरण्याक्ष की मृत्यु, नृसिंह के हाथों उसके भाई का विनाश और प्रह्लाद की राज्य-प्राप्ति का वर्णन कर दिया। द्विजश्रेष्ठ! अब मैं शिव की कृपा से प्राप्त हुए अन्धक के प्रभाव का, शंकरजी के साथ उसके युद्ध का और पीछे जिस प्रकार उसे महेश के गणाध्यक्षपद की प्राप्ति हुई, उस कथा का वर्णन करता हूँ, सुनो।
(अध्याय ४३)