भाइयों के उपालम्भ से अन्धक का तप करना और वर पाकर त्रिलोकी को जीत कर स्वेच्छाचार में प्रवृत्त होना, उसके मन्त्रियों द्वारा शिव-परिवार का वर्णन, पार्वती के सौन्दर्य पर मोहित होकर अन्धक का वहाँ जाना और नन्दीश्वर के साथ युद्ध, अन्धक के प्रहार से नन्दीश्वर की मूर्च्छा, पार्वती के आवाहन से देवियों का प्रकट होकर युद्ध करना, शिव का आगमन और युद्ध, शिव द्वारा शुक्राचार्य का निगला जाना, शिव की प्रेरणा से विष्णु का कालीरूप धारण करके दानवों के रक्त का पान करना, शिव का अन्धक को अपने त्रिशूल में पिरोना और युद्ध की समाप्ति

सनत्कुमारजी कहते हैं – मुनिवर! एक समय हिरण्याक्ष का पुत्र अन्धक अपने भाइयों के साथ विहार में संलग्न था। उसी समय उसके कामासक्त मदान्ध भाइयों ने उससे कहा – 'अरे अन्धे! तुम्हें तो अब राज्य से क्या प्रयोजन है? हिरण्याक्ष तो मूर्ख था, जो उसने घोर तप द्वारा शंकरजी को प्रसन्न करके भी तुम-जैसे कुरूप, बेडौल, कलिप्रिय और नेत्रहीन को प्राप्त किया! ऐसे तुम राज्य के भागी तो हो नहीं सकते; क्योंकि भला, तुम्हीं विचार करो कि कहीं दूसरे से उत्पन्न हुआ पुत्र भी राज्य पाता है? सच पूछो तो निश्चय ही इस राज्य के भागी हमींलोग हैं।'

सनत्कुमारजी कहते हैं – मुने! उन लोगों की वह बात सुनकर अन्धक दीन हो गया। फिर उसने स्वयं ही बुद्धिपूर्वक विचार करके तरह-तरह की बातों से उन्हें शान्त किया और रात के समय वह निर्जन वन में चला गया। वहाँ उसने हजारों वर्षों तक घोर तप करके अपने शरीर को सुखा डाला और अन्त में उस शरीर को अग्नि में होम देना चाहा। तब ब्रह्माजी ने उसे वैसा करने से रोककर कहा – 'दानव! अब तू वर माँग ले। सारे संसार में जिस दुर्लभ वस्तु को प्राप्त करने की तेरी अभिलाषा हो, उसे तू मुझसे ले ले।' पद्मयोनि ब्रह्मा के वचन को सुनकर वह दैत्य दीनता एवं नम्रतापूर्वक कहने लगा – 'भगवन्! जिन निष्ठुरों ने मेरा राज्य छीन लिया है, वे सब दैत्य आदि मेरे भृत्य हो जायें, मुझ अंधे को दिव्य चक्षु प्राप्त हो जाय, इन्द्र आदि देवता मुझे कर दिया करें और देवता, दैत्य, गन्धर्व, यक्ष, नाग, मनुष्य, दैत्यों के शत्रु नारायण, सर्वमय शंकर तथा अन्यान्य किन्हीं भी प्राणियों से मेरी मृत्यु न हो।' उसके उस अत्यन्त दारुण वचन को सुनकर ब्रह्माजी सशंकित हो उठे और उससे बोले।

ब्रह्माजी ने कहा – दैत्येन्द्र! ये सारी बातें तो हो जायँगी, किन्तु तू अपने विनाश का कोई कारण भी तो स्वीकार कर ले; क्योंकि जगत् में कोई ऐसा प्राणी न हुआ है और न आगे होगा ही, जो काल के गाल में न गया हो। फिर तुझ-जैसे सत्पुरुषों को तो अत्यन्त लंबे जीवन का विचार त्याग ही देना चाहिये। ब्रह्मा के इस अनुनय भरे वचन को सुनकर वह दैत्य पुनः बोला।

अन्धक ने कहा – प्रभो! तीनों कालों में जो उत्तम, मध्यम और नीच नारियाँ होती हैं, उन्हीं नारियों में कोई रत्नभूता नारी मेरी भी जननी होगी। वह मनुष्यलोक के लिये दुर्लभ तथा शरीर, मन और वचन से भी अगम्य है। उसमें राक्षम-भाव के कारण जब मेरी काम-भावना उत्पन्न हो जाय, तभी मेरा नाश हो। उसकी बात सुनकर स्वयम्भू भगवान् ब्रह्मा को महान् आश्चर्य हुआ। वे शंकरजी के चरणकमलों का स्मरण करने लगे। तब शम्भु की आज्ञा पाकर वे उस अन्धक से बोले।

ब्रह्माजी ने कहा – दैत्यवर! तू जो कुछ चाहता है, तेरे वे सभी सकाम वचन पूर्ण होंगे। दैत्येन्द्र! अब तू उठ, अपना अभीष्ट प्राप्त कर और सदा वीरों के साथ युद्ध करता रह। मुनीश! हिरण्याक्षपुत्र अन्धक के शरीर में नसें और हड्डियाँ ही शेष रह गयी थीं। वह ब्रह्मा के ऐसे वचन को सुनकर शीघ्र ही भक्तिपूर्वक उन लोकेश्वर के चरणों में लोट गया और इस प्रकार बोला।

अन्धक ने कहा – विभो! जब मेरे शरीर में नसें और हड्डियाँ मात्र ही शेष रह गयी हैं, तब भला इस देह से शत्रु सेना में प्रवेश करके मैं कैसे युद्ध कर सकूँगा; अतः अब आप अपने पवित्र हाथ से मेरा स्पर्श करके इस शरीर को मांसल बना दीजिये।

सनत्कुमारजी कहते हैं – महर्ष! अन्धक की प्रार्थना सुनकर ब्रह्माजी ने अपने हाथ से उसके शरीर का स्पर्श किया और फिर वे मुनिगणों तथा सिद्धसमूहों से भलीभाँति पूजित हो देवताओं के साथ अपने धाम को चले गये। ब्रह्मा के स्पर्श करते ही उस दैत्यराज का शरीर भरा-पूरा हो गया, जिससे उस में बल का संचार हो आया तथा नेत्रों के प्राप्त हो जाने से वह सुन्दर दीखने लगा। तब उसने प्रसननतापूर्वक अपने नगर में प्रवेश किया। उस समय प्रह्लाद आदि श्रेष्ठ दानवों ने जब उसे वरदान प्राप्त करके आया हुआ जाना, तब वे सारा राज्य उसे समर्पित करके उसके वशवर्ती भृत्य हो गये। तदनन्तर अन्धक सेना और भृत्य-वर्ग स्वर्ग को जीतने के लिए गया। वहाँ संग्राम में समस्त देवताओं को पराजित करके उसने वज्रधारी इन्द्र को अपना करद बना लिया। उसने यत्र-तत्र बहुत-सी लड़ाइयाँ लड़कर नागों, सुपर्णों, श्रेष्ठ राक्षसों, गन्धर्वों, यक्षों, मनुष्यों, बड़े-बड़े पर्वतों, वृक्षों और सिंह आदि समस्त चौपायों को भी जीत लिया। यहाँ तक कि उसने चराचर त्रिलोकी को अपने वश में कर लिया। तदनन्तर वह रसातल में, भूतल पर तथा स्वर्ग में जितनी सुन्दर रूपवाली नारियाँ थीं, उन में से हजारों को, जो अत्यन्त दर्शनीय तथा अपने अनुकूल थीं, साथ लेकर विभिन्न पर्वतों पर तथा नदियों के रमणीय तटों पर विहार करने लगा। दैत्यराज अन्धक सदा दुष्टों का ही संग करता था। उसकी बुद्धि मद से अन्धी हो गयी थी, जिससे उस मूढ़ को इस का कुछ भी ज्ञान नहीं रह गया कि परलोक में आत्मा को सुख देनेवाला भी कोई कर्म करना चाहिये। इस प्रकार वह महामनस्वी दैत्य उन्मत्त हो और अपने सारे प्रधान-प्रधान पुत्रों को कुतर्कवाद से पराजित करके दैत्यों सहित सम्पूर्ण वैदिक धर्मों का विनाश करता हुआ विचरण करने लगा। वह धन के मद से अभिभूत हो वेद, देवता, ब्राह्मण और गुरु आदि किसीको भी नहीं मानता था। प्रारब्धवश उसकी आयु समाप्त हो चुकी थी, इसी से वह स्वेच्छाचार में प्रवृत्त हो व्यर्थ में ही अपनी आयु के शेष दिन गँवाता हुआ रमण कर रहा था। उस दानवश्रेष्ठ के तीन मन्त्री थे, जिन का नाम था – दुर्योधन, वैधस और हस्ती। एक समय उन तीनों ने उस पर्वत के किसी रमणीय स्थान पर एक परम रूपवती नारी को देखा। उसे देखकर वे शीघ्रगामी श्रेष्ठ दैत्य हर्षमग्न हो तुरंत ही महादैत्यपति वीरवर अन्धक के पास पहुँचे और बड़े प्रेम से उस देखी हुई घटना का वर्णन करने लगे।

मन्त्रियों ने कहा – दैत्येन्द्र! यहाँ एक गुफा के भीतर हमने एक मुनि को देखा है। ध्यानस्थ होने के कारण उसके नेत्र बंद हैं। वह बड़ा रूपवान् है। उसके मस्तक पर अर्धचन्द्र की कला अपनी छटा बिखेर रही है और कमर में गजेन्द्र की खाल बँधी हुई है। बड़े-बड़े नाग उसके सारे शरीर में लिपटे हुए हैं। खोपड़ियों की माला ही उस जटाधारी का आभूषण है। उसके हाथ में त्रिशूल है तथा एक विशाल धनुष, बाण और तूणीर भी वह धारण किये हुए है। उसका अक्षसूत्र स्पष्ट दीख रहा है। उसके चार भुजाएँ तथा लंबी-लंबी जटाएँ हैं। वह खड्ग, त्रिशूल और लकुट धारण किये हुए है। उसकी आकृति अत्यन्त गौर है और उस पर भस्म का अनुलेप लगा हुआ है। वह अपने उत्कृष्ट तेज से सुशोभित हो रहा है। इस प्रकार उस श्रेष्ठ तपस्वी का सारा वेष ही अद्भुत है। उससे थोड़ी ही दूर पर हमने एक और पुरुष को देखा है, जो विकराल वानर-सा है। उसका मुख बड़ा भयंकर है। वह सभी आयुध धारण किये हुए है, परंतु उसका हाथ रूक्ष है। वह उस तपस्वी की रक्षा में तत्पर है। उसके पास ही एक बूढ़ा सफेद रंग का बैल भी बैठा है। उस बैठे हुए तपस्वी के पार्श्वभाग में हमने एक शुभलक्षण-सम्पन्ना नारी को भी देखा है। वह भूतल पर रत्नस्वरूपा है। उसका रूप बड़ा मनोरम है और तरुणी होने के नाते वह मन को मोहे लेती है। मूँगे, मोती, मणि, सुवर्ण, रत्न और उत्तम वस्त्रों से वह सुसज्जित है। उसके गले में सुन्दर मालाएँ लटक रही हैं। (कहाँ तक कहें, वह इतनी सुन्दरी है कि) जिसने उसे एक बार देख लिया, उसी का नेत्र धारण करना सफल है। उसे फिर इस लोक में अन्य वस्तुओं के देखने से क्या प्रयोजन। वह दिव्य नारी पुण्यात्मा मुनिवर महेश की मान्या एवं प्रियतमा भार्या है। देत्येन्द्र! आप तो उत्तमोत्तम रत्नों का उपभोग करनेवाले हैं। अतः उसे यहाँ बुलवाकर देखिये। वह आप के भी देखने योग्य है।

सनत्कुमारजी कहते हैं – मुनिश्रेष्ठ! मन्त्रियों के उन वचनों को सुनकर देत्यराज अन्धक कामातुर हो उठा। उसके सारे शरीर में कम्प छा गया। फिर तो उसने तुरंत ही दुर्योधन आदि को उस मुनि के पास भेजा। मन्त्रियों ने वहाँ जाकर मुनीश्वर को प्रणाम करके उन से अन्धकासुर का संदेश कहा तथा बदले में शिवजी का उत्तर सुनकर वे लौटकर अन्धक से बोले।

मन्त्रियों ने कहा – राजन्! आप तो सम्पूर्ण दैत्यों के स्वामी हैं, फिर भी उस महान् पराक्रमी वीरवर तपस्वी मुनि ने अपनी बुद्धि से त्रिलोकी को तृण के समान समझकर हँसते हुए आपके लिये ऐसी बातें कही हैं – 'उस निशाचर का शौर्य और धौर्य अस्थिर हैं। वह दानव कृपण, सत्त्वहीन, क्रूर, कृतघ्न और सदा ही पापकर्म करनेवाला है। क्या उसे सूर्यपत्र यम का भय नहीं है? कहाँ तो मैं, मेरे दारुण शस्त्र और मृत्यु को भी संत्रस्त कर देनेवाला युद्ध और कहाँ वह वानर का-सा मुखवाला डरपोक निशाचर, जिसके सारे अंग बुढ़ापे से जर्जर हो गये हैं! कहाँ मेरा यह स्वरूप और कहाँ तेरी मन्दभाग्यता! तेरी सेना भी तो नहीं के बराबर ही है। फिर भी यदि तुझमें कुछ सामर्थ्य हो तो युद्ध के लिये तैयार हो जा और आकर कुछ अपनी करतूत दिखा। मेरे पास तुझ-जैसे पापियों का विनाश करनेवाला वज्र-सरीखा भयंकर शस्त्र है और तेरा शरीर तो कमल के समान कोमल है। ऐसी दशा में विचार कर के तुझे जो रुचिकर प्रतीत हो, वह कर।'

सनत्कुमारजी कहते हैं – मुनिवर! मन्त्रियों की बात सुनकर (माता) पार्वती पर मोहित हुआ वह कामान्ध राक्षस विशाल सेना लेकर चल दिया और वहाँ पहुँचकर नन्दीश्वर से युद्ध करने लगा। बड़ा भयानक युद्ध हुआ। उस समय युद्धस्थल में चर्बी, मज्जा, मांस और रक्त की कीच मच गयी। वहाँ सिर कटे हुए धड़ नाच रहे थे और कच्चा मांस खानेवाले जानवर चारों ओर व्याप्त हो गये थे, जिससे वह बड़ा भयंकर लग रहा था। थोड़ी ही देर में दैत्य भाग खड़े हुएं। तब पिनाकधारी भगवान् शंकर दक्ष-कन्या सती को भलीभाँति धीरज बँधाते हुए बोले- 'प्रिये! मैंने जो पहले अत्यन्त भयंकर महान् पाशुपत-व्रत का अनुष्ठान किया था, उस में रात-दिन तुम्हारे प्रसंगवश जो हमारी सेना का विनाश हुआ है, यह विघ्न-सा आ पड़ा है। देवि! मरणधर्मा प्राणियों का जो अमरों पर आक्रमण हुआ है, यह मानो पुण्य का विनाश करनेवाला कोई ग्रह प्रकट हो गया है। अतः अब मैं पुनःः किसी निर्जन वन में जाकर उस परम अद्भुत दिव्य व्रत की दीक्षा लूँगा और उस कठिन व्रत का अनुष्ठान करूँगा। सुन्दरि! तुम्हारा शोक और भय दूर हो जाना चाहिये।'

सनत्कुमारजी कहते हैं – मुने! इतना कहकर उग्र प्रभाशाली महात्मा शंकर धीरे से अपना सिंगा बजाकर एक अत्यन्त भयंकर पावन वन में चले गये। वहाँ वे एक हजार वर्षों के लिये पाशुपतव्रत के अनुष्ठान में तत्पर हो गये। इस व्रत का निभाना देवों और असुरों की शक्ति के बाहर है। इधर शीलगुण से सम्पन्न पतिव्रता देवी पार्वती मन्दराचल पर ही रहकर शिवजी के आगमन की प्रतीक्षा करती रहती थीं। यद्यपि पुत्रस्थानीय वीरकगण उन की सुरक्षा में तत् पर थे, तथापि उस गुहा के भीतर अकेली रहने के कारण वे सदा भयभीत रहती थीं, जिस से उन्हें बड़ा दुःख होता था। इसी बीच वरदान के प्रभाव से उन्मत्त हुआ वह दैत्य अन्धक, जिस का धैर्य कामदेव के बाणों से छिनन-भिन्न हो गया था, अपने मुख्य-मुख्य योधाओं को साथ ले पुनः उस गुफा पर चढ़ आया। वहाँ सैनिकों सहित उसने वीरकगण के साथ अत्यन्त अद्भुत युद्ध किया। उस समय सभी वीरों ने अन्न, जल और नींद का परित्याग कर दिया था। इस प्रकार वह युद्ध लगातार पाँच सौ पाँच दिन-रात तक चलता रहा। अन्त में दैत्यों की भुजाओं से छूटे हुए आयुधों के प्रहार से नन्दीश्वर का शरीर घायल हो गया, जिससे वे गुहाद्वार पर ही गिर पड़े और मूर्च्छित हो गये। उनके गिरने से गृहा का सारा दरवाजा ही ढक गया, जिस से उसका खोला जाना असम्भव था। फिर दैत्यों ने दो ही घड़ी में सारे वीरकगण को अपने अस्त्रसमूहों से आच्छादित कर दिया। तब पार्वती ने भगवान् विष्णु और ब्रह्माजी का स्मरण किया। स्मरण करते ही ब्राह्मी, नारायणी, ऐन्द्री, वैश्वानरी, याम्या, नैर्ऋति, वारुणी, वायवी, कौबेरी, यक्षेश्वरी, गारुड़ी आदि देवियों के रूप में समस्त देवता, यक्ष, सिद्ध, गुह्यक आदि शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित होकर अपने-अपने वाहनों पर सवार हो पार्वती के पास आ पहुँचे और राक्षसों के साथ भिड़ गये। कुछ समय बाद भगवान् शिव भी आ गये। फिर तो घोर युद्ध हुआ। तदनन्तर शुक्राचार्य को संजीवनी विद्या के द्वारा दैत्यों को जीवित करते देखकर भूतनाथ शिवजी उन को निगल गये। इससे दैत्य ढीले पड़ गये।

व्यासजी! अन्धक महान् पराक्रमी, वीर और त्रिपुरहन्ता शिव के समान बुद्धिमान् था। सैकड़ों वरदान मिलने के कारण वह उन्माद के वशीभूत हो रहा था। यद्यपि बहुसंख्यक शस्क्रास्त्रों की चोट से उसका शरीर जर्जर हो गया था, फिर भी शिवजी पर विजय पाने के लिये उसने दूसरी माया रची। जब प्रलय कालीन अग्नि के समान शरीर धारण करनेवाले भूतनाथ त्रिपुरारि शंकर ने अपने त्रिशूल से उसे बुरी तरह छेद डाला, तब भूतल पर गिरे हुए उसके रक्तकणों से यूथ-के-यूथ अन्धक प्रकट हो गये। उनसे सारी रणभूमि व्याप्त हो गयी। वे विकृत मुखवाले भयंकर राक्षस अन्धक के सदृश ही पराक्रमी थे। इस प्रकार जब पशुपति द्वारा मारे गये सैनिकों के घावों से निकले हुए अत्यन्त गरम-गरम रक्तबिन्दुओं से दूसरे सैनिक उत्पन्न होने लगे, तब बहुत-सी भुजारूपी लताओं द्वारा आक्रान्त होने के कारण कुपित हुए बुद्धिमान् भगवान् विष्णु ने प्रमथनाथ शिव को बुलाकर योगबल से एक ऐसा अजेय स्त्रीरूप धारण किया, जिस का मुख विकृत था और रूप उग्र, विकराल और कंकालमात्र था। वह स्त्रीरूप शम्भु के कान से निकला था। जब उन देवी ने रणभूमि में उपस्थित हो अपने युगल चरणों से पृथ्वी को अलंकृत किया, तब सभी देवता उन की स्तुति करने लगे। तत्पश्चात् भगवान् ने उन की बुद्धि को प्रेरित किया। फिर तो वे क्षुधार्त होकर रण के मुहाने पर उन सैनिकों के तथा दैत्यराज के शरीर से निकले हुए अत्यन्त गरम-गरम रुधिर का पान करने लगीं। (जिससे राक्षसों का उत्पन्न होना बंद हो गया।) तदनन्तर एकमात्र अन्धक ही बच रहा। यद्यपि सके शरीर का रक्त सूख गया था, तथापि वह अपने कुलोचित सनातन क्षात्रधर्म का स्मरण करके अविनाशी भगवान् शंकर के साथ भयंकर थप्पड़ों से, वज्र-सदृश जानुओं और चरणों से, वज्रकार नखों से, मुख, भुजा और सिरों से संग्राम करता रहा। तब प्रमथनाथ शिव ने रणभूमि में उसका हृदय विदीर्ण करके उसे शान्त कर दिया। फिर त्रिशूल भोंककर उसे स्थाणु के समान ऊपर को उठा लिया। उसका जर्जर शरीर नीचे को लटक रहा था। सूर्य की किरणों ने उसे सुखा दिया। पवन के झोंकों से युक्त मेघों ने मूसलाधार जल बरसाकर उसे गीला कर दिया। हिमखण्ड के समान शीतल चन्द्रमा की किरणों ने उसे विशीर्ण कर दिया। फिर भी उस दैत्यराज ने अपने प्राणों का परित्याग नहीं किया। उसने विशेष रूप से शिवजी का स्तवन किया। तब करुणा के अगाध सागर शम्भु प्रसन्न हो गये और उन्होंने उसे प्रेमपूर्वक गणाध्यक्ष का पद प्रदान कर दिया। तत्पश्चात् युद्ध के समाप्त हो जाने पर लोकपालों ने नाना प्रकार के सारगर्भित स्तोत्रों द्वारा विधिपूर्वक शिवजी की अर्चना की और हर्षित हुए ब्रह्मा, विष्णु आदि देवों ने गर्दन झुकाकर उत्तमोत्तम स्तुतियों द्वारा उन का स्तवन किया। फिर जय-जयकार करते हुए वे आनन्द मनाने लगे। तदनन्तर शिवजी उन सब को साथ लेकर आनन्दपूर्वक गिरिराज की गुफा को लौट आये। वहाँ उन्होंने अपने ही अंशभूत पूजनीय देवताओं को नाना प्रकार की भेंट समर्पित करके उन्हें विदा किया और स्वयं प्रमुदित हुई गिरिराजकुमारी के साथ उत्तमोत्तम लीलाएँ करने लगे।

(अध्याय ४४ - ४६)