नन्दीश्वर द्वारा शुक्राचार्य का अपहरण और शिव द्वारा उनका निगला जाना, सौ वर्ष के बाद शुक्र का शिवलिंग के रस्ते बहार निकलना, शिव द्वारा उनका 'शुक्र' नाम रखा जाना, शुक्र द्वारा जपे गये मृत्यंजय मन्त्र और शिवाष्टोत्तरशतनाम स्त्रोत्र का वर्णन, शिव द्वारा अन्धक को वर प्रदान
व्यासजी ने पूछा – महाबुद्धिमान् सनत्कुमारजी! जब वह महान् भयंकर एवं रोमांचकारी संग्राम चल रहा था, उस समय त्रिपुरारि शंकर ने दैत्यगुरु विद्वान् शुक्राचार्य को निगल लिया था – यह घटना मैंने संक्षेप में ही सुनी थी। अब आप उसे विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये। पिनाकधारी शिव के उदर में जाकर उन महायोगी शुक्राचार्य ने क्या किया था? शम्भु की जठराग्नि ने उन्हें जलाया क्यों नहीं? भृगुनन्दन बुद्धिमान् शुक्र भी तो कल्पान्तकालीन अग्नि के समान उग्र तेजस्वी थे। वे शम्भु के जठर-पंजर से कैसे निकले? उन्होंने कैसे और कितने काल तक आराधना की थी? तात! उन्हें जो मृत्यु का शमन करने वाली पराविद्या प्राप्त हुई थी, वह विद्या कौन सी है, जिससे मृत्यु का निवारण हो जाता है? मुने! लीलाविहारी देवाधिदेव भगवान् शंकर के त्रिशूल से छूटे हुए अन्धक को गणाध्यक्षता की प्राप्ति कैसे हुई? तात! मुझे शिवलीलामृत श्रवण करने की विशेष लालसा है, अतः आप मुझ पर कृपा करके वह सारा वृतान्त पूर्ण रूप से वर्णन कीजिये।
ब्रह्माजी कहते हैं – अमिततेजस्वी व्यासजी के इन वचनों को सुनकर सनत्कुमार शिवजी के चरणकमलों का स्मरण करके कहने लगे।
सनत्कुमारजी ने कहा – मुनिवर! भगवान् शंकर के प्रमथों की जब अत्यन्त विजय होने लगी, तब अन्धक घबराकर शुक्राचार्यजी की शरण में गया और उसने गिड़गिड़ाकर मृतसंजीवनी विद्या के द्वारा मरे हुए असुरों को जीवित करने की प्रार्थना की। इसपर शुक्राचार्य ने शरणागत धर्म की रक्षा करना उचित समझा। फिर तो वे युद्धस्थल में गये और आदरपूर्वक विद्या के स्वामी शंकर का स्मरण करके एक-एक दैत्य पर मृतसंजीवनी विद्या का प्रयोग करने लगे। उस विद्या का प्रयोग होते ही वे सभी दैत्य-दानव वीर एक साथ ही हथियार लिये हुए इस प्रकार उठ खड़े हुए मानो अभी सोकर उठे हों। जैसे पूर्णतया अभ्यस्त किया हुआ वेद, समर भूमि में बादल और श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को दिया हुआ धन आपत्ति के समय तुरंत प्रकट हो जाता है, उसी प्रकार वे उठ खड़े हुए। शुक्राचार्य के संजीवनी-प्रयोग से जब बड़े-बड़े दानव जीवित होकर प्रमथों को बुरी तरह मारने लगे, तब प्रमथों ने जाकर प्रमथेश्वरेश शिव को यह समाचार सुनाया। तब शिवजी ने कहा – 'नन्दिन्! तुम अभी तुरंत ही जाओ और दैत्यों के बीच से द्विजश्रेष्ठ शुक्राचार्य को उसी प्रकार उठा लाओ जैसे बाज लवा को उठा ले जाता है।'
सनत्कुमारजी कहते हैं – महर्षे! वृषभध्वज के यों कहने पर नन्दी साँड़ के समान बड़े जोर से गरजे और तुरंत ही सेना को लाँघकर उस स्थान पर जा पहुँचे जहाँ भृगुवंश के दीपक शुक्राचार्य विराजमान थे। वहाँ समस्त दैत्य हाथों में पाश, खड्ग, वृक्ष, पत्थर और पर्वतखण्ड लिये हुए उनकी रक्षा कर रहे थे। यह देखकर बलशाली नन्दी ने उन दैत्यों को विक्षुब्ध करके शुक्राचार्य का उसी प्रकार अपहरण कर लिया, जैसे शरभ हाथी को उठा ले जाता है। महाबली नन्दी द्वारा पकड़े जाने पर शुक्राचार्य के वस्त्र खिसक गये। उनके आभूषण गिरने लगे और केश खुल गये। तब देवशत्रु दानव उन्हें छुड़ाने के लिये सिंहनाद करते हुए नन्दी के पीछे दौड़े और जैसे मेघ जल की वर्षा करते हैं, उसी तरह नन्दीश्वर के ऊपर वज्र, त्रिशूल, तलवार, फरसा, बरेंठी और गोफन आदि अस्त्रों की उग्र वृष्टि करने लगे। तब उस देवासुर-संग्राम के विकराल रूप धारण करने पर गणाधिराज नन्दी ने अपने मुख की आग से सैकड़ों शस्त्रों को भस्म कर दिया और उन भृगुनन्दन को दबोचकर शत्रुदल को व्यथित करते हुए वे शिवजी के समीप आ पहुँचे तथा शीघ्र ही उन्हें निवेदित करते हुए बोले – 'भगवन्! ये शुक्राचार्य उपस्थित हैं।' तब भूतनाथ देवाधिदेव शंकर ने पवित्र पुरुष द्वारा प्रदान किये हुए उपहार की भाँति शुक्राचार्य को पकड़ लिया और बिना कुछ कहे उन्हें फल की तरह मुख में डाल लिया। उस समय समस्त असुर उच्च स्वर से हाहाकार करने लगे।
व्यासजी! जब गिरिजेश्वर ने शुक्राचार्य को निगल लिया, तब दैत्यों की विजय की आशा जाती रही। उस समय उनकी दशा सूँडरहित गजराज, सींगहीन साँड, मस्तकविहीन देह, अध्ययनरहित ब्राह्मण, उद्यमहीन प्राणी, भाग्यहीन के उद्यम, पतिरहित स्त्री, फलवर्जित बाण, पुण्यहीनों की आयु, व्रतरहित वेदाध्ययन, एकमात्र वैभवशक्ति के बिना निष्फल हुए कर्मसमूह, शूरताहीन क्षत्रिय और सत्य के बिना धर्मसमुदाय की भाँति शोचनीय हो गयी। दैत्यों का सारा उत्साह जाता रहा। तब अन्धक ने महान् दुःख प्रकट करते हुए अपने शूरवीरों को बहुत उत्साहित किया और कहा – 'वीरो! जो रणांगण छोड़कर भाग जाते हैं, उनकी ख्याति अपयशरूपी कालिमा से मलिन हो जाती है और उन्हें इस लोक में तथा परलोक में – कहीं भी सुख नहीं मिलता। यदि पुनर्जन्म रूपी मल का अपहरण करनेवाले धरातीर्थ-रणतीर्थ में अवगाहन कर लिया जाय तो अन्य तीर्थों में स्नान, दान और तप की क्या आवश्यकता है अर्थात् इनका फल रणभूमि में प्राणत्याग करने से ही प्राप्त हो जाता है।' दैत्ययाज के इस वचन को पूर्ण रूप से धारण करके वे दैत्य तथा दानव रणभेरी बजाकर रणभूमि में प्रमथगणों पर टूट पड़े और उन्हें मथने लगे तथा बाण, खड्ग, वज्र-सरीखे कठोर पत्थर, भुशुण्डी, भिन्दिपाल, शक्ति, भाले, फरसे, खट्वांग, पट्टिश, त्रिशूल, लकुट और मुसलों द्वारा परस्पर प्रहार करते हुए भयंकर मार-काट मचाने लगे। इस प्रकार अत्यन्त घमासान युद्ध हुआ। इसी बीच विनायक, स्कन्द, नन्दी, सोमनन्दी, वीर नैगमेय और महाबली वैशाख आदि उग्र गणों ने त्रिशूल, शक्ति और बाणसमूहों की धारावाहिक वर्षा करके अन्धक को अँधा बना दिया। फिर तो प्रमथों तथा असुरों की सेनाओं में महान् कोलाहल मच गया। उस घोर शब्द को सुनकर शम्भु के उदर में स्थित शुक्राचार्य आश्रयरहित वायु की भाँति निकलने का मार्ग ढूँढ़ते हुए चक्कर काटने लगे। उस समय उन्हें रुद्र के उदर में पाताल सहित सातों लोक, ब्रह्मा, नारायण, इन्द्र, आदित्य और अप्सराओं के विचित्र भुवन तथा वह प्रमथासुर-संग्राम भी दीख पड़ा। इस प्रकार वे सौ वर्षों तक शिवजी की कुक्षि में चारों ओर भ्रमण करते रहे; परंतु उन्हें उसी प्रकार कोई छिद्र नहीं दीख पड़ा, जैसे दुष्ट की दृष्टि सदाचारी के छिद्र को नहीं देख पाती। तब भृगुनन्दन ने शैवयोग का आश्रय ले एक मन्त्र का जप किया। उस मन्त्र के प्रभाव से वे शम्भु के जठरपंजर से शुक्ररूप में लिंगमार्ग से बाहर निकले। तब उन्होंने शिवजी को प्रणाम किया। गौरी ने उन्हें पुत्र रूप में स्वीकार कर लिया और विघ्नरहित बना दिया। तदनन्तर करुणासागर महेश्वर भृगुनन्दन शुक्राचार्य को वीर्य के रास्ते निकला हुआ देखकर मुसकराते हुए बोले।
महेश्वर ने कहा – भृगुनन्दन! चूँकि तुम मेरे लिंगमार्ग से शुक्र की तरह निकले हो, इसलिये अब तुम शुक्र कहालाओगे। जाओ, अब तुम मेरे पुत्र हो गये।
सनत्कुमारजी कहते हैं – मुनिवर! देवेश्वर शंकर के यों कहने पर सूर्य के सदृश कान्तिमान् शुक्र ने पुनः शिवजी को प्रणाम किया और वे हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे।
शुक्र ने कहा – भगवन्! आपके पैर, सिर, नेत्र, हाथ और भुजाएँ अनन्त हैं। आपकी मूर्तियों की भी गणना नहीं हो सकती। ऐसी दशा में मैं आज स्तुत्य की सिर झुकाकर किस प्रकार स्तुति करूँ। आपकी आठ मूर्तियाँ बतायी जाती हैं और आप अनंतमूर्ति भी हैं। आप सम्पूर्ण सुरों और असुरों की कामना पूर्ण करने वाले हैं तथा अनिष्ट-दृष्टी से देखने पर आप संहार भी कर डालते हैं। ऐसे स्तवन के योग्य आपकी मैं किस प्रकार स्तुति करूँ।
सनत्कुमारजी कहते हैं – मुने! इस प्रकार शुक्र ने शिवजी की स्तुति करके उन्हें नमस्कार किया और उनकी आज्ञा से वे पुनः दानवों की सेना में प्रविष्ट हुए, ठीक उसी तरह जैसे चन्द्रमा मेघों की घटा में प्रवेश करते हैं। व्यासजी! इस प्रकार रणभूमि में शंकर ने जिस तरह शुक्र को निगल लिया था, वह वृतान्त तो तुम्हें सुना दिया। अब शम्भु के उदर में शुक्र ने जिस मन्त्र का जप किया था, उसका वर्णन सुनो।
महर्षे! वह मन्त्र इस प्रकार है –
'ॐ नमस्ते देवेशाय सुरासुर नमस्कृताय भूतभव्यमहादेवाय हरितपिङ्गललोचनाय बलाय बुद्धिरुपिणे वैयाघ्रवसनच्छदायारणेयाय त्रिलोक्यप्रभवे ईश्वराय हराय हरिनेत्राय युगान्तकरणायानलाय गणेशाय लोकपालाय महाभुजाय महाहस्ताय शूलिने महादंष्ट्रींणे कालाय महेश्वराय अव्ययाय कालरुपिणे नीलग्रीवाय महोदराय गणाध्यक्षाय सर्वात्मने सर्वभावनाय सर्वगाय मृत्युहन्त्रे पारियात्रसुव्रताय ब्रह्मचारिणे वेदान्तगाय तपोऽन्तगाय पशुपतये व्यंगाय व्यङ्गाय शूलपाणये वृषकेतवे हरये जटिने शिखण्डिने लकुटिने महायशसे भूतेश्वराय गुहावासिने वीणापतवतालवते अमराय दर्शनीयाय बालसूर्यनिभाय श्मशानवासिने भगवते उमापतये अरिंदमाय भगस्याक्षिपातिने पूष्णो दशननाशनाय। क्रूरकर्तकाय पाशहस्ताय प्रलयकालाय उल्कामुखायाग्निकेतवे मुनये दीप्ताय विशाम्पतये उन्नयते जनकाय चतुर्थकाय लोकसत्तमाय वामदेवाय वाग्दाक्षिण्याय वामतो भिक्षवे भिक्षुरुपिणे जटिने स्वयं जटिलाय शक्रहस्तप्रतिस्तम्भकाय वसूनां स्तम्भकाय क्रतवे क्रतुकराय कालाय मेधाविने मधुकराय चलाय वानस्पत्याय वाजसनेतिसमाश्रमपूजिताय जगद्धात्रे जगत्कर्त्रे पुरुषाय शाश्वताय ध्रुवाय धर्माध्यक्षाय त्रिवर्त्मने भूतभावनाय त्रिनेत्राय बहुरूपाय सुर्यायुतसमप्रभाय देवाय सर्वतुर्यनिनादिने सर्वबाधाविमोचनाय बन्धनाय सर्वधारिणे धर्मोत्तमाय पुष्पदन्तायविभागाय मुखाय सर्वहराय हिरण्यश्रवसे द्वारिणे भीमाय भीमपराक्रमाय ॐ नमो नमः। [ * ॐ जो देवताओं के स्वामी, सुर-असुर द्वारा वन्दित, भूत और भविष्य के महान् देवता, हरे और पीले नेत्रों से युक्त, महाबली, बुद्धिस्वरूप, बाघंबर धारण करनेवाले, अग्निस्वरूप, त्रिलोकी के उत्पत्तिस्थान, ईश्वर, हर, हरिनेत्र, प्रलयकारी, अग्निस्वरूप, गणेश, लोकपाल, महाभुज, महाहस्त, त्रिशूल धारण करनेवाले, बड़ी-बड़ी दाढ़ोंवाले, कालस्वरूप, महेश्वर, अविनाशी, कालरूपी, नीलकण्ठ, महोदर, गणाध्यक्ष, सर्वात्मा, सबको उत्पन्न करनेवाले, सर्वव्यापी, मृत्यु को हटानेवाले, पारियात्र पर्वत पर उत्तम व्रत धारण करनेवाले, ब्रह्मचारी, वेदान्तप्रतिपाद्य, तप की अन्तिम सीमा तक पहुँचनेवाले, पशुपति, विशिष्ट अंगोंवाले, शूलपाणि, वृषध्वज, पापापहारी, जटाधारी, शिखण्ड धारण करनेवाले, दण्डधारी, महायशस्वी, भूतेश्वर, गुहा में निवास करनेवाले, वीणा और पणव पर ताल लगानेवाले, अमर, दर्शनीय, बालसूर्य-सरीखे रूप वाले, श्मशानवासी, ऐश्वर्यशाली, उमापति, शत्रुदमन, भग के नेत्रों को नष्ट कर देने वाले, पूषा के दाँतों के विनाशक क्रूरतापूर्वक संहार करनेवाले, पाशधारी, प्रलयकालरूप, उल्कामुख, अग्निकेतु, मननशील, प्रकाशमान, प्रजापति, ऊपर उठानेवाले, जीवों को उत्पन्न करनेवाले, तुरीयतत्त्वरूप, लोकों में सर्वश्रेष्ठ, वामदेव, वाणी की चतुरता रूप, वाममार्ग में भिश्षु रूप, भिक्षुक, जटाधारी, जटिल-दुराराध्य, इन्द्र के हाथ को स्तम्भित करनेवाले, वसुओं को विजडित कर देने वाले, यज्ञस्वरूप, यज्ञकर्ता, काल, मेधावी, मधुकर, चलने-फिरनेवाले, वनस्पति का आश्रय लेनेवाले, वाजसन नाम से सम्पूर्ण आश्रमों द्वारा पूजित, जगद्धाता, जगत्कर्ता, सर्वान्तर्यामी, सनातन, ध्रुव, धर्माध्यक्ष, भूः-भुवः, स्वः–इन तीनों लोकों में विचरनेवाले, भूतभावन, त्रिनेत्र, बहुरूप, दस हजार सूर्यों के समान प्रभाशाली, महादेव, सब तरह के बाजे बजानेवाले, सम्पूर्ण बाधाओं से विमुक्त करनेवाले, बन्धनस्वरूप, सबको धारण करनेवाले, उत्तम धर्मरूप, पुष्पदन्त, विभागरहित, मुख्य रूप, सबका हरण करनेवाले, सुवर्ण के समान दीप्त कीर्तिवाले, मुक्ति के द्वार स्वरूप, भीम तथा भीमपराक्रमी हैं, उन्हें नमस्कार है, नमस्कार है।]
इसी श्रेष्ठ मन्त्र का जप करके शुक्र शम्भु के जठर-पंजर से लिंग के रास्ते उत्कट वीर्य की तरह निकले थे। उस समय गौरी ने उन्हें पुत्ररूप से अपनाया और जगदीश्वर शिव ने अजर-अमर बना दिया। तब वे दूसरे शंकर के सदृश शोभा पाने लगे। तीन हजार वर्ष व्यतीत होने के पश्चात् वे ही वेदनिधि मुनिवर शुक्र पुनः इस भूतल पर महेश्वर से उत्पन्न हुए। उस समय उन्होंने धैर्यशाली एवं तपस्वी दानवराज अन्धक को देखा। उसका शरीर सूख गया था और वह त्रिशूल पर लटका हुआ परमेश्वर शिव का ध्यान कर रहा था। वह शिवजी के १०८ नामों का इस प्रकार स्मरण कर रहा था –
शिवजी के १०८ नाम व उसका अर्थ – महादेव - देवताओं में महान्, विरूपाक्ष - विकराल नेत्रोंवाले, चन्द्रार्थकृतशेखर - मस्तक पर अर्धचन्द्र धारण करने वाले, अमृत - अमृतस्वरूप, शाश्वत - सनातन, स्थाणु - समाधिस्थ होने पर ठूँठ के समान स्थिर, नीलकण्ठ - गले में नील चिह्न धारण करनेवाले, पिनाकी - पिनाक नामक धनुष धारण करनेवाले, वृषभाक्ष - वृषभ के नेत्र-सरीखे विशाल नेत्रोंवाले, महाज्ञेय - 'महान्' रूप से जानने योग्य, पुरुष - अन्तर्यामी, सर्वकामद - सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाले, कामारि - कामदेव के शत्रु, कामदहन - कामदेव को दग्ध कर देने वाले, कामरूप - इच्छानुसार रूप धारण करने वाले, कपर्दी - विशाल जटाओंवाले, विरूप - विकराल रूपधारी, गिरीश - गिरिवर कैलास पर शयन करनेवाले, भीम - भयंकर रूप वाले, सृक्की - बड़े-बड़े जबड़ोंवाले, रक्तवासा - लाल वस्त्रधारी, योगी - योग के ज्ञाता, कालदहन - काल को भस्म कर देने वाले, त्रिपुरघ्न - त्रिपुरों के संहारकर्ता, कपाली - कपाल धारण करनेवाले, गूढव्रत - जिनका व्रत प्रकट नहीं होता, गुप्तमन्त्र - गोपनीय मन्त्रोंवाले, गम्भीर - गम्भीर स्वभाववाले, भावगोचर - भक्तों की भावना के अनुसार प्रकट होनेवाले, अणिमादिगुणाधार - अणिमा आदि सिद्धियों के अधिष्ठान, त्रिलोकैश्वर्यदायक - त्रिलोकी का ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले, वीर - बलशाली, वीरहन्ता - शत्रुवीरों को मारनेवाले, घोर - दुष्टों के लिये भयंकर, विरूप - विकट रूप धारण करनेवाले, मांसल - मोटे-ताजे शरीरवाले, पटु - निपुण, महामांसाद - श्रेष्ठ फल का गूदा खानेवाले, उन्मत्त - मतवाले, भैरव - कालभैरवस्वरूप, महेश्वर - देवेश्वरों में भी श्रेष्ठ, त्रैलोक्यद्रावण - त्रिलोकी का विनाश करनेवाले, लुब्ध - स्वजनों के लोभी, लुब्धक - महाव्याघ्रस्वरूप, यज्ञसूदन - दक्ष-यज्ञ के विनाशक, कृत्तिकासुतयुक्त - कृत्त्तिकाओं के पुत्र (स्वामिकार्तिक) से युक्त, उन्मत - उन्मत्त का-सा वेष धारण करनेवाले, कृत्तिवासा - गजासुर के चमड़े को ही वस्त्र रूप में धारण करनेवाले, गजकृत्तिपरिधान - हाथी का चर्म लपेटनेवाले, क्षुब्ध - भक्तों का कष्ट देखकर क्षुब्ध हो जानेवाले, भुजगभूषण - सर्पों को भूषण रूप में धारण करनेवाले, दत्तालम्ब - भक्तों के अवलम्बदाता, वेताल - वेतालस्वरूप, घोर - घोर, शाकिनीपूजित - शाकिनियों द्वारा स्माराधित, अघोर - अघोर-पथ के प्रवर्तक, घोरदैत्यघ्न - भयंकर दैत्यों के संहारक, घोरघोष - भीषण शब्द करनेवाले, वनस्पति - वनस्पति स्वरूप, भस्मांग - शरीर में भस्म रमानेवाले, जटिल - जटाधारी, शुद्ध - परम पावन, भेरुण्डशतसेवित - सैकड़ो भेरुण्डनामक पक्षियों द्वारा सेवित, भूतेश्वर - भूतों के अधिपति, भूतनाथ - भूतगणों के स्वामी, पंचभुताश्रित - पंचभूतों को आश्रय देने वाले, खग - गगन-विहारी, क्रोधित - क्रोधयुक्त, निष्ठुर- दुष्टों पर कठोर व्यवहार करनेवाले, चण्ड - प्रचण्ड पराक्रमी, चण्डीश - चण्डी के प्राणनाथ, चण्डीकाप्रिय - चण्डिका के प्रियतम, चण्डतुण्ड - अत्यन्त कुपित मुखवाले, गरुत्मान् - गरुडस्वरूप, निर्स्त्ंरिश निसि्ंत्राश - खड्गस्वरूप, शवभोजन - शव का भोग लगानेवाले, लेलिहान - क्रुद्ध होने पर जीभ लपलपानेवाले, महारौद्र - अत्यन्त भयंकर, मृत्यु - मृत्युस्वरूप, मृत्योरगोचर - मृत्यु की भी पहुँच से परे, मृत्योर्म्रुत्यु - मृत्यु के भी काल, महासेन - विशाल सेनावाले कार्तिकेय-स्वरूप, श्मशानारण्यवासी - श्मशान एवं अरण्य में विचरनेवाले, राग - प्रेमस्वरूप, विराग - आसक्तिरहित, रागान्ध - प्रेम में मस्त रहनेवाले, वीतराग - वैरागी, शतार्चि - तेज की असंख्य चिनगारियों से युक्त, सत्त्व - सत्त्वगुणरूप, रजः - रजोगुणरूप, तमः - तमोगुणरूप, धर्म - धर्मस्वरूप, अधर्म - अधर्मरूप, वासवानुज - इन्द्र के छोटे भाई उपेन्द्रस्वरूप, सत्य - सत्यरूप, असत्य- सत्य से भी परे, सद्रूप - उत्तम रूप वाले, असद्रूप - बीभत्स रूपधारी, अहेतुक - हेतुरहित, अर्धनारीश्वर - आधा पुरुष और आधा स्त्री का रूप धारण करनेवाले, भानु - सूर्यस्वरूप, भानुकोटिशतप्रभ - कोटिशत सूर्यों के समान प्रभावशाली, यज्ञ - यज्ञस्वरूप, यज्ञपति - यज्ञेश्वर, रुद्र - संहारकर्ता, ईशान - ईश्वर, वरद - वरदाता, शिव - कल्याणस्वरूप।
परमात्मा शिव की इन १०८ मूर्तियों का ध्यान करने से वह दानव उस महान् भय से मुक्त हो गया। उस समय प्रसन्न हुए जटाधारी शंकर ने उसे मुक्त करके उस त्रिशूल के अग्रभाग से उतार लिया और दिव्य अमृत की वर्षा से अभिषिक्त कर दिया। तत्पश्चात् महात्मा महेश्वर उसने जो कुछ किया था, उस सबका सान्त्वनापूर्वक वर्णन करते हुए उस महादैत्य अन्धक से बोले।
ईश्वर ने कहा – हे दैत्यन्द्र! मैं तेरे इन्द्रियनिग्रह, नियम, शौर्य और धैर्य से प्रसन्न हो गया हूँ; अतः सुव्रत! अब तू कोई वर माँग ले। दैत्यों के राजाधिराज! तूने निरन्तर मेरी आराधना की है, इससे तेरा सारा कल्मष धुल गया और अब तू वर पाने के योग्य हो गया है। इसीलिये मैं तुझे वर देने के लिये आया हूँ; क्योंकि तीन हजार वर्षों तक बिना खाये-पीये प्राण धारणा किये रहने से तूने जो पुण्य कमाया है, उसके फलस्वरूप तुझे सुख की प्राप्ति होनी चाहिये।
सनत्कुमारजी कहते है – मुने! यह सुनकर अन्धक ने भूमि पर अपने घुटने टेक दिये और फिर वह हाथ जोड़कर काँपता हुआ भगवान् उमापति से बोला।
अन्धक ने कहा – भगवन्! आपकी महिमा जाने बिना मैंने पहले रणांगण में हर्षगद्गद वाणी से आपको जो दीन, हीन तथा नीच-से-नीच कहा है और मुर्खतावश लोक में जो-जो निन्दित कर्म किया है, प्रभो! उस सबको आप अपने मन में स्थान न दें अर्थात् उसे भूल जायँ। महादेव! मैं अत्यन्त ओछा और दुःखी हूँ। मैंने कामदोषवश पार्वती के विषय में भी जो दूषित भावना कर ली थी, उसे आप क्षमा कर दें। आपको तो अपने कृपण, दुःखी एवं दीन भक्त पर सदा ही विशेष दया करनी चाहिये। मैं उसी तरह का एक दीन भक्त हूँ और आपकी शरण में आया हूँ। देखिये, मैंने आपके सामने अंजलि बाँध रखी है। अब आपको मेरी रक्षा करनी चाहिये। ये जगज्जननी पार्वती देवी भी मुझ पर प्रसन्न हो जायँ और सारे क्रोध को त्याग कर मुझे कृपादृष्टि से देखे। चन्द्रशेखर! कहाँ तो इनका भयंकर क्रोध और कहाँ मैं तुच्छ दैत्य? चन्द्रमौलि! मैं किसी प्रकार उसको सहन नहीं कर सकता। शम्भो! कहाँ तो परम उदार आप और कहाँ बुढापा, मृत्यु तथा काम-क्रोध आदि दोषों के वशीभूत मैं? महेश्वर! आपके ये युद्धकला-निपुण महाबली वीर पुत्र मेरी कृपणता पर विचार करके अब क्रोध के वशीभूत मत हों। तुषार, हार, चन्द्रकिरण, शंख, कुन्द्पुष्प और चन्द्रमा के-से वर्णवाले शिव! मैं इन पार्वती को गुरुता के गौरववश नित्य मातृ-दृष्टि से देखूँ। मैं नित्य आप दोनों का भक्त बना रहूँ। देवताओं के साथ होने वाला मेरा वैर दूर हो जाय तथा मैं शान्तचित्त हो योग-चिन्तन करता हुआ गणों के साथ निवास करूँ। महेशान! आपकी कृपा से मैं उत्पन्न हुए इस विरोधी दानवभाव का पुनः कभी स्मरण न करूँ, वही उत्तम वर मुझे प्रदान कीजिये।
सनत्कुमारजी कहते हैं – मुनिसत्तम! इतनी बात कहकर वह दैत्यराज माता पार्वती की ओर देखकर त्रिनयन शंकर का ध्यान करता हुआ मौन हो गया। तब रुद्र ने उसकी ओर कृपादृष्टि से देखा। उनकी दृष्टि पड़ते ही उसे अपने पूर्ववृतान्त तथा अद्भुत जन्म का स्मरण हो आया। उस घटना का स्मरण होते ही उसका मनोरथ पूर्ण हो गया। फिर तो माता-पिता (उमा-महेश्वर) को प्रणाम करके वह कृतकृत्य हो गया। उस समय पार्वती तथा बुद्धिमान् शंकर ने उसका मस्तक सूँघकर प्यार किया। इस प्रकार अन्धक ने प्रसन्न हुए चन्द्रशेखर से अपना सारा मनोरथ प्राप्त कर लिया। मुने! महादेवजी की कृपा से अन्धक को जिस प्रकार परम सुखद गणाध्यक्ष-पद प्राप्त हुआ था, वह सारा-का-सारा पुरातन वृतान्त मैंने सुना दिया और मृत्युंजय-मन्त्र का भी वर्णन कर दिया। यह मन्त्र मृत्यु का विनाशक और सम्पूर्ण कामनाओं का फल प्रदान करने वाला है। इसे प्रयत्नपूर्वक जपना चाहिये।
(अध्याय ४७ - ४९)