बाणासुर की तपस्या और उसे शिव द्वारा वर-प्राप्ति, शिव का गणों और पुत्रों सहित उसके नगर में निवास करना, बाणपुत्री ऊषा का रात के समय स्वप्न में अनिरुद्ध के साथ मिलन, चित्रलेखा द्वारा अनिरुद्ध का द्वारका से अपहरण, बाण का अनिरुद्ध को नागपाश में बाँधना, दुर्गा के स्तवन से अनिरुद्ध का बन्धनमुक्त होना, नारद द्वारा समाचार पाकर श्रीकृष्ण की शोणितपुर पर चढ़ाई, शिव के साथ उनका घोर युद्ध, शिव की आज्ञा से श्रीकृष्ण का उन्हें जृम्भणास्त्र से मोहित करके बाण की सेना का संहार करना

व्यासजी बोले – सर्वज्ञ सनत्कुमार्जी! आपने अनुग्रह करके प्रेमपूर्वक ऐसी अद्भुत और सुन्दर कथा सुनायी है, जो शंकर की कृपा से ओतप्रोत है। अब मुझे शशिमौलि के उस उत्तम चरित्र के श्रवण करने की इच्छा है, जिसमें उन्होंने प्रसन्न होकर बाणासुर को गणाध्यक्ष पद प्रदान किया था।

सनत्कुमारजी ने कहा – व्यासजी! परमात्मा शम्भु की उस कथा को, जिसमें उन्होंने प्रसन्न होकर बाणासुर को गणनायक बनाया था, आदरपूर्वक श्रवण करो। इसी प्रसंग में महाप्रभु शंकर का वह सुन्दर चरित्र भी आयेगा, जिसमें उन्होंने बाणासुर पर अनुग्रह करके श्रीकृष्ण के साथ संग्राम किया था। व्यासजी! दक्षप्रजापति की तेरह कन्याएँ कश्यप मुनि की पत्नियाँ थी। वे सब-की-सब पतिव्रता तथा सुशीला थीं। उनमें दिति सबसे बड़ी थी, जिसके लड़के दैत्य कहलाते हैं। अन्य पत्नियों से भी देवता तथा चराचर सहित समस्त प्राणी पुत्ररूप से उत्पन्न हुए थे। जेष्ठ पत्नी दिति के गर्भ से सर्वप्रथम दो महाबली पुत्र पैदा हुए, उनमें हिरण्यकशिपु जेष्ठ था और उसके छोटे भाई का नाम हिरण्याक्ष था। हिरण्यकशिपु के चार पुत्र हुए। उन दैत्यश्रेष्ठों का क्रमशः ह्लाद, अनुह्लाद, संह्लाद और प्रह्लाद नाम था। उनमें प्रह्लाद जितेन्द्रिय तथा महान् विष्णुभक्त हुए। उनका नाश करने के लिये कोई भी दैत्य समर्थ न हो सका। प्रह्लाद का पुत्र विरोचन हुआ, वह दानियों में सर्वश्रेष्ठ था। उसने विप्ररूप से याचना करने वाले इन्द्र को अपना सिर ही दे डाला था। उसका पुत्र बलि हुआ। यह महादानी और शिवभक्त था। इसने वामनरूपधारी विष्णु को सारी पृथ्वी दान कर दी थी। बलि का औरस पुत्र बाण हुआ। वह शिवभक्त, मानी, उदार, बुद्धिमान, सत्यप्रतिज्ञ और सहस्त्रों का दान करने वाला था। उस असुरराज ने पूर्वकाल में त्रिलोकी को तथा त्रिलोकाधिपतियों को बलपूर्वक जीतकर शोणितपुर में अपनी राजधानी बनाया और वहीं रहकर राज्य करने लगा। उस समय देवगण शंकर की कृपा से उस शिवभक्त बाणासुर के किंकर के समान हो गये थे। उसके राज्य में देवताओं के अतिरिक्त और कोई प्रजा दुःखी नहीं थी। शत्रुधर्म का बर्ताव करने वाले देवता शत्रुतावश ही कष्ट झेल रहे थे। एक समय वह महासुर अपनी सहस्त्रों भुजाओं से ताली बजाता हुआ ताण्डवनृत्य करके महेश्वर शिव को प्रसन्न करने की चेष्टा करने लगा। उसके उस नृत्य से भक्तवत्सल शंकर संतुष्ट हो गये। फिर उन्होंने परम प्रसन्न हो उसकी ओर कृपादृष्टि से देखा। भगवान् शंकर तो सम्पूर्ण लोकों के स्वामी, शरणागतवत्सल और भक्तवांछाकल्पतरु ही ठहरे। उन्होंने बलिनन्दन महासुर बाण को वर देने की इच्छा प्रकट की।

मुने! बलिनन्दन महादैत्य बाण शिवभक्तों में श्रेष्ठ और परम बुद्धिमान था। उसने परमेश्वर शंकर को प्रणाम करके उनकी स्तुति की और कहा।

बाणासुर बोला – प्रभो! आप मेरे रक्षक हो जाइये और पुत्रों तथा गणों सहित मेरे नगर के अध्यक्ष बनकर सर्वथा प्रिति का निर्वाह करते हुए मेरे पास ही निवास कीजिये।

सनत्कुमारजी कहते हैं – महर्षे! वह बलिपुत्र बाण निश्चय ही शिवजी की माया से मोह में पड़ गया था, इसीलिये उसने मुक्ति प्रदान करने वाले दुराराध्य महेश्वर को पाकर भी ऐसा वर माँगा। तब ऐश्वर्यशाली भक्तवत्सल शम्भू उसे वह वर देकर पुत्रों और गणों के साथ प्रेमपूर्वक वहीँ निवास करने लगे। एक बार बाणासुर को बड़ा ही गर्व हो गया। उसने ताण्डवनृत्य करके शंकर को संतुष्ट किया। जब बाणासुर को यह ज्ञात हो गया कि पार्वतीवल्लभ शिव प्रसन्न हो गये हैं, तब वह हाथ जोड़कर सिर झुकाये हुए बोला।

बाणासुर ने कहा – देवाधिदेव महादेव! आप समस्त देवताओं के शिरोमणि हैं। आपकी ही कृपा से मैं बली हुआ हूँ। अब आप मेरा उत्तम वचन सुनिये। देव! आपने जो मुझे एक हजार भुजाएँ प्रदान की हैं, ये तो अब मुझे महान् भारस्वरूप लग रही हैं; क्योंकि इस त्रिलोकी में मुझे आपके अतिरिक्त अपनी जोड़ का और कोई योद्धा ही नहीं मिला। इसलिये वृषध्वज! युद्ध के बिना इन पर्वत-सरीखी सहस्त्रों भुजाओं को लेकर मैं क्या करूँ। मैं अपनी इन परिपुष्ट भुजाओं की खुजली मिटाने के लिये युद्ध की लालसा से नगरों तथा पर्वतों को चूर्ण करता हुआ दिग्गजों के पास गया; परंतु वे भी भयभीत होकर भाग खड़े हुए। मैंने यम को योद्धा, अग्नि को महान् कार्य करनेवाला, वरुण को गौओं का पालनकर्ता गोपाल, कुबेर को गजाध्यक्ष, निर्ऋत्ति को सैरन्ध्री और इन्द्र को जीतकर सदा के लिये करद बना लिया है। महेश्वर! अब मुझे किसी ऐसे युद्ध के प्राप्त होने की बात बताइये, जिसमें मेरी ये भुजाएँ या तो शत्रुओं के हाथों से छूटे हुए शस्त्रास्त्रों से जर्जर होकर गिर जायँ अथवा हजारों प्रकार से शत्रु की भुजाओं को ही गिरायें। यही मेरी अभिलाषा है, इसे पूर्ण करने की कृपा करें।

सनत्कुमारजी कहते हैं – मुनिश्रेष्ठ! उसकी बात सुनकर भक्तबाधापहारी तथा महामन्युस्वरूप रूद्र को कुछ क्रोध आ गया। तब वे महान् अद्भुत अट्टहास करके बोले।

रूद्र ने कहा – अरे अभिमानी! सम्पूर्ण दैत्यों के कुल में नीच! तुझे सर्वथा धिक्कार है, धिक्कार है! तू बलि का पुत्र और मेरा भक्त है। तेरे लिये ऐसी बात कहना उचित नहीं है। अब तेरा दर्प चूर्ण होगा। तुझे शीघ्र ही मेरे समान बलवान् के साथ अकस्मात महान् भीषण युद्ध प्राप्त होगा। उस संग्राम में तेरी ये पर्वत-सरीखी भुजाएँ जलौनी लकड़ी की तरह शस्त्रास्त्रों से छिन्न-भिन्न होकर भूमि पर गिरेंगी। दुष्टात्मन्! तेरे आयुधागार पर स्थापित तेरा जो यह मनुष्य के सिरवाला मयूरध्वज फहरा रहा है, इसका जब वायु-भय के बिना ही पतन हो जायगा, तब तू अपने चित्त में समझ लेना कि वह महान् भयानक युद्ध आ पहुँचा है। उस समय तू घोर संग्राम का निश्चय करके अपनी सारी सेना के साथ वहाँ जाना। इस समय तू अपने महल को लौट जा; क्योंकि इसी में तेरा कल्याण है। दुर्मते! वहाँ तुझे प्रसिद्ध बड़े-बड़े उत्पात दिखायी देंगे। यों कहकर गर्वहारी भक्तवत्सल भगवान् शंकर चुप हो गये।

सनत्कुमारजी कहते हैं – मुने! यह सुनकर बाणासुर ने दिव्य पुष्पों की कलियों से अंजलि भरकर रूद्र की अभ्यर्चना की और फिर उन महादेव को प्रणाम करके वह अपने घर को लौट गया। तदनन्तर किसी समय दैव वश उसका वह ध्वज अपने-आप टूटकर गिर गया। यह देखकर बाणासुर हर्षित हो युद्ध के लिये उद्यत हो गया। वह अपने हृदय में विचार करने लगा कि कौन-सा युद्धप्रेमी योद्धा किस देश से आयेगा, जो नाना प्रकार के शस्त्रास्त्रों का पारगामी विद्धान् होगा और मेरी शस्त्रों भुजाओं को ईंधन की तरह काट डालेगा तथा मैं भी अपने अत्यन्त तीखे शस्त्रों से उसके सैकड़ों टुकड़े कर डालूँगा। इसी समय शंकर की प्रेरणा से वह काल आ गया। एक दिन बाणासुर की कन्या ऊषा वैशाख मास में माधव की पूजा करके मांगलिक श्रृंगार से सुसज्जित हो रात के समय अपने गुप्त अन्तःपुर में सो रही थी, उसी समय वह स्त्रीभाव (कामभाव) प्राप्त हो गयी। तब देवी पार्वती की शक्ति से ऊषा को स्वप्न में श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध का मिलन प्राप्त हुआ। जागने पर वह व्याकुल हो गयी और उसने अपनी सखी चित्रलेखा से स्वप्न में मिले हुए उस पुरुष को ला देने के लिये कहा।

तब चित्रलेखा ने कहा – देवि! तुमने स्वप्न में जिस पुरुष को देखा है, उसे भला, मैं कैसे ला सकती हूँ, जब कि मैं उसे जानती ही नहीं। उसके यों कहने पर दैत्यकन्या ऊषा प्रेमान्ध होकर मरने पर उतारू हो गयी, तब उस दिन उसकी उस सखी ने उसे बचाया। मुनिश्रेष्ठ! कुम्भाण्डकी पुत्री चित्रलेखा बड़ी बुद्धिमती थी, वह बाणतनया ऊषा से पुनः बोली।

चित्रलेखा ने कहा – सखी! जिस पुरुष ने तुम्हारे मन का अपहरण किया है, उसे बताओ तो सही। वह यदि त्रिलोकी में कहीं भी होगा तो मैं उसे लाऊँगी और तुम्हारा कष्ट दूर करूँगी।

सनत्कुमारजी कहते हैं – महर्षे! यों कहकर चित्रलेखा ने वस्त्र के परदे पर देवताओं, दैत्यों, दानवों, गन्धर्वों, सिद्धों, नागों और यक्ष आदि के चित्र अंकित किये। फिर वह मनुष्यों का चित्र बनाने लगी। उनमें वृष्णिवंशियों का प्रकरण आरम्भ होने पर उसने शूर, वसुदेव, राम, कृष्ण और नरश्रेष्ठ प्रद्युम्न का चित्र बनाया। फिर जब उसने प्रद्युम्ननन्दन अनिरुद्ध का चित्र खींचा, तब उसे देखकर ऊषा लज्जित हो गयी। उसका मुख अवनत हो गया और हृदय हर्ष से परिपूर्ण हो गया।

ऊषा ने कहा – 'सखी! रात में जो मेरे पास आया था और जिसने शीघ्र ही मेरे चित्तरूपी रत्न को चुरा लिया है, वह चोर पुरुष यही है।' तदनन्तर ऊषा के अनुरोध करने पर चित्रलेखा ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी को तीसरे पहर द्वारकापुरी पहुँचकर क्षण मात्र में ही पलंग पर बैठे हुए अनिरुद्ध को महल में से उठा लायी। वह दिव्य योगिनी थी। ऊषा अपने प्रियतम को पाकर प्रसन्न हो गयी। इधर अन्तःपुर के द्वार की रक्षा करनेवाले बेतधारी पहरेदारों ने चेष्टाओं से तथा अनुमान से इस बात को लक्ष्य कर लिया। उन्होंने एक दिव्य शरीरधारी, दर्शनीय, साहसी तथा समरप्रिय नवयुवक को कन्या के साथ दुःशीलता का आचरण करते हुए देख भी लिया। उसे देखकर कन्या के अन्तःपुर की रक्षा करनेवाले उन महाबली पुरुषों ने बलिपुत्र बाणासुर के पास जाकर सारी बातें निवेदन करते हुए कहा।

द्वारपाल बोले – देव! पता नहीं, आपके अन्तःपुर में बलपूर्वक प्रवेश करके कौन पुरुष छिपा हुआ है। वह इन्द्र तो नहीं है, जो वेश बदलकर आपकी कन्या का उपभोग कर रहा है? महाबाहू दानवराज! उसे यहाँ देखिये, देखिये और जैसा उचित समझिये वैसा कीजिये। इसमें हम लोगों का कोई दोष नहीं है।

सनत्कुमारजी कहते हैं – मुनिश्रेष्ठ! द्वारपालों का वह वचन तथा कन्या के दूषित होने का कथन सुनकर महाबली दानवराज बाण आश्चर्यचकित हो गया। तदनन्तर वह कुपित होकर अन्तःपुर में जा पहुँचा। वहाँ उसने प्रथम अवस्था में वर्तमान दिव्य शरीरधारी अनिरुद्ध को देखा। उसे महान् आश्चर्य हुआ। फिर उसने उसका बल देखने के लिये दस हजार सैनिकों को भेजकर आज्ञा दी की इसे मार डालो। सेना ने अनिरुद्ध पर आक्रमण किया। तब अनिरुद्ध ने बात-की-बात में दस हजार सैनिकों को काल के हवाले कर दिया। फिर तो असंख्य सेना-पर-सेना आने लगी और अनिरुद्ध उन्हें काल का ग्रास बनाने लगे। तदनन्तर उन्होंने बाणासुर का वध करने के लिये एक शक्ति हाथ में ली, जो कालाग्नि के समान भयंकर थी। फिर उसीसे रथ की बैठक में बैठे हुए बाणासुर पर प्रहार किया। उसकी गहरी चोट खाकर वीरवार बाण उसी क्षण घोड़ों सहित वहीं अन्तर्धान हो गया। फिर महावीर बलिपुत्र बाणासुर ने, जो महान् बलसम्पन्न तथा शिवभक्त था, छलपूर्वक नागपाश से अनिरुद्ध को बाँध लिया। इस प्रकार उन्हें बाँधकर और पिंजरे में कैद करके वह युद्ध से उपराम हो गया। तत्पश्चात् बाण कुपित होकर महाबली सूतपुत्र से बोला।

बाणासुर ने कहा – सूतपुत्र! घास-फूस से ढके हुए आगाध कुएँ में ढकेलकर इस पापी को मार डाल। अधिक क्या कहूँ, इसे सर्वथा मार ही डालना चाहिये।

सनत्कुमारजी कहते हैं – मुने! उसकी यह बात सुनकर उत्तम मन्त्रियों से श्रेष्ठ धर्मबुद्धि निशाचर कुम्भाण्ड ने बाणासुर से कहा।

कुम्भाण्ड बोला – देव! थोड़ा विचार तो कीजिये। मेरी समझ से तो वह कर्म करना उचित नहीं प्रतीत होता; क्योंकि इसके मारे जाने पर अपना आत्मा ही आहत हो जायगा। पराक्रम में तो यह विष्णु के समान दीख रहा है। जान पड़ता हैं, आप पर कुपित होकर चन्द्रचुड ने अपने उत्तम तेज से इसे बढ़ा दिया है। साहस में यह शशिमौलि की समानता कर रहा है; क्योंकि इस अवस्था को पहुँच जाने पर भी यह पुरुषार्थ पर ही डटा हुआ है, तथापि यह हम लोगों को तृणवत् ही समझ रहा है।

सनत्कुमारजी कहते हैं – व्यासजी! दानव कुम्भाण्ड राजनीति के ज्ञाताओं में श्रेष्ठ था। वह बाण से ऐसा कहकर फिर अनिरुद्ध से कहने लगा।

कुम्भाण्ड ने कहा – 'नराधम! अब तू वीरवर दैत्यराज की स्तुति कर और दीन वाणी से 'मैं हार गया' यों बारंबार कहकर उन्हें हाथ जोड़कर नमस्कार कर। ऐसा करने पर ही तू मुक्त हो सकता है, अन्यथा तुझे बन्धन आदि का कष्ट भोगना पड़ेगा।' उसकी बात सुनकर अनिरुद्ध उत्तर देते हुए बोले।

अनिरुद्ध ने कहा – दुराचारी निशाचर! तुझे क्षत्रिय-धर्म का ज्ञान नहीं है। अरे! शूरवीर के लिये दीनता दिखाना और युद्ध से मुख मोड़कर भागना मरण से भी बढ़कर कष्टदायक होता है। विरमानी क्षत्रिय के लिये रणभूमि से सदा सम्मुख लड़ते हुए मरना ही श्रेयस्कर है, भूमि पर पड़कर हाथ जोड़े हुए दीन की तरह मरना कदापि नहीं।

सनत्कुमारजी कहते हैं – मुने! इस प्रकार अनिरुद्ध ने बहुत-सी वीरता की बातें कहीं, जिन्हें सुनकर बाणासुर को महान् विस्मय हुआ और क्रोध भी आया। उसी समय समस्त वीरों के, अनिरुद्ध के और मंत्री कुम्भाण्ड के सुनते-सुनते बाणासुर के आश्वासनार्थ आकाशवाणी हुई।

आकाशवाणी ने कहा – महाबली बाण! तुम बलि के पुत्र हो, अतः थोड़ा विचार तो करो। परम बुद्धिमान शिवभक्त! तुम्हारे लिये क्रोध करना उचित नहीं है। शिव समस्त प्राणियों के ईश्वर, कर्मो के साक्षी और परमेश्वर हैं। यह सारा चराचर जगत् उन्हीं के अधीन है। वे ही सदा रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण का आश्रय लेकर ब्रह्मा, विष्णु और रुद्ररूप से लोकों की सृष्टि, भरण-पोषण और संहार करते हैं। वे सर्वान्तर्यामी, सर्वेश्वर, सबके प्रेरक, सर्वश्रेष्ठ, विकाररहित, अविनाशी, नित्य और मायाधीश होनेपर भी निर्गुण हैं। बलि के श्रेष्ठ पुत्र! उनकी इच्छा से निर्बल को भी बलवान् समझना चाहिये। महामते! मन में यों विचार कर स्वस्थ हो जाओ। नाना प्रकार की लीलाओं के रचने में निपुण भक्तवत्सल भगवान् शंकर गर्व को मिटा देने वाले हैं। वे इस समय तुम्हारे गर्व को चूर कर देंगे।

अनिरुद्ध ने कहा – शरणागतवत्सले! आप यश प्रदान करने वाली हैं, आपका रोष बड़ा उग्र होता है। देवि! मैं नागपाश से बँधा हुआ हूँ और नागों की विषज्वाला से संतप्त हो रहा हूँ; अतः शीघ्र पधारिये और मेरी रक्षा कीजिये।

सनत्कुमारजी कहते हैं – मुनीश्वर! जब अनिरुद्ध ने पिसे हुए काले कोयले के समान कृष्णवर्णवाली काली को इस प्रकार संतुष्ट किया, तब ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी की महारात्रि में वहाँ प्रकट हुई। उन्होंने उन सर्परूपी भयानक बाणों को भस्मसात् करके अपने बलिष्ठ मुक्कों के आघात से उस नाग-पंजर को विदीर्ण कर दिया। इस प्रकार दुर्गा ने अनिरुद्ध को बन्धनमुक्त करके उन्हें पुनः अन्तःपुर में पहुँचा दिया और स्वयं वहीं अन्तर्धान हो गयीं। इस प्रकार शिव की शक्तिस्वरूपा देवी की कृपा से अनिरुद्ध कष्ट से छुट गये, उनकी सारी व्यथा मिट गयी और वे सुखी हो गये। तदनन्तर प्रद्युम्ननन्दन अनिरुद्ध शिवशक्ति के प्रताप से विजयी हो अपनी प्रिया बाणतनया को पाकर परम हर्षित हुए और अपनी प्रियतमा उस ऊषा के साथ पूर्ववत् सुखपूर्वक विहार करने लगे। इधर पौत्र अनिरुद्ध के अदृश्य हो जाने तथा नारदजी के मुख से उसके बाणासुर के द्वारा नागपाश से बाँधे जाने का समाचार सुनकर बारह अक्षौहिणी सेना के साथ प्रद्युम्न आदि वीरों को साथ ले भगवान् श्रीकृष्ण ने शोणितपुर पर चढ़ाई कर दी। उधर भगवान् श्रीरुद्र भी अपने भक्त के पक्ष में सज-धजकर आ डटे। फिर तो श्रीकृष्ण और श्रीशिव का बड़ा भयानक युद्ध हुआ। दोनों ओर से ज्वर छोड़े गये। अन्त में श्रीकृष्ण ने स्वयं श्रीरुद के पास आकर उनका स्तवन करके कहा – 'सर्वव्यापी शंकर! आप गुणों से निर्लिप्त होकर भी गुणों से ही गुणों को प्रकाशित करते हैं। गिरिशायी भूमन्! आप स्वप्रकाश हैं। जिनकी बुद्धि आपकी माया से मोहित हो गयी है, वे स्त्री, पुत्र, गृह आदि विषयों में आसक्त होकर दुःखसागर में डूबते-उतराते हैं। जो अजितेन्द्रिय पुरुष प्रारब्धवश इस मनुष्य-जन्म को पाकर भी आपके चरणों में प्रेम नहीं करता, वह शोचनीय तथा आत्मवंचक है। भगवन्! आप गर्वहारी हैं, आपने ही तो इस गर्वीले बाण को शाप दिया था; अतः आपकी ही आज्ञा से मैं बाणासुर की भुजाओं का छेदन करने के लिये यहाँ आया हूँ। महादेव! आप इस युद्ध से निवृत्त हो जाइये। प्रभो! मुझे बाण की भुजाओं को काटने के लिए आज्ञा प्रदान कीजिये, जिससे आपका शाप व्यर्थ न हो।'

महेश्वर ने कहा – तात! आपने ठीक ही कहा है कि मैंने ही इस दैत्यराज को शाप दिया है और मेरी ही आज्ञा से आप बाणासुर की भुजाएँ काटने के लिये यहाँ पधारे हैं; किन्तु रमानाथ! हरे! क्या करूँ, मैं तो सदा भक्तों के ही अदीन रहता हूँ। ऐसी दशा में वीर! मेरे देखते बाण की भुजाएँ कैसे काटी जा सकती हैं? इसलिये मेरी आज्ञा से आप पहले जृम्भणास्त्र द्वारा मुझे जृम्भित कर दीजिये, तत्पश्चात् अपना अभीष्ट कार्य सम्पन्न कीजिये और सुखी होइये।

सनत्कुमारजी कहते हैं – मुनीश्वर! शंकरजी के यों कहने पर शार्ङगपाणि श्रीहरि को महान् विस्मय हुआ। वे अपने युद्ध-स्थान पर आकर परम आनन्दित हुए। व्यासजी! तदनन्तर नाना प्रकार के अस्त्रों के संचालन में निपुण श्रीहरि ने तुरंत ही अपने धनुष पर जृम्भणास्त्र का संधान करके उसे पिनाकपाणि शंकर पर छोड़ दिया। इस प्रकार श्रीकृष्ण जृम्भणास्त्र द्वारा जृम्भित हुए शंकर को मोह में डालकर खड्ग, गदा और ऋष्टि आदि से बाण की सेना का संहार करने लगे।

(अध्याय ५१ - ५४)