श्रीकृष्ण द्वारा बाण की भुजाओं का काटा जाना, सिर काटने के लिये उद्यत हुए श्रीकृष्ण को शिव का रोकना और उन्हें समझाना, श्रीकृष्ण का परिवार समेत द्वारका को लौट जाना, बाण का ताण्डव नृत्य द्वारा शिव को प्रसन्न करना, शिव द्वारा उसे अन्यान्य वरदानों के साथ महाकालत्व की प्राप्ति
सनत्कुमारजी कहते हैं – महाप्राज्ञ व्यासजी! लोकलीला का अनुसरण करने वाले श्रीकृष्ण और शंकर की उस परम अद्भुत कथा को श्रवण करो। तात! जब भगवान् रूद्र लीलावश पुत्रों तथा गणों सहित सो गये, तब दैत्यराज बाण श्रीकृष्ण के साथ युद्ध करने के लिये प्रस्थित हुआ। उस समय कुम्भाण्ड उसके अश्वों की बागडोर सँभाले हुए था और वह नाना प्रकार के शस्त्रास्त्रों से सज्जित था। फिर वह महाबली बलिपुत्र भीषण युद्ध करने लगा। इस प्रकार उन दोनों में चिरकाल तक बड़ा घोर संग्राम होता रहा, क्योंकि विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण शिवरूप ही थे और उधर बलवान् बाणासुर उत्तम शिवभक्त था। मुनीश्वर! तदनन्तर वीर्यवान् श्रीकृष्ण, जिन्हें शिव की आज्ञा से बल प्राप्त हो चूका था, चिरकाल तक बाण के साथ यों युद्ध करके अत्यन्त कुपित हो उठे। तब शत्रुवीरों का संहार करने वाले भगवान् श्रीकृष्ण ने शम्भू के आदेश से शीघ्र ही सुदर्शन चक्र द्वारा बाण की बहुत-सी भुजाओं को काट डाला। अन्त में उसकी अत्यन्त सुन्दर चार भुजाएँ ही अवशेष रह गयीं और शंकर की कृपा से शीघ्र ही उसकी व्यथा भी मिट गयी। जब बाण की स्मृति लुप्त हो गयी और वीरभाव को प्राप्त हुए श्रीकृष्ण उसका सिर काट लेने के लिये उद्यत हुए, तब शंकरजी मोहनिद्रा को त्याग कर उठ खड़े हुए और बोले।
रूद्र ने कहा – देवकीनन्दन! आप तो सदा से मेरी आज्ञा का पालन करते आये हैं। भगवन्! मैंने पहले आपको जिस काम के लिये आज्ञा दी थी, वह तो आपने पूरा कर दिया। अब बाण का शिरच्छेदन मत कीजिये और सुदर्शन चक्र को लौटा लीजिये। मेरी आज्ञा से यह चक्र सदा मेरे भक्तों पर अमोघ रहा है। गोविन्द! मैंने पहले ही आपको युद्ध में अनिवार्य चक्र और जय प्रदान की थी, अब आप इस युद्ध से निवृत्त हो जाइये। लक्ष्मीश! पूर्वकाल में भी तो अपने मेरी आज्ञा के बिना दधीच, वीरवर रावण और तारकाक्ष आदि के पुरों पर चक्र का प्रयोग नहीं किया था। जनार्दन! आप तो योगीश्वर, साक्षात् परमात्मा और सम्पूर्ण प्राणियों के हित में रत रहनेवाले हैं। आप स्वयं ही अपने मन से विचार कीजिये। मैंने इसे वर दे रखा है कि तुझे मृत्यु का भय नहीं होगा। मेरा वह वचन सदा सत्य होना चाहिये। मैं आप पर परम प्रसन्न हूँ। हरे! बहुत दिन पूर्व यह गर्व से भरकर उन्मत्त हो उठा और अपने-आपको भूल गया था। तब अपनी भुजाएँ खुजलाता हुआ यह मेरे पास पहुँचा और बोला – 'मेरे साथ युद्ध कीजिये।' तब मैंने इसे शाप देते हुए कहा – 'थोड़े ही समय में तेरी भुजाओं का छेदन करनेवाला आयेगा। तब तेरा सारा गर्व गल जायगा।' मेरी ही आज्ञा से तेरी भुजाओं को काटनेवाले ये श्रीहरि आये हैं।' अब आप युद्ध बंद कर दीजिये और वर-वधूको साथ ले अपने घर को लौट जाइये।' यों कहकर महेश्वर ने उन दोनों में मित्रता करा दी और उनकी आज्ञा ले वे पुत्रों और गणों के साथ अपने निवास स्थान को चले गये।
सनत्कुमारजी कहते हैं – मुने! शम्भु का कथन सुनकर अक्षत शरीरवाले श्रीकृष्ण ने सुदर्शन को लौटा और विजयश्री से सुशोभित हो वे बाणासुर के अन्तःपुर में पधारे। वहाँ उन्होंने ऊषा सहित अनिरुद्ध को आश्वासन दिया और बाण द्वारा दिये गये अनेक प्रकार के रत्नसमूहों को ग्रहण किया। ऊषा की सखी परम योगिनी चित्रलेखा को पाकर तो श्रीकृष्ण को महान् हर्ष हुआ। इस प्रकार शिव के आदेशानुसार जब उनका सारा कार्य पूर्ण हो गया, तब वे श्रीहरि हृदय से शंकर को प्रणाम कर और बलिपुत्र बाणासुर की आज्ञा ले परिवार समेत अपनी पूरी को लौट गये। द्वारका में पहुँचकर उन्होंने गरुड को विदा कर दिया। फिर हर्षपूर्वक मित्रों से मिले और स्वेच्छानुसार आचरण करने लगे।
इधर नन्दीश्वर ने बाणासुर को समझाकर यह कहा – 'भक्तशार्दुल! तुम बारंबार शिवजी का स्मरण करो। वे भक्तों पर अनुकम्पा करनेवाले हैं, अतः उन आदिगुरू शंकर में मन समाहित करके नित्य उनका महोत्सव करो।' सब द्वेषरहित हुआ महामनस्वी बाण नन्दी के कहने से धैर्य धारण करके तुंरत ही शिवस्थान को गया। वहाँ पहुँचकर उसने नाना प्रकार के स्तोत्रों द्वारा शिवजी की स्तुति की और उन्हें प्रणाम किया। फिर वह पादों से ठुमकी लगाते हुए और हाथों को घुमाते हुए नाना प्रकार के आलीढ और प्रत्यालीढ आदि प्रमुख स्थानकों द्वारा सुशोभित नृत्यों में प्रधान ताण्डवनृत्य करने लगा। उस समय वह हजारों प्रकार से मुख द्वारा बाजा बजा रहा था और बीच-बीच में भौहों को मटकाकर तथा सिर को कँपाकर सहस्त्रों प्रकार के भाव भी प्रकट करता जाता था। इस प्रकार नृत्य में मस्त हुए महाभक्त बाणासुर ने महान् नृत्य करके नतमस्तक हो त्रिशूलधारी चन्द्रशेखर भगवान् रूद्र को प्रसन्न कर लिया। तब नाच-गान के प्रेमी भक्तवत्सल भगवान् हर हर्षित होकर बाण से बोले।
रूद्र ने कहा – बलिपुत्र प्यारे बाण! तेरे नृत्य से मैं संतुष्ट हो गया हूँ, अतः दैत्येन्द्र! तेरे मन में जो अभिलाषा हो, उसके अनुरूप वर माँग ले।
सनत्कुमारजी कहते है – मुने! शम्भु की बात सुनकर दैत्यराज बाण ने इस इस प्रकार वर माँगा – 'मेरे घाव भर जायँ, बाहुयुद्ध की क्षमता बनी रहे, मुझे अक्षय गणनायकत्व प्राप्त हो, शोणितपुर में ऊषापुत्र अर्थात् मेरे दौहित्र का राज्य हो, देवताओं से तथा विशेष करके विष्णु से मेरा वैरभाव मिट जाय, मुझमें रजोगुण और तमोगुण से युक्त दूषित दैत्यभाव का पुनः उदय न हो, मुझमें सदा निर्विकार शम्भुभक्ति बनी रहे और शिव-भक्तों पर मेरा स्नेह और समस्त प्राणियों पर दयाभाव रहे।' यों शम्भु से वरदान माँगकर बलिपुत्र महासुर बाण अंजलि बाँधे रूद्र की स्तुति करने लगा। उस समय उसके नेत्रों में प्रेम के आँसू छलक आये थे। तदनन्तर जिसके सारे अंग प्रेम से प्रफुल्लित हो उठे थे, वह बलिनन्दन बाणासुर महेश्वर को प्रणाम करके मौन हो गया। अपने भक्त बाण की प्रार्थना सुनकर भगवान् शंकर 'तुझे सब कुछ प्राप्त हो जायगा' यों कहकर वहीं अन्तर्धान हो गये। तब शम्भु की कृपा से महाकालत्व को प्राप्त हुआ रूद्र का अनुचर बाण परमानन्द में निमग्न हो गया। व्यासजी! इस प्रकार मैंने सम्पूर्ण भुवनों में नित्य क्रीडा करने वाले समस्त गुरुजनों के भी सद्गुरु शूलपाणि भगवान् शंकर का बाणविषयक चरित, जो परमोत्तम है, कर्णप्रिय मधुर वचनों द्वारा तुमसे वर्णन कर दिया।
(अध्याय ५५ - ५६)