दुन्दुभिनिर्ह्लाद नामक दैत्य का व्याघ्र रूप से शिवभक्त पर आक्रमण करने का विचार और शिव द्वारा उसका वध

सनत्कुमारजी कहते है – व्यासजी! अब मैं चन्द्रमौलि के उस चरित्र का वर्णन करूँगा, जिसमें शंकरजी ने दुन्दुभिनिर्ह्लाद नामक दैत्य को मारा था। तुम सावधान होकर श्रवण करो। दितिपुत्र महाबली हिरण्याक्ष के विष्णु द्वारा मारे जाने पर दिति को बहुत दुःख हुआ। तब देवशत्रु दुन्दुभिनिर्ह्लाद ने उसको आश्वासन देकर यह निश्चय किया कि 'देवताओं के बल ब्राह्मण हैं। ब्राह्मण नष्ट हो जायँगे तो यज्ञ नहीं होंगे, यज्ञ न होने पर देवता आहार न पाने से निर्बल हो जायँगे। तब मैं उनपर सहज ही विजय पा लूँगा।' यों विचार कर वह ब्राह्मणों को मारने लगा। ब्राह्मणों का प्रधान स्थान वाराणसी है, यह सोचकर वह काशी पहुँचा और वन में वनचर बनकर समिधा लेते हुए, जल में जलचर बनकर स्नान करते हुए और रात में व्याघ्र बनकर सोते हुए ब्राह्मणों को खाने लगा।

एक बार शिवरात्रि के अवसर पर एक भक्त अपनी पर्णशाला में देवाधिदेव शंकर का पूजन करके ध्यानस्थ बैठा था। बलाभिमानी दैत्यराज दुन्दुभिनिर्ह्लाद ने व्याघ्र का रूप धारण करके उसे खा जाने का विचार किया; परंतु यह भक्त दृढ़चित्त से शिवदर्शन की लालसा लेकर ध्यान में तल्लीन हो रहा था, इसके लिये उसने पहले से ही मन्त्ररूपी अस्त्र का विन्यास कर लिया था। इस कारण वह दैत्य उस पर आक्रमण करने में समर्थ न हो सका। इधर सर्वव्यापी भगवान् शम्भु को उस दुष्ट रूप वाले दैत्य के अभिप्राय का पता लग गया। तब शंकर ने उसे मार डालने का विचार किया। इतने में, ज्यों ही उस दैत्य ने व्याघ्र रूप से उस भक्त को अपना ग्रास बनाना चाहा, त्यों ही जगत् की रक्षा के लिये मणिस्वरूप तथा भक्तरक्षण में कुशल बुद्धिवाले त्रिलोचन भगवान् शंकर वहाँ प्रकट हो गये और उसे बगल में दबोचकर उसके सिर पर वज्र से भी कठोर घूँसे से प्रहार किया। उस मुष्टि-प्रहार से तथा काँख में दबोचकर से वह व्याघ्र अत्यन्त व्यथित हो गया और अपनी दहाड़ से पृथ्वी तथा आकाश को कँपाता हुआ मृत्यु का ग्रास बन गया। उस भयंकर शब्द को सुनकर तपस्यियों का हृदय काँप उठा। वे रात में ही उस शब्द का अनुसरण करते हुए उस स्थान पर आ पहुँचे। वहाँ परमेश्वर शिव को बगल में उस पापी को दबाये हुए देखकर सब लोग उनके चरणों में पड़ गये और जब-जयकार करते हुए उनकी स्तुति करने लगे।

तदनन्तर महेश्वर ने कहा – जो मनुष्य यहाँ आकर श्रद्धापूर्वक मेरे इस रूप का दर्शन करेगा, निस्संदेह मैं उसके सारे उपद्रवों को नष्ट कर दूँगा। जो मानव मेरे इस चरित्र को सुनकर और हृदय में मेरे इस लिंग का स्मरण करके संग्राम में प्रवेश करेगा, उसे अवश्य विजय की प्राप्ति होगी।

मुने! जो मनुष्य व्याघ्रेश्वर के प्राकट्य से सम्बन्ध रखने वाले इस परमोत्तम चरित्र को सुनेगा अथवा दूसरे को सुनायेगा, पढ़ेगा या पढ़ायेगा, वह अपनी समस्त मनोवांछित वस्तुओं को प्राप्त कर लेगा और अन्त में सम्पूर्ण दुःखों से रहित होकर मोक्ष का भागी होगा। शिवलीला-सम्बन्धी अमृतमय अक्षरों से परिपूर्ण यह अनुपम आख्यान स्वर्ग, यश और आयु का देनेवाला तथा पुत्र-पौत्र की वृद्धी करने वाला है।

(अध्याय ५८)