विदल और उत्पल नामक दैत्यों का पार्वती पर मोहित होना और पार्वती का कन्दुक-प्रहार द्वारा उनका काम तमाम करना, कन्दुकेश्वरकी स्थापना और उनकी महिमा
सनत्कुमारजी कहते है – व्यासजी! जिस प्रकार परमेश्वर शिव ने संकेत से दैत्य को लक्ष्य कराकर अपनी प्रिया द्वारा उसका वध कराया था, उनके उस चरित्र को तुम परम प्रेमपूर्वक श्रवण करो। विदल और उत्पल नामक दो महादैत्य थे। उन्होंने ब्रह्माजी से किसी पुरुष के हाथ से न मरने का वर प्राप्त करके सब देवताओं को जीत लिया था। तब देवताओं ने ब्रह्माजी के पास जाकर अपना दुःख सुनाया। उनकी कष्ट-कहानी सुनकर ब्रह्मा ने उनसे कहा – 'तुम लोग शिवा सहित शिव का आदरपूर्वक स्मरण करके धैर्य धारण करो। वे दोनों दैत्य निश्चय ही देवी के हाथों मारे जायँगे। शिवा सहित शिव परमेश्वर, कल्याणकर्ता और भक्तवत्सल हैं। वे शीघ्र ही तुम लोगों का कल्याण करेंगे।'
सनत्कुमारजी कहते हैं – मुने! देवों से यों कहकर ब्रह्माजी शिव का स्मरण करते हुए मौन हो गये। तब देवगण भी आनन्दित होकर अपने-अपने धाम को लौट गये। एक समय नारदजी के द्वारा पार्वती के सौन्दर्य की प्रशंसा सुनकर वे दोनों दैत्य उनका अपहरण करने की बात सोचने लगे और पार्वतीजी जहाँ गेंद उछाल रही थीं, वहीं वे जाकर आकाश में विचरने लगे। वे दोनों घोर दुराचारी थे। उनका मन अत्यन्त चंचल हो रहा था। वे गणों का रूप धारण करके अम्बिका के निकट आये। तब दुष्टों का संहार करने वाले शिव ने अवहेलनापूर्वक उनकी ओर देखकर उनके नेत्रों से प्रकट हुई चंचलता के कारण तुरंत उन्हें पहचान लिया। फिर तो सर्वस्वरूपी महादेव ने दुर्गतिनाशिनी दुर्गा को कटाक्ष द्वारा सूचित कर दिया कि ये दोनों दैत्य हैं, गण नहीं। तात! तब पार्वती अपने स्वामी महाकौतु की परमेश्वर शंकर के उस नेत्रसंकेत को समझ गयीं। तदनन्तर सर्वज्ञ शिव की अर्धांगिनी पार्वती ने उस संकेत को समझकर उसी गेंद से एक साथ ही उन दोनों पर चोट की। तब महादेवि की गेंद से आहत होकर वे दोनों महाबली दुष्ट दैत्य चक्कर काटते हुए उसी प्रकार भूतल पर गिर पड़े, जैसे वायु के झोंके से चंचल होकर दो पके हुए ताड़ के फल अपनी डंठल से टूटकर गिर पड़ते हैं अथवा जैसे वज्र के आघात से महागिरी के दो शिखर ढह जाते हैं। इस प्रकार अकार्य करने के लिये उद्यत उन दोनों महादैत्यों को धराशायी करके वह गेंद लिंगरूप में परिणत हो गया। समस्त दुष्टों का निवारण करने वाला वह लिंग कन्दुकेश्वर के नाम से विख्यात हुआ और जेष्ठेश्वर के समीप स्थित हो गया। काशी में स्थित कन्दुकेश्वर लिंग दुष्टों का विनाशक, भोग-मोक्ष का प्रदाता और सर्वदा सत्पुरुषों की समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाला है। जो मनुष्य इस अनुपम आख्यान को हर्षपूर्वक सुनता, सुनाता अथवा पढ़ता है, उसे भय का दुःख कहाँ। वह इस लोक में नाना प्रकार के सम्पूर्ण उत्तमोत्तम सुखों को भोगकर अन्त में देवदुर्लभ दिव्य गति को प्राप्त कर लेता है।
ब्रह्माजी कहते हैं – मुनिसत्तम! मैंने तुमसे रूद्रसंहिता के अन्तर्गत इस युद्धखण्ड का वर्णन कर दिया। यह खण्ड सम्पूर्ण मनोरथों का फल प्रदान करने वाला है। इस प्रकार मैंने पूरी-की-पूरी रूद्रसंहिता का वर्णन कर दिया। यह शिवजी को सदा परम प्रिय है और भुक्ति-मुक्तिरूप फल प्रदान करने वाली है।
सूतजी कहते हैं – इस प्रकार शिवानुगामी ब्रह्मपुत्र नारद शंकर के उत्तम यश को तथा शिव-शतनाम को सुनकर कृतार्थ हो गये। यों मैंने सम्पूर्ण चरित्रों में प्रधान तथा कल्याणकारक यह ब्रह्मा और नारद का संवाद पूर्णरूप से कह दिया।
(अध्याय ५९)