शिवजी के सद्योजात, वामदेव, तत्पुरुष, अघोर और ईशान नामक पाँच अवतारों का वर्णन
वन्दे महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तंम्।
गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराजसमुद्भवं शंकरमादिदेवम्।।
जो परमानंदमय हैं, जिनकी लीलाएँ अनन्त हैं, जो ईश्वरों के भी ईश्वर, सर्वव्यापक, महान्, गौरी के प्रियतम तथा स्वामिकार्तिक और विघ्नराज गणेश को उत्पन्न करने वाले हैं, उन आदिदेव शंकर की मैं वन्दना करता हूँ।
शौनकजी ने कहा – महाभाग सूतजी! आप तो पुराणकर्ता व्यासजी के शिष्य तथा ज्ञान और दया की निधि हैं, अतः अब आप शम्भु के उन अवतारों का वर्णन कीजिये, जिनके द्वारा उन्होंने सत्पुरुषों का कल्याण किया है।
सूतजी बोले – शौनकजी! आप तो मननशील व्यक्ति हैं, अतः अब मैं आपसे शिवजी के उन अवतारों का वर्णन करता हूँ, आप अपनी इन्दिर्यों को वश में करके सद्भक्तिपूर्वक मन लगाकर श्रवण कीजिये। मुने! पूर्वकाल में सनत्कुमारजी ने नन्दीश्वर से, जो सत्पुरुषों की गति तथा शिवस्वरूप ही हैं, यही प्रश्न किया था; उस समय नन्दीश्वर ने शिवजी का स्मरण करते हुए उन्हें यों उत्तर दिया था।
नन्दीश्वर ने कहा – मुने! यों तो सर्वव्यापी सर्वेश्वर शिव के कल्प-कल्पान्तरों में असंख्य अवतार हुए हैं, तथापि इस समय मैं अपनी बुद्धि के अनुसार उनमें से कुछ का वर्णन करता हूँ। उन्नीसवाँ कल्प, जो श्वेतलोहित नाम से विख्यात है, उसमें शिवजी का 'सद्योजात' नामक अवतार हुआ था। वह उनका प्रथम अवतार कहलाता हैं। उस कल्प में जब ब्रह्मा परब्रह्म का ध्यान कर रहे थे, उसी समय एक श्वेत और लोहित वर्णवाला शिखाधारी कुमार उत्पन्न हुआ। उसे देखकर ब्रह्मा ने मन-ही-मन विचार किया। जब उन्हें यह ज्ञात हो गया कि यह पुरुष ब्रह्मरूपी परमेश्वर है, तब उन्होंने अंजलि बाँधकर उसकी वन्दना की। फिर जब भुवनेश्वर ब्रह्मा को पता लग गया कि यह सद्योजात कुमार शिव ही हैं, तब उन्हें महान् हर्ष हुआ। वे अपनी सद्बुद्धि से बारंबार उस परब्रह्म का चिन्तन करने लगे। ब्रह्माजी ध्यान कर ही रहे थे कि वहाँ श्वेत वर्णवाले चार यशस्वी कुमार प्रकट हुए। वे परमोत्कृष्ट ज्ञानसम्पन्न तथा परब्रह्म के स्वरूप थे। उनके नाम थे – सुनन्द, नन्दन, विश्वनन्द और उपनन्दन। ये सब-के-सब महात्मा थे और ब्रह्माजी के शिष्य हुए। इनसे वह ब्रह्मलोक व्याप्त हो गया। तदनन्तर सद्योजात रूप से प्रकट हुए परमेश्वर शिव ने परम प्रसन्न होकर ब्रह्मा को ज्ञान तथा सृष्टिरचना की शक्ति प्रदान की। (यह सद्योजात नामक पहला अवतार हुआ।)
तदनन्तर 'रक्त' नाम से प्रसिद्ध बीसवाँ कल्प आया। उस कल्प में ब्रह्माजी ने रक्तवर्ण का शरीर धारण किया था। जिस समय ब्रह्माजी पुत्र की कामना से ध्यान कर रहे थे, उसी समय उनसे एक पुत्र प्रकट हुआ। उसके शरीर पर लाल रंग की माला और लाल ही वस्त्र शोभा पा रहे थे। उसके नेत्र भी लाल थे और वह आभूषण भी लाल रंग का ही धारण किये हुए था। उस महान् आत्मबल से सम्पन्न कुमार को देखकर ब्रह्माजी ध्यानस्थ हो गये। जब उन्हें ज्ञात हो गया कि ये वामदेव शिव हैं, तब उन्होंने हाथ जोड़कर उस कुमार को प्रणाम किया। तत्पश्चात् उनके विरजा, विवाह, विशोक और विश्वभावन नाम के चार पुत्र उत्पन्न हुए, जो सभी लाल वस्त्र धारण किये हुए थे। तब वामदेवरूपधारी परमेश्वर शम्भु ने परम प्रसन्न होकर ब्रह्मा को ज्ञान तथा सृष्टिरचना की शक्ति प्रदान की। (यह 'वामदेव' नामक दूसरा अवतार हुआ।)
इसके बाद इक्कीसवाँ कल्प आया, जो 'पीतवासा' नाम से कहा जाता था। उस कल्प में महाभाग ब्रह्मा पीतवस्त्रधारी हुए। जब वे पुत्र की कामना से ध्यान कर रहे थे, उस समय उनसे एक महातेजस्वी कुमार उत्पन्न हुआ। उस प्रौढ़ कुमार की भुजाएँ विशाल थीं और उसके शरीर पर पीताम्बर झलमला रहा था। उस ध्यानमग्न बालक को देखकर ब्रह्माजी ने अपनी बुद्धि के बल से उसे 'तत्पुरुष' शिव समझा। तब उन्होंने ध्यानयुक्त चित्त से सम्पूर्ण लोकों द्वारा नमस्कृत महादेवी शांकरी गायत्री (तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि) का जप करके उन्हें नमस्कार किया, इससे महादेवजी प्रसन्न हो गये। तत्पश्चात् उनके पार्श्वभाग से पीतवस्त्रधारी दिव्यकुमार प्रकट हुए, वे सब-के-सब योगमार्ग के प्रवर्तक हुए। (यह 'तत्पुरुष' नामक तीसरा अवतार हुआ।)
तत्पश्चात् स्वयम्भू ब्रह्मा के उस पीतवर्ण नामक कल्प के बीत जाने पर पुनः दूसरा कल्प प्रवृत्त हुआ। उसका नाम 'शिव' था। जब एकार्णव की दशा में एक सहस्र दिव्य वर्ष व्यतीत हो गये, तब ब्रह्माजी प्रजाओं की सृष्टि करने की इच्छा से दुःखी हो विचार करने लगे। उस समय उन महातेजस्वी ब्रह्मा के समक्ष एक कुमार उत्पन्न हुआ। उस महापराक्रमी बालक के शरीर का रंग काला था। वह अपने तेज से उद्दीप्त हो रहा था तथा काला वस्त्र, काली पगड़ी और काला यज्ञोपवीत धारण किये हुए था। उसका मुकुट भी काला था और स्नान के पश्चात् अनुलेपन – चंदन भी काले रंग का ही था। उन भयंकर पराक्रमी, महामनस्वी, देवदेवेश्वर, अलौकिक, कृष्णपिंगलवर्णवाले अघोर को देखकर ब्रह्माजी ने उनकी वन्दना की। तत्पश्चात् ब्रह्माजी उन भक्तवत्सल अविनाशी अघोर को ब्रह्म रूप समझकर इष्ट वचनों द्वारा उनकी स्तुति करने लगे। तब उनके पार्श्वभाग से कृष्णवर्णवाले तथा काले रंग का अनुलेपन धारण किये हुए चार महामनस्वी कुमार उत्पन्न हुए। वे सब-के-सब परम तेजस्वी, अव्यक्तनामा तथा शिवसरीखे रूप वाले थे। उनके नाम थे – कृष्ण, कृष्णशिख, कृष्णास्य और कृष्णकंठधृक्। इस प्रकार उत्पन्न होकर इन महात्माओं ने ब्रह्माजी की सृष्टिरचना के निमित्त महान् अद्भुत 'घोर' नामक योग का प्रचार किया। (यह 'अघोर' नामक चौथा अवतार हुआ।)
मुनीश्वरो! तदनन्तर ब्रह्मा का दूसरा कल्प प्रारम्भ हुआ। वह परम अद्भुत था और 'विश्वरूप' नाम से विख्यात था। उस कल्प में जब ब्रह्माजी पुत्र की कामना से मन-ही-मन शिवजी का ध्यान कर रहे थे, उसी समय महान् सिंहनाद करने वाली विश्वरूपा सरस्वती प्रकट हुईं तथा उसी प्रकार परमेश्वर भगवान् ईशान प्रादुर्भूत हुए, जिनका वर्ण शुद्ध स्फटिक के समान उज्ज्वल था और जो समस्त आभूषणों से विभूषित थे। उन अजन्मा, सर्वव्यापी, सर्वान्तर्यामी, सब कुछ प्रदान करने वाले, सर्वस्वरूप, सुन्दर रूप वाले तथा अरूप ईशान को देखकर ब्रह्माजी ने उन्हें प्रणाम किया। तब शक्ति सहित विभु ईशान ने भी ब्रह्मा को सन्मार्ग का उपदेश देकर चार सुन्दर बालकों की कल्पना की। उन उत्पन्न हुए शिशुओं का नाम था – जटी, मुण्डी, शिखण्डी और अर्धमुण्ड। वे योगानुसार सद्धर्म का पालन करके योगगति को प्राप्त हो गये। (यह 'ईशान' नामक पाँचवाँ अवतार हुआ।)
सर्वज्ञ सनत्कुमारजी! इस प्रकार मैंने जगत् की हितकामना से सद्योजात आदि अवतारों का प्राकट्य संक्षेप से वर्णन किया। उनका वह सारा लोकहितकारी व्यवहार याथातथ्यरूप से ब्रह्माण्ड में वर्तमान है। महेश्वर की ईशान, पुरुष, घोर, वामदेव और ब्रह्म – ये पाँच मूर्तियाँ विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। इनमें ईशान, जो शिवस्वरूप तथा सबसे बड़ा है, पहला कहा जाता है। वह साक्षात् प्रकृति के भोक्ता क्षेत्रज्ञ में निवास करता है। शिवजी का दूसरा स्वरूप तत्पुरुष नाम से ख्यात है। वह गुणों के आश्रयरूप तथा भोग्य सर्वज्ञ में अधिष्ठित है। पिनाकधारी शिव का जो अघोर नामक तीसरा स्वरूप है, वह धर्म के लिये अंगोंसहित बुद्धितत्त्व का विस्तार करके अंदर विराजमान रहता है। वामदेव नामवाला शंकर का चौथा स्वरूप अहंकार का अधिष्ठान है। वह सदा अनेकों प्रकार का कार्य का करता रहता है। विचारशील बुद्धिमानों का कथन है कि शंकर का ईशानसंज्ञक स्वरूप सदा कर्ण, वाणी और सर्वव्यापी आकाश का अधीश्वर है तथा महेश्वर का पुरुष नामक रूप त्वक्, पाणि और स्पर्शगुणविशिष्ट वायु का स्वामी है। मनीषीगण अघोर नाम वाले रूप को शरीर, रस, रूप और अग्नि का अधिष्ठान बतलाते हैं। शंकरजी का वामदेव संज्ञक स्वरूप रसना, पायु, रस और जल का स्वामी कहा जाता है। प्राण, उपस्थ, गन्ध और पृथ्वी का ईश्वर शिवजी का सद्योजात नामक रूप बताया जाता है। कल्याणकामी मनुष्यों को शंकरजी के इन स्वरूपों की सदा प्रयत्नपूर्वक वन्दना करनी चाहिये; क्योंकि ये श्रेयःप्राप्ति में एकमात्र हेतु हैं। जो मनुष्य इन सद्योजात आदि अवतारों के प्राकट्य को पढ़ता अथवा सुनता है, वह जगत् में समस्त काम्य भोगों का उपभोग करके अन्त में परम गति को प्राप्त होता है।
(अध्याय १)