शिवजी की अष्टमूर्तियों का तथा अर्धनारीनर रूप का सविस्तर वर्णन

नन्दीश्वरजी कहते हैं – ऐश्वर्यशाली मुने! अब तुम महेश्वर के उन श्रेष्ठ अवतारों का वर्णन श्रवण करो, जो लोक में सब के सम्पूर्ण कार्यों को पूर्ण करनेवाले अतएव सुखदाता हैं। तात! यह जगत् उन परमेश्वर शम्भु की आठ मूर्तियों का स्वरूप ही है। जैसे सूत में मणियाँ पिरोयी रहती हैं, उसी तरह यह विश्व उन अष्टमूर्तियों में व्याप्त होकर स्थित है। वे प्रसिद्ध आठ मूर्तियाँ ये हैं – शर्व, भव, रुद्र, उग्र, भीम, पशुपति, ईशान और महादेव। शिवजी के इन शर्व आदि अष्टमूर्तियों द्वारा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, क्षेत्रज्ञ, सूर्य और चन्द्रमा अधिष्ठित हैं। शास्त्र का ऐसा निश्चय है कि कल्याणकर्ता महेश्वर का विश्वम्भरात्मक रूप ही चराचर विश्व को धारण किये हुए है। परमात्मा शिव का सलिलात्मक रूप जो समस्त जगत् को जीवन प्रदान करनेवाला है, 'भव' नाम से कहा जाता है। जो जगत के बाहर-भीतर वर्तमान है और स्वयं ही विश्व का भरण-पोषण करता तथा स्पन्दित होता है, उग्ररूपधारी प्रभु के उस रूप को सत्पुरुष 'उग्र' कहते हैं। महादेव का जो सब को अवकाश देनेवाला सर्वव्यापी आकाशात्मक रूप है, उसे 'भीम' कहते हैं। वह भूतवृन्द का भेदक है। जो रूप समस्त आत्माओं का अधिष्ठान, सम्पूर्ण क्षेत्रों में निवास करनेवाला और जीवों के भव-पाश का छेदक है, उसे 'पशुपति' का रूप समझना चाहिये। महेश्वर का सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करनेवाला जो सूर्य नामक रूप है, उसे 'ईशान' कहते हैं। वह द्युलोक में भ्रमण करता है। अमृतमयी रश्मियोंवाला जो चन्द्रमा सम्पूर्ण विश्व को आह्लादित करता है, शिव का वह रूप 'महादेव' नाम से पुकारा जाता है। 'आत्मा' परमात्मा शिव का आठवाँ रूप है। यह मूर्ति अन्य मूर्तियों की व्यापिका है। इसलिये सारा विश्व शिवमय है। जिस प्रकार वृक्ष के मूल को सींचने से उस की शाखाएँ पुष्पित हो जाती हैं, उसी तरह शिव का पूजन करने से शिवस्वरूप विश्व परिपुष्ट होता है। जै से इस लोक में पुत्र-पौत्र आदि को प्रसन्‍न देखकर पिता हर्षित होता है, उसी तरह विश्व को भलीभाँति हर्षित देखकर शंकर को आनन्द मिलता है। इसलिये यदि कोई किसी भी देहधारी को कष्ट देता है तो निस्संदेह मानो उसने अष्टमूर्ति शिव का ही अनिष्ट किया है। सनत्कुमारजी! इस प्रकार भगवान् शिव अपनी अष्टमूर्तियों द्वारा समस्त विश्व को अधिष्ठित करके विराजमान हैं, अतः तुम पूर्ण भक्तिभाव से उन परम कारण रुद्र का भजन करो।

प्रिय सनत्कुमारजी! अब तुम शिवजी के अनुपम अर्धनारीनर रूप का वर्णन सुनो। महाप्राज्ञ! वह रूप ब्रह्मा की कामनाओं को पूर्ण करनेवाला है। (सृष्टि के आदि में) जब सृष्टिकर्ता ब्रह्मा द्वारा रची हुई सारी प्रजाएँ विस्तार को नहीं प्राप्त हुईं, तब ब्रह्मा उस दुःख से दुःखी हो चिन्ताकुल हो गये। उसी समय यों आकाशवाणी हुई – ब्रह्मन्! अब मैथुनी सृष्टि की रचना करो।' उस व्योमवाणी को सुनकर ब्रह्मा ने मैथुनी सृष्टि उत्पन्न करने का विचार किया; परंतु इससे पहले नारियों का कुल ईशान से प्रकट ही नहीं हुआ था, इसलिये पद्मयोनि ब्रह्मा मैथुनी सृष्टि रचने में समर्थ न हो सके। तब वे यों विचार कर कि शम्भु की कृपा के बिना मैथुनी प्रजा उत्पन्न नहीं हो सकती तप करने को उद्यत हुए। उस समय ब्रह्मा पराशक्ति शिवा सहित परमेश्वर शिव का प्रेमपूर्वक हृदय में ध्यान करके घोर तप करने लगे। तदनन्तर तपोऽनुष्ठान में लगे हुए ब्रह्मा के उस तीव्र तप से थोड़े ही समय में शिवजी प्रसन्‍न हो गये। तब वे कष्टहारी शंकर पूर्णसच्चिदानन्द की कामदा मूर्ति में प्रविष्ट होकर अर्धनारीनर के रूप से ब्रह्मा के निकट प्रकट हो गये। उन देवाधिदेव शंकर को पराशक्ति शिवा के साथ आया हुआ देख ब्रह्मा ने दण्ड की भाँति भूमि पर लेटकर उन्हें प्रणाम किया और फिर वे हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे। तब विश्वकर्ता देवाधिदेव महादेव महेश्वर परम प्रसन्‍न होकर ब्रह्मा से मेघ की-सी गम्भीर वाणी में बोले।

ईश्वर ने कहा – महाभाग वत्स! मेरे प्यारे पुत्र पितामह! मुझे तुम्हारा सारा मनोरथ पूर्णतया ज्ञात हो गया है। तुमने जो इस समय प्रजाओं की वृद्धि के लिये घोर तप किया है, तुम्हारे उस तप से मैं प्रसन्‍न हो गया हूँ और तुम्हें तुम्हारा अभीष्ट प्रदान करूँगा। यों स्वभाव से ही मधुर तथा परम उदार वचन कहकर शिवजी ने अपने शरीर के अर्धभाग से शिवादेवी को पृथक् कर दिया। तब शिव से पृथक् होकर प्रकट हुई उन परमा शक्ति को देखकर ब्रह्मा विनम्रभाव से प्रणाम करके उन से प्रार्थना कर ने लगे।

ब्रह्मा ने कहा – शिवे! सृष्टि के प्रारम्भ में तुम्हारे पति देवाधिदेव परमात्मा शम्भु ने मेरी सृष्टि की थी और (मेरे द्वारा) सारी प्रजाओं की रचना की थी। शिवे! तब मैंने देवता आदि समस्त प्रजाओं की मानसिक सृष्टि की; परंतु बारंबार रचना करने पर भी उनकी वृद्धि नहीं हो रही है, अतः अब मैं स्त्री-पुरुष के समागम से उत्पन्न होने वाली सृष्टि का निर्माण करके अपनी सारी प्रजाओं की वृद्धि करना चाहता हूँ। किंतु अभी तक तुम से अक्षय नारीकुल का प्राकट्य नहीं हुआ है, इस कारण नारीकुल की सृष्टि करना मेरी शक्ति के बाहर है। चूँकि सारी शक्तियों का उद्गमस्थान तुम्हीं हो, इसलिये मैं तुम अखिलेश्वरी परमा शक्ति से प्रार्थना करता हूँ। शिवे! मैं तुम्हें नमस्कार करता हूँ, तुम मुझे नारीकुल की सृष्टि करने के लिये शक्ति प्रदान करो; क्योंकि शिवप्रिये! इसी को तुम चराचर जगत् की उत्पत्ति का कारण समझो। वरदेश्वरि! मैं तुम से एक और वर की याचना करता हूँ, जगन्मातः! कृपा करके उसे भी मुझे दीजिये। मैं तुम्हारे चरणों में नमस्कार करता हूँ। (वह वर यह है –) 'सर्वव्यापिनी जगज्जननि! तुम चराचर जगत् की वृद्धि के लिये अपने एक सर्वसमर्थ रूप से मेरे पुत्र दक्ष की पुत्री हो जाओ।' ब्रह्मा द्वारा यों याचना किये जाने पर परमेश्वरी देवी शिवा ने 'तथास्तु – ऐसा ही होगा' कहकर वह शक्ति ब्रह्मा को प्रदान कर दी। सुतरां जगन्मयी शिवशक्ति शिवादेवी ने अपनी भौंहों के मध्य-भाग से अपने ही समान प्रभावाली एक शक्ति की रचना की। उस शक्ति को देखकर देवश्रेष्ठ भगवान् शंकर, जो लीलाकारी, कष्टहारी और कृपा के सागर हैं, हँसते हुए जगदम्बिका से बोले।

शिवजी ने कहा – 'देवि! परमेष्ठी ब्रह्मा ने तपस्या द्वारा तुम्हारी आराधना की है, अतः अब तुम उनपर प्रसन्‍न हो जाओ और उनका सारा मनोरथ पूर्ण करो।' तब शिवादेवी ने परमेश्वर शिव की उस आज्ञा को सिर झुकाकर ग्रहण किया और ब्रह्मा के कथनानुसार 'दक्ष की पुत्री होना स्वीकार कर लिया। मुने! इस प्रकार शिवादेवी ब्रह्मा को अनुपम शक्ति प्रदान करके शम्भु के शरीर में प्रविष्ट हो गयीं। तत्पश्चात् भगवान् शंकर भी तुरंत ही अन्तर्धान हो गये। तभी से इस लोक में स्त्रीभाग की कल्पना हुई और मैथुनी सृष्टि चल पड़ी; इससे ब्रह्मा को महान् आनन्द प्राप्त हुआ। तात! इस प्र कार मैंने तुमसे शिवजी के महान् अनुपम अर्धनारीनरार्धरूप का वर्णन कर दिया, यह सत्पुरुषों के लिये मंगलदायक है।

(अध्याय २ - ३)