नन्दीश्वरावतार का वर्णन

यहाँ तक बयालीस अवतारों का वर्णन किया गया। अब नन्दीश्वरावतार का वर्णन किया जाता है।

सनत्कुमारजी ने पूछा – प्रभो! आप महादेव के अंश से उत्पन्न होकर पीछे शिव को कैसे प्राप्त हुए थे? वह सारा वृत्तान्त मैं सुनना चाहता हूँ, उसे वर्णन करने की कृपा करें।

नन्दीश्वर बोले – सर्वज्ञ सनत्कुमारजी! मैं जिस प्रकार महादेव के अंश से जन्म लेकर शिव को प्राप्त हुआ, उस प्रसंग का वर्णन करता हूँ; तुम सावधानीपूर्वक श्रवण करो।

शिलाद नामक एक धर्मात्मा मुनि थे। पितरों के आदेश से उन्होंने अयोनिज सुव्रत मृत्युहीन पुत्र की प्राप्ति के लिये तप करके देवेश्वर इन्द्र को प्रसन्‍न किया। परंतु देवराज इन्द्र ने ऐसा पुत्र प्रदान करने में अपने को असमर्थ बताकर सर्वेश्वर महाशक्ति सम्पन्न महादेव की आराधना करने का उपदेश दिया। तब शिलाद भगवान् महादेव को प्रसन्‍न करने के लिये तप करने लगे। उनके तप से प्रसन्‍न होकर महादेव वहाँ पधारे और महासमाधिमग्न शिलाद को थपथपाकर जगाया। तब शिलाद ने शिव का स्तवन किया और भगवान् शिव के उन्हें वर देने को प्रस्तुत होने पर उनसे कहा – 'प्रभो! मैं आपके ही समान मृत्युहीन अयोनिज पुत्र चाहता हूँ।' तब शिवजी प्रसन्‍न होकर मुनि से बोले।

शिवजी ने कहा – तपोधन विप्र! पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने, मुनियों ने तथा बड़े-बड़े देवताओं ने मेरे अवतार धारण करने के लिये तपस्या द्वारा मेरी आराधना की थी। इसलिये मुने! यद्यपि मैं सारे जगत् का पिता हूँ, फिर भी तुम मेरे पिता बनोगे और मैं तुम्हारा अयोनिज पुत्र होऊँगा तथा मेरा नाम नन्दी होगा।

नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने। यों कहकर कृपालु शंकर ने अपने चरणों में प्रणिपात करके सामने खड़े हुए शिलाद मुनि की ओर कृपा-दृष्टि से देखा और उन्हें ऐसा आदेश दे वे तुरंत ही उमा सहित वहीं अन्तर्धान हो गये। महादेवजी के चले जाने के पश्चात् महामुनि शिलाद ने अपने आश्रम में आकर ऋषियों से वह सारा वृत्तान्त कह सुनाया। कुछ समय बीत जाने के बाद जब यज्ञवेत्ताओं में श्रेष्ठ मेरे पिताजी यज्ञ करने के लिये यज्ञ क्षेत्र को जोत रहे थे, उसी समय मैं शम्भु की आज्ञा से यज्ञ के पूर्व ही उनके शरीर से उत्पन्न हो गया। उस समय मेरे शरीर की प्रभा युगान्तकालीन अग्नि के समान थी। तब सारी दिशाओं में प्रसन्‍नता छा गयी और शिलाद मुनि की भी बड़ी प्रशंसा हुई। उधर शिलाद ने भी जब मुझ बालक को प्रलयकालीन सूर्य और अग्नि के सदृश प्रभाशाली, त्रिनेत्र, चतुर्भुज, प्रकाशमान, जटामुकुटधारी, त्रिशूल आदि आयुधों से युक्त, सर्वथा रुद्ररूप में देखा, तब वे महान् आनन्द में निमग्न हो गये और मुझ प्रणम्य को नमस्कार करते हुए कहने लगे।

शिलाद बोले – सुरेश्वर! चूँकि तुमने नन्दी नाम से प्रकट होकर मुझे आनन्दित किया है, इसलिये मैं तुम आनन्दमय जगदीश्वर को नमस्कार करता हूँ।

नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! तदनन्तर जैसे निर्धन को निधि प्राप्त हो जाने से प्रसन्‍नता होती है, उसी प्रकार मेरी प्राप्ति से हर्षित होकर पिताजी ने महेश्वर की भलीभाँति वन्दना की और फिर मुझे लेकर वे शीघ्र ही अपनी पर्णशाला को चल दिये। महामुने! जब मैं शिलाद की कुटिया में पहुँच गया, तब मैंने अपने उस रूप का परित्याग क़रके मनुष्य रूप धारण कर लिया। तदनन्तर शालंकायन-नन्दन पुत्रवत्सल शिलाद ने मेरे जातकर्म आदि सभी संस्कार सम्पन्न किये। फिर पांचवें वर्ष में पिताजी ने मुझे सांगोपांग सम्पूर्ण वेदों का तथा अन्यान्य शास्त्रों का भी अध्ययन कराया। सातवाँ वर्ष पूरा होने पर शिवजी की आज्ञा से मित्र और वरुण नाम के मुनि मुझे देखने के लिये पिताजी के आश्रम पर पधारे। शिलाद मुनि ने उनकी पूरी आवभगत की। जब वे दोनों महात्मा मुनीश्वर आनन्दपूर्वक आसन पर विराज गये, तब मेरी ओर बारंबार निहार कर बोले।

मित्र और वरूण ने कहा – 'तात शिलाद! यद्यपि तुम्हारा पुत्र नन्दी सम्पूर्ण शास्त्रों के अर्थों का पारगामी विद्वान् है, तथापि इसकी आयु बहुत थोड़ी है। हमने बहुत तरह से विचार करके देखा, परंतु इसकी आयु एक वर्ष से अधिक नहीं दीखती।' उन विप्रवरों के यों कहने पर पुत्रवत्सल शिलाद नन्दी को छाती से लिपटाकर दुःखार्त हो फूट-फूटकर रोने लगे। तब पिता और पितामह को मृतक की भाँति भूमि पर पड़ा हुआ देख नन्दी शिवजी के चरणकमलों का स्मरण करके प्रसन्नतापूर्वक पूछने लगा – 'पिताजी! आपको कौन-सा ऐसा दुःख आ पड़ा है, जिसके कारण आपका शरीर काँप रहा है और आप रो रहे हैं? आपको वह दुःख कहाँ से प्राप्त हुआ है, मैं इसे ठीक-ठीक जानना चाहता हूँ।'

पिता ने कहा – बेटा! तुम्हारी अल्पायु के दुःख से मैं अत्यन्त दुःखी हो रहा हूँ। (तुम्हीं बताओ) मेरे इस कष्ट को कौन दूर कर सकता है? मैं उसकी शरण ग्रहण करूँ।

पुत्र बोला – पिताजी! मैं आपके सामने शपथ करता हूँ और यह बिलकुल सत्य बात कह रहा हूँ कि चाहे देवता, दानव, यम, काल तथा अन्यान्य प्राणी – ये सब-के-सब मिलकर मुझे मारना चाहें, तो भी मेरी बाल्यकाल में मृत्यु नहीं होगी, अतः आप दुःखी मत हों।

पिता ने पूछा – मेरे प्यारे लाल! तुमने ऐसा कौन-सा तप किया है अथवा तुम्हें कौन-सा ऐसा ज्ञान, योग या ऐश्वर्य प्राप्त है, जिसके बल पर तुम इस दारुण दुःख को नष्ट कर दोगे?

पुत्र ने कहा – तात! मैं न तो तप से मृत्यु को हटाऊँगा और न विद्या से। मैं महादेवजी के भजन से मृत्यु को जीत लूँगा, इसके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है।

नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! यों कहकर मैंने सिर झुकाकर पिताजी के चरणों में प्रणाम किया और फिर उनकी प्रदक्षिणा करके उत्तम वन की राह ली।

(अध्याय ६)