नन्दीश्वर के जन्म, वरप्राप्ति, अभिषेक और विवाह का वर्णन
नन्दिकेश्वर कहते हैं – मुने! वन में जाकर मैंने एकांत स्थान में अपना आसन लगाया और उत्तम बुद्धि का आश्रय ले मैं उग्र तप में प्रवृत्त हुआ, जो बड़े-बड़े मुनियों के लिये भी दुष्कर था। उस समय मैं नदी के पावन उत्तर तट पर सुदृढ़ रूप से ध्यान लगाकर बैठ गया और एकाग्र तथा समाहित मन से अपने हृदय-कमल के मध्य-भाग में तीन नेत्र, दस भुजा तथा पाँच मुखवाले शान्तिस्वरूप देवाधिदेव सदाशिव का ध्यान करके रूद्रमन्त्र का जप करने लगा। तब उस जप में मुझे तल्लीन देखकर चन्द्रार्धभूषण परमेश्वर महादेव प्रसन्न हो गये और उमा सहित वहाँ पधारकर प्रेमपूर्वक बोले।
शिवजी ने कहा – 'शिलादनन्दन! तुमने बड़ा उत्तम तप किया है। तुम्हारी इस तपस्या से संतुष्ट होकर मैं तुम्हें वर देने के लिये आया हूँ। तुम्हारे मन में जो अभीष्ट हो, वह माँग लो।' महादेवजी के यों कहने पर मैं सिर के बल उनके चरणों में लोट गया और फिर बुढ़ापा तथा शोक का विनाश करनेवाले परमेशान की स्तुति करने लगा। तब परम कष्टहारी वृषभध्वज परमेश्वर शम्भु ने मुझ परम भक्तिसम्पन्न नन्दी को जिसके नेत्रों में आँसू छलक आये थे और जो सिर के बल चरणों में पड़ा था, अपने दोनों हाथों से पकड़कर उठा लिया और शरीर पर हाथ फेरने लगे। फिर वे जगदीश्वर गणाध्यक्षों तथा हिमाचलकुमारी पार्वती देवी की ओर दृष्टिपात करके मुझे कृपादृष्टि से देखते हुए यों कहने लगे – 'वत्स नन्दी! उन दोनों विप्रों को तो मैंने ही भेजा था। महाप्राज्ञ! तुम्हे मृत्यु का भय कहाँ; तुम तो मेरे ही समान हो। इसमें तनिक भी संशय नहीं है। तुम अमर, अजर, दुःखरहित, अव्यय और अक्षय होकर सदा गणनायक बने रहोगे तथा पिता और सुह्रद्वर्ग सहित मेरे प्रियजन होओगे। तुममें मेरे ही समान बल होगा। तुम नित्य मेरे पार्श्व भाग में स्थित रहोगे और तुम पर निरन्तर मेरा प्रेम बना रहेगा। मेरी कृपा से जन्म, जरा और मृत्यु तुम पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकेंगे।'
नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! यों कहकर कृपासागर शम्भु ने कमलों की बनी हुई अपनी शिरोमाला को उतारकर तुरंत ही मेरे गले में डाल दिया। विप्रवर! उस शुभ माला के गले में पड़ते ही मैं तीन नेत्र और दस भुजाओं से सम्पन्न हो गया तथा द्वितीय शंकर-सा प्रतीत होने लगा। तदनन्तर परमेश्वर शिव ने मेरा हाथ पकड़कर पूछा – 'बताओ, अब तुम्हें कौन-सा उत्तम वर दूँ?' फिर उन वृषभध्वज ने अपनी जटा में स्थित हार के समान निर्मल जल को हाथ में ले 'तुम नदी हो जाओ' यों कहकर उसे छोड़ दिया। तब वह जल उत्तम ढंग से बहनेवाली, स्वच्छ जल से परिपूर्ण, महान् वेगशालिनी, दिव्यरूपा पाँच सुन्दर नदियों के रूप में परिवर्तित हो गया। उनके नाम हैं – जटोदका, त्रिस्त्रोता, वृषध्वनि, स्वर्णोदका और जम्बूनदी। मुने! यह पंचनद शिव के पृष्ठ भाग की भाँति परम शुभ हैं। महेश्वर के निकट इसका नाम लेने से यह परम पावन हो जाता है। जो मनुष्य पंचनद पर जाकर स्नान और जप करके परमेश्वर शिव का पूजन करता है, वह शिवसायुज्य को प्राप्त होता है – इसमें संशय नहीं है। तत्पश्चात् शम्भु ने उमा से कहा – 'अव्यये! मैं नन्दी का अभिषेक करके इसे गणाध्यक्ष बनाना चाहता हूँ। इस विषय में तुम्हारे क्या राय है?'
तब उमा बोलीं – देवेश! आप नन्दी को गणाध्यक्ष पद प्रदान कर सकते हैं; क्योंकि परमेश्वर! यह शिलादनन्दन मेरे लिये पुत्र-सरीखा है, इसलिये नाथ! यह मुझे बहुत ही प्यारा है। तदनन्तर भक्तवत्सल भगवान् शंकर ने अपने अतुलबलशाली गणों को बुलाकर उनसे कहा।
शिवजी बोले – गणनायको! तुम सब लोग मेरी एक आज्ञा का पालन करो। यह मेरा प्रिय पुत्र नन्दीश्वर सभी गणनायकों का अध्यक्ष और गणों का नेता है; इसलिये तुम सब लोग मिलकर इसका मेरे गणों के अधिपति-पद पर प्रेमपूर्वक अभिषेक करो। आज से यह नन्दीश्वर तुम लोगों का स्वामी होगा।
नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! शंकरजी के इस कथन पर सभी गणनायकों ने 'एवमस्तु' कहकर उसे स्वीकार किया और वे सामग्री जुटाने में लग गये। फिर सब देवताओं और मुनियों ने मिलकर मेरा अभिषेक किया। तदनन्तर मरुतों को मनोहारिणी दिव्य कन्या सुयशा से मेरा विवाह करवा दिया। उस समय मुझे बहुत-सी दिव्य वस्तुएँ मिलीं। महामुने! इस प्रकार विवाह करके मैंने अपनी उस पत्नी के साथ शम्भु, शिवा, ब्रह्मा और श्रीहरि के चरणों में प्रणाम किया। तब त्रिलोकेश्वर भक्तवत्सल भगवान् शिव पत्नी सहित मुझसे परम प्रेमपूर्वक बोले।
ईश्वर ने कहा – सत्पुत्र! यह तुम्हारी प्रिया सुयशा और तुम मेरी बात सुनो। तुम मुझे परम प्रिय हो, अतः मैं स्नेहपूर्वक तुम्हें मनोवांछित वर प्रदान करूँगा। गणेश्वर नन्दीश! देवी पार्वती सहित मैं तुम पर सदा संतुष्ट हूँ, इसलिये वत्स! तुम मेरा उत्तम वचन श्रवण करो। तुम मेरे अटूट प्रेमी, विशिष्ट, परम ऐश्वर्यसम्पन्न, महायोगी, महान् धनुर्धारी, अजेय, सबको जीतनेवाले, महाबली और सदा पूज्य होओगे। जहाँ मैं रहूँगा, वहाँ तुम्हारी स्थिति होगी और जहाँ तुम रहोगे, वहाँ मैं उपस्थित रहूँगा। यही दशा तुम्हारे पिता और पितामह की भी होगी। पुत्र! तुम्हारे ये महाबली पिता परम ऐश्वर्यशाली, मेरे भक्त और गणाध्यक्ष होंगे। वत्स! ये ही नियम तुम्हारे पितामह पर भी लागू होंगे। अन्त में तुम सब लोग मुझसे वरदान प्राप्त करके मेरा सान्निध्य प्राप्त करोगे।
नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! तत्पश्चात् महाभागा उमादेवी वर देने के लिये उत्सुक हो मुझ नन्दी से बोलीं – बेटा! तू मुझसे भी वर माँग ले, मैं तेरी सारी अभीष्ट कामनाओं को पूर्ण कर दूँगी। तब देवी के उस वचन को सुनकर मैंने हाथ जोड़कर कहा – देवि! आपके चरणों में मेरी सदा उत्तम भक्ति बनी रहे। मेरी याचना सुनकर देवी ने कहा – 'एवमस्तु – ऐसा ही होगा।' फिर शिवा नन्दी की प्रियतमा पत्नी सुयशा से बोलीं।
देवी ने कहा – वत्से! तुम भी अपना अभीष्ट वर ग्रहण करो – तुम्हारे तीन नेत्र होंगे। तुम जन्म-बंधन से छुट जाओगी और पुत्र-पौत्रों से सम्पन्न रहोगी तथा तुम्हारी मुझमें और अपने स्वामी में अटल भक्ति बनी रहेगी।
नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! तदनन्तर शिवजी की आज्ञा से परम प्रसन्न हुए ब्रह्मा, विष्णु तथा समस्त देवगणों ने भी प्रेमपूर्वक हम दोनों को वरदान दिये। तत्पश्चात् परमेश्वर शिव कुटुम्ब सहित मुझे अपनाकर तथा उमा सहित वृष पर आरूढ़ हो सम्बन्धियों एवं बांधवों के साथ अपने निवास स्थान को चले गये। तब वहाँ उपस्थित विष्णु आदि समस्त देवता मेरी प्रशंसा तथा शिव-शिवा की स्तुति करते हुए अपने-अपने धाम को चल दिये। वत्स! इस प्रकार मैंने तुमसे अपने अवतार का वर्णन कर दिया। महामुने! यह मनुष्यों के लिये सदा आनन्ददायक और शिवभक्ति का वर्धक है। जो श्रद्धालु मानव भक्तिभावित चित्त से मुझ नन्दी के इस जन्म, वर प्राप्ति, अभिषेक और विवाह के वृतान्त को सुनेगा अथवा दूसरों को सुनायेगा तथा पढ़ेगा या दूसरे को पढ़ायेगा, वह इस लोक में सम्पूर्ण सुखों को भोगकर अन्त में परमगति को प्राप्त होगा।
(अध्याय ७)