कालभैरव का माहात्म्य, विश्वानर की तपस्या और शिवजी का प्रसन्न होकर उनकी पत्नी शुचिष्मती के गर्भ से उनके पुत्ररूप से प्रकट होने का उन्हें वरदान देना

तदनन्तर भगवान् शंकर के भैरवावतार का वर्णन करके नन्दीश्वर ने कहा – महामुने! परमेश्वर शिव उत्तमोत्तम लीलाएँ रचनेवाले तथा सत्पुरुषों के प्रेमी हैं। उन्होंने मार्गशीर्ष मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी को भैरवरूप से अवतार लिया था। इसलिये जो मनुष्य मार्गशीर्ष मास की कृष्णाष्टमी को काल भैरव के संनिकट उपवास करके रात्रि में जागरण करता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। जो मनुष्य अन्यत्र भी भक्तिपूर्वक जागरण सहित इस व्रत का अनुष्ठान करेगा, वह भी महापापों से मुक्त होकर सद्गति को प्राप्त हो जायगा। प्राणियों के लाखों जन्मों में किये गये जो पाप हैं, वे सब-के-सब कालभैरव के दर्शन से निर्मल हो जाते हैं। जो मुर्ख कालभैरव के भक्तों का अनिष्ट करता है, वह इस जन्म में दुःख भोगकर पुनः दुर्गति को प्राप्त होता है। जो लोग विश्वनाथ के तो भक्त हैं परंतु कालभैरव की भक्ति नहीं करते, उन्हें महान् दुःख की प्राप्ति होती है। काशी में तो इसका विशेष प्रभाव पड़ता है। जो मनुष्य वाराणसी में निवास करके कालभैरव का भजन नहीं करता, उसके पाप शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की भाँति बढ़ते रहते हैं। जो काशी में प्रत्येक भौमवार की कृष्णाष्टमी के दिन कालराज का भजन-पूजन नहीं करता, उसका पुण्य कृष्णपक्ष के चन्द्रमा के समान क्षीण हो जाता है।

तदनन्तर नन्दीश्वर ने वीरभद्र तथा शरभावतार का वृतान्त सुनाकर कहा – ब्रह्मपुत्र! भगवान् शिव जिस प्रकार प्रसन्न होकर विश्वानर मुनि के घर अवतीर्ण हुए थे, शशीमौलि के उस चरित को तुम प्रेमपूर्वक श्रवण करो। उस समय वे तेज की निधि अग्निरूप सर्वात्मा परम प्रभु शिव अग्निलोक के अधिपतिरूप से गृहपति नाम से अवतीर्ण हुए थे। पूर्वकाल की बात है, नर्मदा के रमणीय तट पर नर्मपुर नाम का एक नगर था। उसी नगर में विश्वानर नाम के एक मुनि निवास करते थे। उनका जन्म शाण्डिल्य गोत्र में हुआ था। वे परम पावन, पुण्यात्मा, शिवभक्त, ब्रह्मतेज के निधि और जितेन्द्रिय थे। ब्रह्मचर्याश्रम में उनकी बड़ी निष्ठा थी। वे सदा ब्रह्मयज्ञ में तत्पर रहते थे। फिर उन्होंने शुचिष्मती नाम की एक सद्गुणवती कन्या से विवाह कर लिया और वे ब्राह्मणोचित कर्म करते हुए देवता तथा पितरों को प्रिय लगनेवाला जीवन बिताने लगे। इस प्रकार जब बहुत-सा समय व्यतीत हो गया, तब उन ब्राह्मण की भार्या शुचिष्मती, जो उत्तम व्रत का पालन करने वाली थी, अपने पति से बोली – 'प्राणनाथ! स्त्रियों के योग्य जितने आनन्दप्रद भोग हैं, उन सबको मैंने आपकी कृपा से आपके साथ रहकर भोग लिया; परंतु नाथ! मेरे हृदय में एक लालसा चिरकाल से वर्तमान है और वह गृहस्थों के लिये उचित भी है, उसे आप पूर्ण करने की कृपा करें। स्वामिन्! यदि मैं वर पाने के योग्य हूँ और आप मुझे वर देना चाहते हैं तो मुझे महेश्वर-सरीखा पुत्र प्रदान कीजिये। इसके अतिरिक्त मैं दूसरा वर नहीं चाहती।'

नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! पत्नी की बात सुनकर पवित्र व्रतपरायण ब्राह्मण विश्वानर क्षण भर के लिये समाधिस्थ हो गये और हृदय में यों विचार करने लगे – 'अहो! मेरी इस सूक्ष्मांगी पत्नी ने कैसा अत्यन्त दुर्लभ वर माँगा है। यह तो मेरे मनोरथ-पथ से बहुत दूर है। अच्छा, शिवजी तो सब कुछ करने में समर्थ हैं। ऐसा प्रतीत होता है, मानो उन शम्भु ने ही इसके मुख में बैठकर वाणी रूप से ऐसी बात कही है, अन्यथा दूसरा कौन ऐसा करने में समर्थ हो सकता है। तदनन्तर वे एकपत्नीवर्ती मुनि विश्वानर पत्नी को आश्वासन देकर वाराणसी में गये और घोर तप के द्वारा भगवान् शिव के वीरेश लिंग की आराधना करने लगे। इस प्रकार उन्होंने एक वर्ष पर्यन्त भक्तिपूर्वक उत्तम वीरेश लिंग की त्रिकाल अर्चना करते हुए अद्भुत तप किया। तेरहवाँ मास आने पर एक दिन वे द्विजवर प्रातःकाल त्रिपथगामिनी गंगा के जल में स्नान करके ज्यों ही वीरेश के निकट पहुँचे, त्यों ही उन तपोधन को उस लिंग के मध्य एक अष्टवर्षीय विभूतिभूषित बालक दिखायी दिया। उस नग्न शिशु के नेत्र कानों तक फैले हुए थे, होठों पर गहरी लालिमा छायी हुई थी, मस्तक पर पीले रंग की सुन्दर जटा सुशोभित थी और मुख पर हँसी खेल रही थी। वह शैशवोचित अलंकार और चिताभस्म धारण किये हुए था तथा अपनी लीला से हँसता हुआ श्रुतिसूक्तों का पाठ कर रहा था। उस बालक को देखकर विश्वानर मुनि कृतार्थ हो गये और आनन्द के कारण उनका शरीर रोमांचित हो उठा तथा बारंबार 'नमस्कार है, नमस्कार है' यों उनका ह्रदयोद्गार फूट पड़ा। फिर वे अभिलाषा पूर्ण करनेवाले आठ पद्यों द्वारा बाल-रूपधारी परमानन्दस्वरूप शम्भु का स्तवन करते हुए बोले।

विश्वानर ने कहा – भगवन्! आप ही एकमात्र अद्वितीय ब्रह्म हैं, यह सारा जगत् आपका ही स्वरूप है, यहाँ अनेक कुछ भी नहीं है। यह बिलकुल सत्य है कि एकमात्र रूद्र के अतिरिक्त दूसरे किसी की सत्ता नहीं है, इसलिये मैं आप महेश की शरण ग्रहण करता हूँ। शम्भो! आप ही सबके कर्ता-हर्ता हैं, तथा जैसे आत्मधर्म एक होते हुए भी अनेक रूप से दीखता है, उसी प्रकार आप भी एक रूप होकर नाना रूपों में व्याप्त हैं। फिर भी आप रूपरहित हैं। इसलिये आप ईश्वर के अतिरिक्त मैं किसी दूसरे की शरण नहीं ले सकता। जैसे रज्जु में सर्प, सीपी में चाँदी और मृगमरीचिका में जल प्रवाह का भान मिथ्या है, उसी प्रकार, जिसे जान लेने पर यह विश्वप्रपंच मिथ्या भासित होता है, उन महेश्वर की मैं शरण लेता हूँ। शम्भो! जल में जो शीतलता, अग्नि में दाहकता, सूर्य में गरमी, चन्द्रमा में आह्लादकारिता, पुष्प में गन्ध और दुग्ध में घी वर्तमान है, वह आपका ही स्वरूप है, अतः मैं आपके शरण हूँ। आप कानरहित होकर शब्द सुनते हैं; नासिका-विहीन होकर सूँघते हैं। पैर न होने पर भी दूर तक चले जाते हैं, नेत्रहीन होकर सब कुछ देखते हैं और जिव्हा रहित होकर भी समस्त रसों के ज्ञाता हैं। भला, आपको सम्यक्-रूप से कौन जान सकता है। इसलिये मैं आपकी शरण में जाता हूँ। ईश! आपके रहस्य को न तो साक्षात् वेद ही जानता है न विष्णु, न योगीन्द्र और न इन्द्र आदि प्रधान देवताओं को ही इसका पता है; परंतु आपका भक्त उसे जान लेता है, अतः मैं आपकी शरण ग्रहण करता हूँ। ईश! न तो आपका कोई गोत्र है, न जन्म है, न नाम है न रूप है, न शील है और न देश है; ऐसा होने पर भी आप त्रिलोकी के अधीश्वर तथा सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं, इसलिये मैं आपका भजन करता हूँ। स्मरारे! आप सर्वस्वरूप हैं, यह सारा विश्वप्रपंच आपसे ही प्रकट हुआ है। आप गौरी के प्राणनाथ, दिगम्बर और परम शान्त हैं। बाल, युवा और वृद्ध रूप में आप ही वर्तमान हैं। ऐसी कौन-सी वस्तु है, जिसमें आप व्याप्त न हों; अतः मैं आपके चरणों में नतमस्तक हूँ।

नन्दीश्वर कहते हैं – मुने! यों स्तुति करके विप्रवर विश्वानर हाथ जोड़कर भूमि पर गिरना ही चाहते थे, तब तक सम्पूर्ण वृद्धों के भी वृद्ध बालरूपधारी शिव परम हर्षित होकर उन भूदेव से बोले।

बालरूपी शिव ने कहा – मुनिश्रेष्ठ विश्वानर! तुमने आज मुझे संतुष्ट कर दिया है। भूदेव! मेरा मन परम प्रसन्न हो गया है, अतः अब तुम उत्तम वर माँग लो। यह सुनकर मुनिश्रेष्ठ विश्वानर कृतकृत्य हो गये और उनका मन हर्षमग्न हो गया। तब वे उठकर बालरूपधारी शंकरजी से बोले।

विश्वानर ने कहा – प्रभावशाली महेश्वर! आप तो सर्वान्तर्यामी, ऐश्वर्यसम्पन्न, शर्व तथा भक्तों को सब कुछ दे डालनेवाले हैं। भला, आप सर्वज्ञ से कौन-सी बात छिपी है। फिर भी आप मुझे दीनता प्रकट करने वाली यान्चा के प्रति आकृष्ट होने के लिये क्यों कह रहे हैं। महेशान! ऐसा जानकर आपकी जैसी इच्छा हो, वैसा कीजिये।

नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! पवित्र व्रत में तत्पर विश्वानर के उस वचन को सुनकर पावन शिशुरूपधारी महादेव हँसकर शुचि (विश्वानर) से बोले – 'शुचे! तुमने अपने हृदय में अपनी पत्नी शुचिष्मती के प्रति जो अभिलाषा कर रखी है, वह निस्संदेह थोड़े ही समय में पूर्ण हो जायगी। महामते! मैं शुचिष्मती के गर्भ से तुम्हारा पुत्र होकर प्रकट होऊँगा। मेरा नाम गृहपति होगा। मैं परम पावन तथा समस्त देवताओं के लिये प्रिय होऊँगा। जो मनुष्य एक वर्ष तक शिवजी के संनिकट तुम्हारे द्वारा कथित इस पुण्यमय अभिलाषाष्टक स्तोत्र का तीनों काल पाठ करेगा, उसकी सारी अभिलाषाएँ यह पूर्ण कर देगा। इस स्तोत्र का पाठ पुत्र, पौत्र और धन का प्रदाता, सर्वथा शान्तिकारक, सारी विपत्तियों का विनाशक, स्वर्ग और मोक्ष रूप सम्पत्ति का कर्ता तथा समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाला है। निस्संदेह यह अकेला ही समस्त स्तोत्रों के समान है।

नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! इतना कहकर बालरूपधारी शम्भु, जो सत्पुरुषों की गति हैं, अन्तर्धान हो गये।

(अध्याय ८ - १३)