शिवजी का शुचिष्मती के गर्भ से प्राकटय, ब्रह्मा द्वारा बालक का संस्कार करके 'गृहपति' नाम रखा जाना, नारदजी द्वारा उस का भविष्य-कथन, पिता की आज्ञा से गृहपति का काशी में जाकर तप करना, इन्द्र का वर देने के लिये प्रकट होना, गृहपति का उन्हें ठुकराना, शिवजी का प्रकट होकर उन्हें वरदान देकर दिक्पाल पद प्रदान करना तथा अग्नीश्वरलिंग और अग्नि का माहात्म्य

नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! घर आकर उस ब्राह्मण ने बड़े हर्ष के साथ अपनी पती से वह सारा वृत्तान्त कह सुनाया। उसे सुनकर विप्रपत्नी शुचिष्मती को महान् आनन्द प्राप्त हुआ। वह अत्यन्त प्रेमपूर्वक अपने भाग्य की सराहना करने लगी। तदनन्तर समय आने पर ब्राह्मण द्वारा विधिपूर्वक गर्भाधान कर्म सम्पन्न किये जाने पर वह नारी गर्भवती हुई। फिर उन विद्वान् मुनि ने गर्भ के स्पन्दन करने से पूर्व ही पुंस्त्व की वृद्धि के लिये गृह्म सूत्र में वर्णित विधि के अनुसार सम्यक्-रूप से पुंसवन-संस्कार किया। तत्पश्चात् आठवाँ महीना आने पर कृपालु विश्वानर ने सुखपूर्वक प्रसव होने के अभिप्राय से गर्भ के रूप की समृद्धि करनेवाला सीमन्त-संस्कार सम्पन्न कराया। तदुपरान्त ताराओं के अनुकूल होने पर जब बृहस्पति केन्द्रवर्ती हुए और शुभ ग्रहों का योग आया, तब शुभ लग्न में भगवान् शंकर, जिन के मुख की कान्ति पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान है तथा जो अरिष्ट रूपी दीपक को बुझानेवाले, समस्त अरिष्टों के विनाशक और भूः, भुवः, स्वः – तीनों लोकों के निवासियों को सब तरह से सुख देने वाले हैं, उस शुचिष्मती के गर्भ से पुत्र रूप में प्रकट हुए। उस समय गन्ध को वहन करनेवाले वायु के वाहन मेघ दिशा रूपी बधुओं के मुख पर वस्त्र-से बन गये अर्थात् चारों ओर काली घटा उमड़ आयी। वे घनघोर बादल उत्तम गन्धवाले पुष्पसमूहों की वर्षा करने लगे। देवताओं की दुन्दुभियाँ बजने लगीं। चारों ओर दिशाएँ निर्मल हो गयीं। प्राणियों के मनों के साथ-साथ सरिताओं का जल निर्मल हो गया। प्राणियों की वाणी सर्वथा कल्याणी और प्रियभाषिणी हो उठी। सम्पूर्ण प्रसिद्ध ऋषि-मुनि तथा देवता, यक्ष, किंनर, विद्याधर आदि मंगल द्रव्य ले-लेकर पधारे। स्वयं ब्रह्माजी ने नम्रतापूर्वक उसका जातकर्म संस्कार किया और उस बालक के रूप तथा वेद का विचार करके यह निश्चय किया कि इसका नाम गृहपति होना चाहिये। फिर ग्यारहवें दिन उन्होंने नामकरण की विधि के अनुसार वेदमन्त्रों का उच्चारण करते हुए उसका 'गृहपति' ऐसा नामकरण किया। तत्पश्चात् सब के पितामह ब्रह्मा चारों वेदों में कथित आशीर्वादात्मक मन्त्रों द्वारा उसका अभिनन्दन करके हंस पर आरूढ़ हो अपने लोक को चले गये। तदुपरानत शंकर भी लौकिकी गति का आश्रय ले उस बालक की उचित रक्षा का विधान करके अपने वाहन पर चढ़कर अपने धाम को पधार गये। इसी प्रकार श्रीहरि ने भी अपने लोक की राह ली। इस प्रकार सभी देवता, ऋषि-मुनि आदि भी प्रशंसा करते हुए अपने-अपने स्थान को पधार गये। तदनन्तर ब्राह्मण देवता ने यथासमय सब संस्कार करते हुए बालक को वेदाध्ययन कराया। तत्पश्चात् नवाँ वर्ष आने पर माता-पिता की सेवा में तत्पर रहनेवाले विश्वानर-नन्दन गृहपति को देखने के लिये वहाँ नारदजी पधारे। बालक ने माता-पिता सहित नारदजी को प्रणाम किया। फिर नारदजी ने बालक की हस्तरेखा, जिह्वा, तालु आदि देखकर कहा – मुनि विश्वानर! मैं तुम्हारे पुत्र के लक्षणों का वर्णन करता हूँ, तुम आदरपूर्वक उसे श्रवण करो। तुम्हारा यह पुत्र परम भाग्यवान् है, इसके सम्पूर्ण अंगों के लक्षण शुभ हैं। किंतु इसके सर्वगुणसम्पन्न, सम्पूर्ण शुभलक्षणों से समन्वित और चन्द्रमा के समान सम्पूर्ण निर्मल कलाओं से सुशोभित होने पर भी विधाता ही इसकी रक्षा करें। इसलिये सब तरह के उपायों द्वारा इस शिशु की रक्षा करनी चाहिये; क्योंकि विधाता के विपरीत होने पर गुण भी दोष हो जाता है। मुझे शंका है कि इसके बारहवें वर्ष में इसपर बिजली अथवा अग्नि द्वारा विध्न आयेगा।' यों कहकर नारदजी जैसे आये थे, वैसे ही देवलोक को चले गये।

सनत्कुमारजी! नारदजी का कथन सुनकर पत्नी सहित विश्वानर ने समझ लिया कि यह तो बड़ा भयंकर वज्रपात हुआ। फिर वे हाय! मैं मारा गया' यों कहकर छाती पीटने लगे और पुत्रशोक से व्याकुल होकर गहरी मूर्च्छा के वशीभूत हो गये। उधर शुचिष्मती भी दुःख से पीड़ित हो अत्यन्त ऊँचे स्वर से हाहाकार करती हुई ढाढ़ मारकर रो पड़ी, उसकी सारी इन्द्रियाँ अत्यन्त व्याकुल हो उठीं। तब पत्नी के आर्तनाद को सुनकर विश्वानर भी मूर्च्छा त्याग कर उठ बैठे और 'ऐं! यह क्‍या है? क्‍या हुआ?' यों उच्च स्वर से बोलते हुए कहने लगे – 'गृहपति! जो मेरा बाहर विचरनेवाला प्राण, मेरी सारी इन्द्रियों का स्वामी तथा मेरे अन्तरात्मा में निवास करनेवाला है, कहाँ है?' तब माता-पिता को इस प्रकार अत्यन्त शोकग्रस्त देखकर शंकर के अंश से उत्पन्न हुआ वह बालक गृहपति मुसकराकर बोला।

गृहपति ने कहा – माताजी तथा पिताजी! बताइये इस समय आप लोगों के रोने का क्‍या कारण है? किसलिये आप लोग फूट-फूटकर रो रहे हैं? कहाँ से ऐसा भय आप लोगों को प्राप्त हुआ है? यदि मैं आप की चरणरेणुओं से अपने शरीर की रक्षा कर लूँ तो मुझ पर काल भी अपना प्रभाव नहीं डाल सकता; फिर इस तुच्छ, चंचल एवं अल्प बलवाली मृत्यु की तो बात ही क्‍या है। माता-पिताजी! अब आप लोग मेरी प्रतिज्ञा सुनिये – 'यदि मैं आप लोगों का पुत्र हूँ तो ऐसा प्रयत्न करूँगा जिससे मृत्यु भी भयभीत हो जायगी। मैं सत्पुरुषों को सब कुछ दे डालनेवाले सर्वज्ञ मृत्युंजय की भलीभाँति आराधना करके महाकाल को भी जीत लूँगा – यह मैं आप लोगों से बिलकुल सत्य कह रहा हूँ।'

नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने!। तब वे द्विजदम्पति, जो शोक से संतप्त हो रहे थे, गृहपति के ऐसे वचन, जो अकाल में हुई अमृत की घनघोर वृष्टि के समान थे, सुनकर संतापरहित हो कहने लगे – 'बेटा! तू उन शिव की शरण में जा, जो ब्रह्म आदि के भी कर्ता, मेघवाहन, अपनी महिमा से कभी च्युत न होनेवाले और विश्व की रक्षामणि हैं।'

नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! माता-पिता की आज्ञा पाकर गृहपति ने उनके चरणों में प्रणाम किया। फिर उनकी प्रदक्षिणा करके और उन्हें बहुत तरह से आश्वासन दे वे वहाँ से चल पड़े और उस काशीपुरी में जा पहुँचे, जो ब्रह्मा और नारायण आदि देवों के लिये (भी) दुष्प्राप्प, महाप्रलय के संताप का विनाश करने वाली और विश्वनाथ द्वारा सुरक्षित थी तथा जो कण्ठप्रदेश में हार की तरह पड़ी हुई गंगा से सुशोभित तथा विचित्र गुणशालिनी हरपत्नी गिरिजा से विभूषित थी। वहाँ पहुँचकर वे विप्रवर पहले मणिकर्णिका पर गये। वहाँ उन्होंने विधिपूर्वक स्नान करके भगवान् विश्वनाथ का दर्शन किया। फिर बुद्धिमान् गृहपति ने परमानन्दमग्न हो त्रिलोकी के प्राणियों की प्राणरक्षा करनेवाले शिव को प्रणाम किया। उस समय उनकी अंजलि बँधी थी और सिर झुका हुआ था। वे बारंबार उस शिवलिंग की ओर देखकर हृदय में हर्षित हो रहे थे (और यह सोच रहे थे कि) यह लिंग निस्संदेह स्पष्टरूप से आनन्दकन्द ही है। (वे कहने लगे–) अहो! आज मुझे जो सर्वव्यापी श्रीमान् विश्वनाथ का दर्शन प्राप्त हुआ, इसलिये इस चराचर त्रिलोकी में मुझसे बढ़कर धन्यवाद का पात्र दूसरा कोई नहीं है। जान पड़ता है, मेरा भाग्योदय होने से ही उन दिनों में महर्षि नारद ने आकर वैसी बात कही थी, जिसके कारण आज मैं कृतकृत्य हो रहा हूँ।

नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! इस प्रकार आनन्दामृतरूपी रसों द्वारा पारण करके गृहपति ने शुभ दिन में सर्वहितकारी शिवलिंग की स्थापना की और पवित्र गंगाजल से भरे हुए एक सौ आठ कलशों द्वारा शिवजी को स्नान कराकर ऐसे घोर नियमों को स्वीकार किया, जो अकृतात्मा पुरुषों के लिये दुष्कर थे। नारदजी! इस प्रकार एकमात्र शिव में मन लगाकर तपस्या करते हुए उस महात्मा गृहपति की आयु का एक वर्ष व्यतीत हो गया। तब जन्म से बारहवाँ वर्ष आने पर नारदजी के कहे हुए उस वचन को सत्य-सा करते हुए वज्रधारी इन्द्र उनके निकट पधारे और बोले – 'विप्रवर! मैं इन्द्र हूँ और तुम्हारे शुभ व्रत से प्रसन्‍न होकर आया हूँ। अब तुम वर माँगो, मैं तुम्हारी मनोवांछा पूर्ण कर दूँगा।'

तब गृहपति ने कहा – मघवन्! मैं जानता हूँ, आप वज्रधारी इन्द्र हैं; परंतु वृत्रशत्रो! में आपसे वर याचना करना नहीं चाहता, मेरे वरदायक तो शंकरजी ही होंगे।

इन्द्र बोले – शिशो! शंकर मुझसे भिन्‍न थोड़े ही हैं। अरे! मैं देवराज हूँ, अतः तुम अपनी मूर्खता का परित्याग करके वर माँग लो, देर मत करो।

गृहपति ने कहा – पाकशासन! आप अहल्या का सतीत्व नष्ट करनेवाले दुराचारी, पर्वतशत्रु ही हैं न। आप जाइये; क्योंकि मैं पशुपति के अतिरिक्त किसी अन्य देव के सामने स्पष्ट रूप से प्रार्थना करना नहीं चाहता।

नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! गृहपति के उस वचन को सुनकर इन्द्र के नेत्र क्रोध से लाल हो गये। वे अपने भयंकर वज्र को उठाकर उस बालक को डराने-धमकाने लगे। तब बिजली की ज्वालाओं से व्याप्त उस वज्र को देखकर बालक गृहपति को नारदजी के वाक्य स्मरण हो आये। फिर तो वे भय से व्याकुल होकर मूर्च्छित हो गये। तदनन्तर अज्ञानान्धकार को दूर भगानेवाले गौरीपति शम्भु वहाँ प्रकट हो गये और अपने हस्तस्पर्श से उसे जीवनदान देते हुए-से बोले – वत्स! उठ, उठ। तेरा कल्याण हो।' तब रात्रि के समय मुँदे हुए कमल की तरह उसके नेत्रकमल खुल गये और उसने उठकर अपने सामने सैकड़ों सूर्यों से भी अधिक प्रकाशमान शम्भु को उपस्थित देखा। उनके ललाट में तीसरा नेत्र चमक रहा था, गले में नीला चिह्न था, ध्वजा पर वृषभ का स्वरूप दीख रहा था, वामांग में गिरिजादेवी विराजमान थीं। मस्तक पर चन्द्रमा सुशोभित था। बड़ी-बड़ी जटाओं से उनकी अद्धुत शोभा हो रही थी। वे अपने आयुध त्रिशूल और आजगव धनुष धारण किये हुए थे। कपूर के समान गौरवर्ण का शरीर अपनी प्रभा बिखेर रहा था, वे गजचर्म लपेटे हुए थे। उन्हें देखकर शास्त्रकथित लक्षणों तथा गुरु-वचनों से जब गृहपति ने समझ लिया कि ये महादेव ही हैं, तब हर्ष के मारे उनके नेत्रों में आँसू छलक आये, गला रुँध गया और शरीर रोमांचित हो उठा। वे क्षणभर तक अपने-आप को भूलकर चित्रकूट एवं त्रिपुत्रक पर्वत की भाँति निशचल खड़े रह गये। जब वे स्तवन करने, नमस्कार करने अथवा कुछ भी कहने में समर्थ न हो सके, तब शिवजी मुसकराकर बोले।

ईश्वर ने कहा – गृहपते! जान पड़ता है, तुम वज्रधारी इन्द्र से डर गये हो। वत्स! तुम भयभीत मत हौओ; क्‍योंकि मेरे भक्त पर इन्द्र और वज्र की कौन कहे, यमराज भी अपना प्रभाव नहीं दाल सकते। यह तो मैंने तुम्हारी परीक्षा ली है और मैंने ही तुम्हें इन्द्र रूप धारण करके डराया है। भद्र! अब मैं तुम्हें वर देता हूँ – आज से तुम अग्निपद के भागी होओगे। तुम समस्त देवताओं के लिये वरदाता बनोगे। अग्ने! तुम समस्त प्राणियों के अंदर जठराग्निरूप से विचरण करोगे। तुम्हें दिक्‍पाल रूप से धर्मराज और इन्द्र के मध्य में राज्य की प्राप्ति होगी। तुम्हारे द्वारा स्थापित यह शिवलिंग तुम्हारे नाम पर 'अग्नीश्वर' नाम से प्रसिद्ध होगा। यह सब प्रकार के तेजों की वृद्धि करनेवाला होगा। जो लोग इस अग्नीश्वर-लिंग के भक्त होंगे, उन्हें बिजली और अग्नि का भय नहीं रह जायगा, अग्निमान्द्य नामक रोग नहीं होगा और न कभी उनकी अकालमृत्यु ही होगी। काशीपुरी में स्थित सम्पूर्ण समृद्धियों के प्रदाता अग्नीश्वर की भलीभाँति अर्चना करनेवाला भक्त यदि प्रारब्धवश किसी अन्य स्थान में भी मृत्यु को प्राप्त होगा तो भी वह वहिनलोक वहि्नलोक में प्रतिष्ठित होगा।

नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! यों कहकर शिवजी ने गृहपति के बन्धुओं को बुलाकर उनके माता-पिता के सामने उस अग्नि का दिक्पतिपद पर अभिषेक कर दिया और स्वयं उसी लिंग में समा गये। तात! इस प्रकार मैंने तुमसे परमात्मा शंकर के गृहपति नामक अग्न्यवतार का, जो दुष्टों को पीड़ित करनेवाला है, वर्णन कर दिया। जो सुदृढ़ पराक्रमी जितेन्द्रिय पुरुष अथवा सत्त्वसम्पन्न स्त्रियाँ अग्निप्रवेश कर जाती हैं, वे सब-के-सब अग्नि सरीखे तेजस्वी होते हैं। इसी प्रकार जो ब्राह्मण अग्निहोत्र-परायण, ब्रह्मचारी तथा पंचाग्नि का सेवन करनेवाले हैं, वे अग्नि के समान वर्चस्वी होकर अग्निलोक में विचरते हैं। जो शीतकाल में शीत निवारण के निमित्त बोझ-की-बोझ लकड़ियाँ दान करता है अथवा जो अग्नि की इष्टि करता है, वह अग्नि के संनिकट निवास करता है। जो श्रद्धापूर्वक किसी अनाथ मृतक का अग्निसंस्कार कर देता है अथवा स्वयं शक्ति न होने पर दूसरे को प्रेरित करता है, वह अग्निलोक में प्रशंसित होता है। द्विजातियों के लिये परम कल्याणकारक एक अग्नि ही है। वही निश्चित रूप से गुरु, देवता, व्रत, तीर्थ अर्थात् सब कुछ है। जितनी अपावन व्स्तुएँ हैं, वे सब अग्नि का संसर्ग होने से उसी क्षण पावन हो जाती हैं; इसीलिये अग्नि को पावक कहा जाता है। यह शम्भु की प्रत्यक्ष तेजोमयी दहनात्मिका मूर्ति है, जो सृष्टि रचनेवाली, पालन करने वाली और संहार करने वाली है। भला, इसके बिना कौन-सी वस्तु दृष्टिगोचर हो सकती है। इनके द्वारा भक्षण किये हुए धूप, दीप, नेवेद्य, दूध, दही, घी और खाँड़ आदि का देवगण स्वर्ग में सेवन करते हैं।

(अध्याय १४ - १५)