शिवजी के महाकाल आदि दस अवतारों का तथा ग्यारह रूद्र-अवतारों का वर्णन
तदनन्तर यक्षेश्वरावतार की बात कहकर नन्दीश्वर ने कहा – मुने! अब शंकरजी के उपासनाकाण्ड द्वारा सेवित महाकाल आदि दस अवतारों का वर्णन भक्तिपूर्वक श्रवण करो। उनमें पहला अवतार 'महाकाल' नाम से प्रसिद्ध है, जो सत्पुरुषों को भोग और मोक्ष प्रदान करने वाला है। उस अवतार की शक्ति भक्तों की मनोवांछा पूर्ण करने वाली महाकाली है। दूसरा 'तार' नामक अवतार हुआ, जिसकी शक्ति तारादेवी हुईं। वे दोनों भुक्ति-मुक्ति के प्रदाता तथा अपने सेवकों के लिये सुखदायक हैं। 'बाल भुवनेश' नाम से तीसरा अवतार हुआ। उसमें बाला भुवनेशी शिवा शक्ति हुईं, जो सज्जनों को सुख देने वाली हैं। चौथा भक्तों के लिये सुखद तथा भोग-मोक्ष प्रदायक 'षोडश श्रीविद्येश' नामक अवतार हुआ और षोडशी-श्रीविद्या शिवा उसकी शक्ति हुईं। पाँचवाँ अवतार 'भैरव' नाम से प्रसिद्ध हुआ, जो सर्वदा भक्तों की कामनाओं को पूर्ण करने वाला है। इस अवतार की शक्ति का नाम है भैरवी गिरिजा, जो अपने उपासकों की अभीष्टदायिनी हैं। छठा शिवावतार 'छिन्नमस्तक' नाम से कहा जाता है और भक्तकामप्रदा गिरिजा का नाम छिन्नमस्ता है। सम्पूर्ण मनोरथों के दाता शम्भु का सातवाँ अवतार 'धूमवान्' नाम से विख्यात हुआ। उस अवतार में श्रेष्ठ उपासकों की लालसा पूर्ण करने वाली शिवा धूमावती हुईं। शिवजी का आठवाँ सुखदायक अवतार 'बगलामुख' है। उसकी शक्ति महान् आनन्ददायिनी बगलामुखी नाम से विख्यात हुईं। नवाँ शिवावतार 'मातंग' नाम से कहा जाता है। उस समय सम्पूर्ण अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाली शर्वाणी मातंगी हुईं। शम्भु के भुक्ति-मुक्ति रूप फल प्रदान करने वाले दसवें अवतार का नाम 'कमल' है, जिसमें अपने भक्तों का सर्वथा पालन करने वाली गिरिजा कमला कहलायीं। ये ही शिवजी के दस अवतार है। ये सब-के-सब भक्तों तथा सत्पुरुषों के लिये सुखदायक तथा भोग-मोक्ष के प्रदाता हैं। जो लोग महात्मा शंकर के इन दसों अवतारों की निर्विकार भाव से सेवा करते हैं, उन्हें ये नित्य नाना प्रकार के सुख देते रहते हैं। मुने! इस प्रकार मैंने दसों अवतारों का माहात्म्य वर्णन कर दिया। तन्त्रशास्त्र में तो यह सर्वकामप्रद बतलाया गया है। मुने! इन शक्तियों की भी अद्भुत महिमा है। तंत्र आदि शास्त्रों में इस महिमा का सर्वकामप्रदरूप से वर्णन किया गया है। ये नित्य दुष्टों को दण्ड देने वाली और ब्रह्मतेज की विशेष रूप से वृद्धि करने वाली हैं। ब्रह्मन्! इस प्रकार मैंने तुमसे महेश्वर के महाकाल आदि दस शुभ अवतारों का शक्ति सहित वर्णन कर दिया। जो मनुष्य समस्त शिवपर्वों के अवसर पर इस परम पावन कथा का भक्तिपूर्वक पाठ करता है, वह शिवजी का परम प्यारा हो जाता है। इस आख्यान का पाठ करने से ब्राह्मण के ब्रह्मतेज की वृद्धि होती है, क्षत्रिय विजय-लाभ करता है, वैश्य धनपति हो जाता है और शुद्र को सुख की प्राप्ति होती है। स्वधर्मपरायण शिवभक्तों को यह चरित सुनने से सुख प्राप्त होता है और उनकी शिवभक्ति विशेष रूप से बढ़ जाती है।
मुने! अब मैं शंकरजी के एकादश श्रेष्ठ अवतारों का वर्णन करता हूँ, सुनो! उन्हें श्रवण करने से असत्यादिजनित बाधा पीड़ा नहीं पहुँचा सकती। पूर्वकाल की बात है, एक बार इन्द्र आदि समस्त देवता दैत्यों से पराजित हो गये। तब वे भयभीत हो अपनी पुरी अमरावती को छोड़कर भाग खड़े हुए। यों दैत्यों द्वारा अत्यन्त पीड़ित हुए वे सभी देवता कश्यपजी के पास गये। वहाँ उन्होंने परम व्याकुलतापूर्वक हाथ जोड़ एवं मस्तक झुकाकर उनके चरणों में अभिवादन किया और उनका भलिभाँति स्तवन करके आदरपूर्वक अपने आने का कारण प्रकट किया तथा दैत्यों द्वारा पराजित होने से उत्पन्न हुए अपने सारे दुःखों को कह सुनाया। तात! तब उनके पिता कश्यपजी देवताओं की उस कष्ट-कहानी को सुनकर अधिक दुःखी नही हुए; क्योंकि उनकी बुद्धि शिवजी में आसक्त थी। मुने! उन शान्तबुद्धि मुनि ने धैर्य धारण करके देवताओं को आश्वासन दिया और स्वयं परम हर्षपूर्वक विश्वनाथपुरी काशी को चल पड़े। वहाँ पहुँचकर उन्होंने गंगाजी के जल में स्नान करके अपना नित्य-नियम पूरा किया और फिर आदरपूर्वक उमा सहित सर्वेश्वर भगवान् विश्वनाथ की भलिभाँति अर्चना की। तदनन्तर शम्भुदर्शन के उद्देश्य से एक शिवलिंग की स्थापना करके वे देवताओं के हितार्थ परम प्रसन्नतापूर्वक घोर तप करने लगे। मुने! शिवजी के चरणकमलों में आसक्त मनवाले धैर्यशाली मुनिवर कश्यप को जब यों तप करते हुए बहुत अधिक समय व्यतीत हो गया, तब सत्पुरुषों के गतिस्वरूप भगवान् शंकर अपने चरणों में तल्लीन मनवाले कश्यप ऋषि को वर देने के लिये वहाँ प्रकट हुए। भक्तवत्सल महेश्वर परम प्रसन्न तो थे ही, अतः वे अपने भक्त मुनिवर कश्यप से बोले – 'वर माँगो।' उन महेश्वर को देखते ही प्रसन्न बुद्धिवाले देवताओं के पिता कश्यपजी हर्षमग्न हो गये और हाथ जोड़कर उनके चरणों में नमस्कार करके स्तुति करते हुए यों बोले – 'महेश्वर! मैं सर्वथा आपका शरणागत हूँ। स्वामिन्! देवताओं के दुःख का विनाश करके मेरी अभिलाषा पूर्ण कीजिये। देवेश! मैं पुत्रों के दुःख से विशेष दुःखी हूँ, अतः ईश! मुझे सुखी कीजिये; क्योंकि आप देवताओं के सहायक हैं। नाथ! महाबली दैत्यों ने देवताओं और यक्षों को पराजित कर दिया है, इसलिये शम्भो! आप मेरे पुत्ररूप से प्रकट होकर देवताओं के लिये आनन्ददाता बनिये।'
नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! कश्यपजी के ऐसा कहने पर सर्वेश्वर भगवान् शंकर उनसे 'तथेति – ऐसा ही होगा' यों कहकर उनके सामने वहीं अन्तर्धान हो गये। तब कश्यप भी महान् आनन्द के साथ तुरंत ही अपने स्थान को लौट गये। वहाँ उन्होंने वह सारा वृतान्त आदरपूर्वक देवताओं से कह सुनाया। तदनन्तर भगवान् शंकर अपना वचन सत्य करने के लिये कश्यप द्वारा सुरभी के पेट से ग्यारह रूप धारण करके प्रकट हुए। उस समय महान् उत्सव मनाया गया। सारा जगत् शिवमय हो गया। कश्यपमुनि के साथ-साथ सभी देवता हर्षविभोर हो गये। उनके नाम रखे गये – कपाली, पिंगल, भीम, विरूपाक्ष, विलोहित, शास्ता, अजपाद, अहिर्बुध्न्य, शम्भु, चण्ड तथा भव। ये ग्यारहों रूद्र सुरभी के पुत्र कहलाते हैं। ये सुख के आवासस्थान हैं तथा देवताओं की कार्यसिद्धि के लिये शिवरूप से उत्पन्न हुए। ये कश्यपनन्दन वीरवर रूद्र महान् बल-पराक्रमसम्पन्न थे; इन्होंने संग्राम में देवताओं की सहायता करके दैत्यों का संहार कर डाला। उन्हीं रुद्रों की कृपा से इन्द्र आदि देवगण दैत्यों को जीतकर निर्भय हो गये। उनका मन स्वस्थ हो गया और वे अपना-अपना राज्य-कार्य सँभालने लगे। अब भी शिव-स्वरूपधारी वे सभी महारुद्र देवताओं की रक्षा के लिये सदा स्वर्ग में विराजमान रहते हैं। तात! इस प्रकार मैंने तुमसे शंकरजी के ग्यारह रूद्र-अवतारों का वर्णन कर दिया। ये सभी समस्त लोकों के लिये सुखदायक हैं। यह निर्मल आख्यान सम्पूर्ण पापों का विनाशक, धन, यश और आयु का प्रदाता तथा सम्पूर्ण मनोरथों को पूर्ण करने वाला है।
(अध्याय १६ - १८)