शिवजी के 'दुर्वासावतार' तथा 'हनुमदवतार' का वर्णन
नन्दीश्वरजी कहते हैं – महामुने! अब तुम शम्भु के एक दूसरे चरित को, जिसमें शंकरजी धर्म के लिये दुर्वासा होकर प्रकट हुए थे, प्रेमपूर्वक श्रवण करो। अनसूया के पति ब्रह्मवेत्ता तपस्वी अत्रि ने ब्रह्माजी के निर्देशानुसार पत्नी सहित ऋक्षकुल पर्वत पर जाकर पुत्रकामना से घोर तप किया। उनके तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर तीनों उनके आश्रम पर गये। उन्होंने कहा कि 'हम तीनों संसार के ईश्वर हैं। हमारे अंश से तुम्हारे तीन पुत्र होंगे, जो त्रिलोकी में विख्यात तथा माता-पिता का यश बढ़ानेवाले होंगे।' यों कहकर वे चले गये। ब्रह्माजी के अंश से चन्द्रमा हुए, जो देवताओं के समुद्र में डाले जाने पर समुद्र से प्रकट हुए थे। विष्णु के अंश से श्रेष्ठ सन्यास-पद्धति की प्रचलित करने वाले 'दत्त' उत्पन्न हुए और रूद्र के अंश से मुनिवर दुर्वासा ने जन्म लिया।
इन दुर्वासा ने महाराज अम्बरीष की परीक्षा की थी। जब सुदर्शन चक्र ने इनका पीछा किया, तब शिवजी के आदेश से अम्बरीष के द्वारा प्रार्थना करने पर चक्र शान्त हुआ। इन्होंने भगवान् राम की परीक्षा की। काल ने मुनि का वेष धारण करके श्रीराम के साथ यह शर्त की थी कि 'मेरे साथ बात करते समय श्रीराम के पास कोई न आये; जो आयेगा उसका निर्वासन कर दिया जायगा।' दुर्वासाजी ने हठ करके लक्ष्मण को भेजा, तब श्रीराम ने तुरंत लक्ष्मण का त्याग कर दिया। इन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण की परीक्षा की और उनको श्रीरुक्मिणी सहित रथ में जोता। इस प्रकार दुर्वासा मुनि ने अनेक विचित्र चरित्र किये।
मुने! अब इसके बाद तुम हनुमानजी का चरित्र श्रवण करो। हनुमद्रूप से शिवजी ने बड़ी उत्तम लीलाएँ की हैं। विप्रवर! इसी रूप से महेश्वर ने भगवान् राम का परम हित किया था। वह सारा चरित्र सब प्रकार के सुखों का दाता है, उसे तुम प्रेमपूर्वक सुनो। एक समय की बात है, जब अत्यन्त अद्भुत लीला करने वाले गुणशाली भगवान् शम्भु को विष्णु के मोहिनी रूप का दर्शन प्राप्त हुआ, तब वे कामदेव के बाणों से आहत हुए की तरह क्षुब्ध हो उठे। उस समय उन परमेश्वर ने रामकार्य की सिद्धि के लिये अपना वीर्यपात किया। तब सप्तर्षियों ने उस वीर्य को पत्रपुटक में स्थापित कर लिया; क्योंकि शिवजी ने ही रामकार्य के लिये आदरपूर्वक उनके मन में प्रेरणा की थी। तत्पश्चात् उन महर्षियों ने शम्भु के उस वीर्य को रामकार्य की सिद्धि के लिये गौतमकन्या अंजनी में कान के रास्ते स्थापित कर दिया। तब समय आने पर उस गर्भ से शम्भु महान् बल-पराक्रमसम्पन्न वानर-शरीर धारण करके उत्पन्न हुए, उनका नाम हनुमान् रखा गया। महाबली कपीश्वर हनुमान् जब शिशु ही थे, उसी समय उदय होते हुए सूर्यबिम्ब को छोटा-सा फल समझकर तुरंत ही निगल गये। जब देवताओं ने उनकी प्रार्थना की, तब उन्होंने उसे महाबली सूर्य जानकर उगल दिया। तब देवर्षियों ने उन्हें शिव का अवतार माना और बहुत-सा वरदान दिया। तदनन्तर हनुमान् अत्यन्त हर्षित होकर अपनी माता के पास गये और उन्होंने यह सारा वृतान्त आदरपूर्वक कह सुनाया। फिर माता की आज्ञा से धीर-वीर कपि हनुमान् ने नित्य सूर्य के निकट जाकर उनसे अनायास ही सारी विद्याएँ सीख लीं। तदनन्तर रूद्र के अंशभूत कपिश्रेष्ठ हनुमान् सूर्य की आज्ञा से सूर्यांश से उत्पन्न हुए सुग्रीव के पास चले गये। इसके लिये उन्हें अपनी माता से भी अनुज्ञा मिल चुकी थी।
तदनन्तर नन्दीश्वर ने भगवान् राम का सम्पूर्ण चरित्र संक्षेप से वर्णन करके कहा – 'मुने! इस प्रकार कपिश्रेष्ठ हनुमान् ने सब तरह से श्रीराम का कार्य पूरा किया, नाना प्रकार की लीलाएँ की, असुरों का मान-मर्दन किया, भूतल पर रामभक्ति की स्थापना की और स्वयं भक्ताग्रगण्य होकर सीता-राम को सुख प्रदान किया। वे रुद्रावतार ऐश्वर्यशाली हनुमान् लक्ष्मण के प्राणदाता, सम्पूर्ण देवताओं के गर्वहारी और भक्तों का उद्धार करने वाले हैं। महावीर हनुमान् सदा रामकार्य में तत्पर रहने वाले, लोक में 'रामदूत' नाम से विख्यात, दैत्यों के संहारक और भक्तवत्सल हैं। तात! इस प्रकार मैंने हनुमानजी का श्रेष्ठ चरित – जो धन, कीर्ति और आयु का वर्धक तथा सम्पूर्ण अभीष्ट फलों का दाता है – तुमसे वर्णन कर दिया। जो मनुष्य इस चरित को भक्तिपूर्वक सुनता है अथवा समाहित चित्त से दूसरे को सुनाता है, वह इस लोक में सम्पूर्ण भोगों को भोगकर अन्त में परम मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।
(अध्याय १९ - २०)