शिवजी के पिप्पलाद-अवतार के प्रसंग में देवताओं की दधीचि मुनि से अस्थि-याचना, दधीचि का शरीरत्याग, वज्र-निर्माण तथा उसके द्वारा वृत्रासुर का वध, सुवर्चा का देवताओं को शाप, पिप्पलाद का जन्म और उनका विस्तृत वृतान्त

नन्दीश्वर ने कहा – महाबुद्धिमान् सनत्कुमारजी! अब तुम अत्यन्त आह्लादपूर्वक महेश्वर के 'पिप्पलाद' नामक परमोत्कृष्ट अवतार का वर्णन श्रवण करो। यह उत्तम आख्यान भक्ति की वृद्धि करने वाला है। मुनीश्वर! एक समय दैत्यों ने वृत्रासुर की सहायता से इन्द्र आदि समस्त देवताओं को पराजित कर दिया। तब उन सभी देवताओं ने सहसा दधीचि के आश्रम में अपने-अपने अस्त्रों को फेंककर तत्काल ही हार मान ली। तत्पश्चात् मारे जाते हुए वे इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवता तथा देवर्षि शीघ्र ही ब्रह्मलोक में जा पहुँचे और वहाँ ब्रह्माजी से उन्होंने अपना वह दुखड़ा कह सुनाया। देवताओं का वह कथन सुनकर लोकपितामह ब्रह्मा ने सारा रहस्य यथार्थरूप से प्रकट कर दिया कि 'यह सब त्वष्टा की करतूत है, त्वष्टा ने ही तुम लोगों का वध करने के लिये तपस्या द्वारा इस महातेजस्वी वृत्रासुर को उत्पन्न किया है। यह दैत्य महान् आत्मबल से सम्पन्न तथा समस्त दैत्यों का अधिपति है। अतः अब ऐसा प्रयत्न करो जिससे इसका वध हो सके। बुद्धिमान् देवराज! मैं धर्म के कारण इस विषय में एक उपाय बतलाता हूँ, सुनो। जो दधीचि नाम वाले महामुनि हैं, वे तपस्वी और जितेन्द्रिय हैं। उन्होंने पूर्वकाल में शिवजी की समाराधना करके वज्र-सरीखी अस्थियाँ हो जाने का वर प्राप्त किया है। अतः तुम लोग उनसे उनकी हड्डियों के लिये याचना करो। वे अवश्य दे देंगे। फिर उन अस्थियों से वज्रदण्ड का निर्माण करके तुम निश्चय ही उससे वृत्रासुर को मार डालना।'

नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! ब्रह्मा का यह वचन सुनकर इन्द्र देवगुरु बृहस्पति तथा देवताओं को साथ ले तुरंत ही दधीचि ऋषि के उत्तम आश्रम पर आये। वहाँ इन्द्र ने सुवर्चा सहित दधीचि मुनि का दर्शन किया और आदरपूर्वक हाथ जोड़कर उन्हें नमस्कार किया; फिर देवगुरु बृहस्पति तथा अन्य देवताओं ने भी नम्रतापूर्वक उन्हें सिर झुकाया। दधीचि मुनि विद्वानों में श्रेष्ठ तो थे ही, वे तुरंत ही उसके अभिप्राय को ताड़ गये। तब उन्होंने अपनी पत्नी सुवर्चा को अपने आश्रम से अन्यत्र भेज दिया। तत्पश्चात् देवताओं सहित देवराज इन्द्र, जो स्वार्थ-साधन में बड़े दक्ष हैं, अर्थशास्त्र का आश्रय लेकर मुनिवर से बोले।

इन्द्र ने कहा – 'मुने! आप महान् शिवभक्त, दाता तथा शरणागतरक्षक हैं; इसीलिये हम सभी देवता तथा देवर्षि त्वष्टा द्वारा अपमानित होने के कारण आपकी शरण में आये हैं। विप्रवर! आप अपनी वज्रमयी अस्थियाँ हमें प्रदान कीजिये; क्योंकि आपकी हड्डी से वज्र का निर्माण करके मैं उस देवद्रोही का वध करूँगा।' इन्द्र के यों कहने पर परोपकारपरायण दधीचि मुनि ने अपने स्वामी शिव का ध्यान करके अपना शरीर छोड़ दिया। उनके समस्त बन्धन नष्ट हो चुके थे, अतः वे तुरंत ही ब्रह्मलोक को चले गये। उस समय वहाँ पुष्पों की वर्षा होने लगी और सभी लोग आश्चर्यचकित हो गये। तदनन्तर इन्द्र ने शीघ्र ही सुरभि गौ को बुलाकर उस शरीर को चटवाया और उन हड्डियों से अस्त्र-निर्माण करने के लिये विश्वकर्मा को आदेश दिया। तब इन्द्र की आज्ञा पाकर विश्वकर्मा ने शिवजी के तेज से सुदृढ़ हुई मुनि की वज्रमयी हड्डियों से सम्पूर्ण अस्त्रों की कल्पना की। उनके रीढ़ि की हड्डी से वज्र और ब्रह्मशिर नामक बाण बनाया तथा अन्य अस्थियों से अन्यान्य बहुत-से अस्त्रों का निर्माण किया। तब शिवजी के तेज से उत्कर्ष को प्राप्त हुए इन्द्र ने उस वज्र को लेकर क्रोधपूर्वक वृत्रासुर पर आक्रमण किया, ठीक उसी तरह जैसे रूद्र ने यमराज पर धावा किया था। फिर तो कवच आदि से भलिभाँति सुरक्षित हुए इन्द्र ने तुरंत ही पराक्रम प्रकट करके उस वज्र द्वारा वृत्रासुर के पर्वतशिखर-सरीखे सिर को काट गिराया। तात! उस समय स्वर्गवासियों ने महान् विजयोत्सव मनाया, इन्द्र पर पुष्पों की वृष्टि होने लगी और सभी देवता उनकी स्तुति करने लगे। तदनन्तर महान् आत्मबल से सम्पन्न दधीचि मुनि की पतिव्रता पत्नी सुवर्चा पति के आज्ञानुसार अपने आश्रम के भीतर गयी। वहाँ देवताओं के लिये पति को मरा हुआ जानकर वह देवताओं को शाप देते हुए बोली।

सुवर्चा ने कहा – 'अहो! इन्द्र सहित ये सभी देवता बड़े दुष्ट हैं और अपना कार्य सिद्ध करने में निपुण, मूर्ख तथा लोभी हैं; इसलिये ये सब-के-सब आज से मेरे शाप से पशु हो जायँ।' इस प्रकार उस तपस्वी मुनिपत्नी सुवर्चा ने उन इन्द्र आदि समस्त देवताओं को शाप दे दिया। तत्पश्चात् उस पतिव्रता ने पतिलोक में जाने का विचार किया। फिर तो मनस्विनी सुवर्चा ने परम पवित्र लकड़ियों द्वारा एक चिता तैयार की। उसी समय शंकरजी की प्रेरणा से सुखदायिनी आकाशवाणी हुई, वह उस मुनिपत्नी सुवर्चा को आश्वासन देती हुई बोली।

आकाशवाणी ने कहा – प्राज्ञे! ऐसा साहस मत करो, मेरी उत्तम बात सुनो। देवि! तुम्हारे उदर में मुनि का तेज वर्तमान है, तुम उसे यत्नपूर्वक उत्पन्न करो। पीछे तुम्हारी जैसी इच्छा हो, वैसा करना; क्योंकि शास्त्र का ऐसा आदेश है कि गर्भवती को अपना शरीर नहीं जलाना चाहिये अर्थात् सती नही होना चाहिये।

नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुनीश्वर! यों कहकर वह आकाशवाणी उपराम हो गयी। उसे सुनकर वह मुनिपत्नी क्षणभर के लिये विस्मय में पड़ गयी। परंतु उस सती-साध्वी सुवर्चा को तो पतिलोक की प्राप्ति ही अभीष्ट थी, अतः उसने बैठकर पत्थर से अपने उदर को विदीर्ण कर डाला। तब उसके पेट से मुनिवर दधीचि का वह गर्भ बाहर निकल आया। उसका शरीर परम दिव्य और प्रकाशमान था तथा वह अपनी प्रभा से दसों दिशाओं को उद्भासित कर रहा था। तात! दधीचि के उत्तम तेज से प्रादुर्भूत हुआ वह गर्भ अपनी लीला करने में समर्थ साक्षात् रूद्र का अवतार था। मुनिप्रिया सुवर्चा ने दिव्यस्वरुपधारी अपने उस पुत्र को देखकर मन-ही-मन समझ लिया कि यह रूद्र का अवतार है। फिर तो वह महासाध्वी परमानन्दमग्न हो गयी और शीघ्र ही उसे नमस्कार करके उसकी स्तुति करने लगी। मुनीश्वर! उसने उस स्वरूप को अपने हृदय में धारण कर लिया। तदनन्तर पतिलोक की कामनावाली विमलेक्षणा माता सुवर्चा मुसकराकर अपने उस पुत्र में परम स्नेहपूर्वक बोली।

सुवर्चा ने कहा – तात परमेशान! तुम इस अश्वत्थ वृक्ष के निकट चिरकाल तक स्थित रहो। महाभाग! तुम समस्त प्राणियों के लिये सुखदाता होओ और अब मुझे प्रेमपूर्वक पतिलोक में जाने के लिये आज्ञा दो। वहाँ पति के साथ रहती हुई मैं रूद्ररूपधारी तुम्हारा ध्यान करती रहूँगी।

नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! साध्वी सुवर्चा ने अपने पुत्र से यों कहकर परम समाधि द्वारा पति का अनुगमन किया। मुनिवर! इस प्रकार दधीचिपत्नी सुवर्चा शिवलोक में पहुँचकर अपने पति से जा मिली और आनन्दपूर्वक शंकरजी की सेवा करने लगी। तात! इतने में ही हर्ष में भरे हुए इन्द्र सहित समस्त देवता मुनियों के साथ आमन्त्रित हुए की तरह शीघ्रता से वहाँ आ पहुँचे। तब प्रसन्न बुद्धिवाले ब्रह्मा ने उस बालक का नाम पिप्पलाद रखा। फिर सभी देवता महोत्सव मनाकर अपने-अपने धाम को चले गये। तदनन्तर महान् ऐश्वर्यशाली रुद्रावतार पिप्पलाद उसी अश्वत्थ के नीचे लोकों की हितकामना से चिरकालिक तप में प्रवृत्त हुए। लोकाचार का अनुसरण करने वाले पिप्पलाद का यों तपस्या करते हुए बहुत बड़ा समय व्यतीत हो गया।

तदनन्तर पिप्पलाद ने राजा अनरण्य की कन्या पद्मा से विवाह करके तरुण हो उसके साथ विलास किया। उन मुनि के दस पुत्र उत्पन्न हुए, जो सब-के-सब पिता के ही समान महात्मा और उग्र तपस्वी थे। वे अपनी माता पद्मा के सुख की वृद्धि करने वाले हुए। इस प्रकार महाप्रभु शंकर के लीलावतार मुनिवर पिप्पलाद ने महान् ऐश्वर्यशाली तथा नाना प्रकार की लीलाएँ की। उन कृपालु ने जगत् में शनैश्चर की पीड़ा को, जिसका निवारण करना सबकी शक्ति के बाहर था, देखकर लोगों को प्रसन्नतापूर्वक यह वरदान दिया कि 'जन्म से लेकर सोलह वर्ष तक की आयु वाले मनुष्यों को तथा शिवभक्तों को शनि की पीड़ा नहीं हो सकती। यह मेरा वचन सर्वथा सत्य है। यदि कहीं शनि मेरे वचन का अनादर करके उन मनुष्यों को पीड़ा पहुँचायेगा तो वह निस्संदेह भस्म हो जायगा।' तात! इसलिये उस भय से भीत हुआ ग्रहश्रेष्ठ शनैश्चर विकृत होने पर भी वैसे मनुष्यों को कभी पीड़ा नहीं पहुँचाता। मुनिवर! इस प्रकार मैंने लीला से मनुष्यरूप धारण करने वाले पिप्पलाद का उत्तम चरित तुम्हे सुना दिया, यह सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाला है। गाधि, कौशिक और महामुनि पिप्पलाद – ये तीनों स्मरण किये जाने पर शनैश्चरजनित पीड़ा का नाश कर देते हैं। वे मुनिवर दधीचि, जो परम ज्ञानी, सत्पुरुषों के प्रिय तथा महान् शिवभक्त थे, धन्य हैं, जिनके यहाँ स्वयं आत्मज्ञानी महेश्वर पिप्पलाद नामक पुत्र होकर उत्पन्न हुए। तात! यह आख्यान निर्दोष, स्वर्गप्रद, कुग्रहजनित दोषों का संहारक, सम्पूर्ण मनोरथों का पूरक और शिवभक्ति की विशेष वृद्धि करने वाला है।

(अध्याय २१ - २५)