भगवान् शिव के द्विजेश्वरावतार की कथा – राजा भद्रायु तथा रानी कीर्तिमालिनी की धार्मिक द्रढ़ता की परीक्षा
तदनन्तर वैश्यनाथ अवतार का वर्णन करके नन्दीश्वर ने द्विजेश्वरावतार का प्रंसग चलाया। वे बोले – तात! पहले जिन नृपश्रेष्ठ भद्रायु का परिचय दिया गया था और जिनपर भगवान् शिव ने ऋषभरूप से अनुग्रह किया था, उन्हीं नरेश के धर्म की परीक्षा लेने के लिये वे भगवान् फिर द्विजेश्वर रूप से प्रकट हुए थे। ऋषभ के प्रभाव से रणभूमि में शत्रुओं पर विजय पाकर शक्तिशाली राजकुमार भद्रायु जब राज्य सिंहासन पर आरूढ़ हुए, तब राजा चन्द्रांगद तथा रानी सीमन्तिनी की बेटी सती-साध्वी कीर्तिमालिनी के साथ उनका विवाह हुआ। किसी समय राजा भद्रायु ने अपनी धर्मपत्नी के साथ वसन्त ऋतू में वन-विहार करने के लिये एक गहन वन में प्रवेश किया। उनकी पत्नी शरणागतजनों का पालन करने वाली थी। राजा का भी ऐसा ही नीयम था। उन राजदम्पति की धर्म में कितनी दृढ़ता है, इसकी परीक्षा के लिये पार्वती सहित भगवान् शिव ने एक लीला रची। शिवा और शिव उस वन में ब्राह्मणी और ब्राह्मण के रूप में प्रकट हुए। उन दोनों ने लीलापूर्वक एक मायामाय व्याघ्र का निर्माण किया। वे दोनों भय से विह्वल हो व्याघ्र से थोड़ी ही दूर आगे रोते-चिल्लाने भागने लगे और व्याघ्र उनका पीछा करने लगा। राजा ने उन्हें इस अवस्था में देखा। वे ब्राह्मण दम्पति भी भय से विह्वल हो महाराज की शरण में गये और इस प्रकार बोले।
ब्राह्मण दम्पति ने कहा – महाराज! हमारी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये। वह व्याघ्र हम दोनों को खा जाने के लिये आ रहा है। समस्त प्राणियों को काल के समान भय देनेवाला यह हिंसक प्राणी हमें अपना आहार बनाये, इसके पूर्व ही आप हम दोनों को बचा लीजिये।
उन दोनों का यह करुणक्रन्दन सुनकर महावीर राजा ने ज्यों ही धनुष उठाया, त्यों ही वह व्याघ्र उनके निकट आ पहुँचा। उसने ब्राह्मणी को पकड़ लिया। वह बेचारी 'हा नाथ! हा नाथ! हा प्राणवल्लभ! हा शम्भो! हा जगद्गुरो!' इत्यादि कहकर रोने और विलाप करने लगी। व्याघ्र बड़ा भयानक था। उसने ज्यों ही ब्राह्मणी को अपना ग्रास बनाने की चेष्टा की, त्यों ही भद्रायु ने तीखे बाणों से उसके मर्म में आघात क्या; परंतु उन बाणों से उस महाबली व्याघ्र को तनिक भी व्यथा नहीं हुई। वह ब्राह्मणी को बलपूर्वक घसीटता हुआ तत्काल दूर निकल गया। अपनी पत्नी को बाघ के पंजे में पड़ी देख ब्राह्मण को बड़ा दुःख हुआ और वह बारंबार रोने लगा। देर तक रोकर उसने राजा भद्रायु से कहा – 'राजन् तुम्हारे वे बड़े-बड़े अस्त्र कहाँ हैं? दुःखियों की रक्षा करने वाला तुम्हारा विशाल धनुष कहाँ है? सुना था तुम में बारह हजार बड़े-बड़े हाथियों का बल है। वह क्या हुआ? तुम्हारे शंख, खड्ग तथा मन्त्रास्त्र-विद्या से क्या लाभ हुआ? दूसरों को क्षीण होने से बचाना क्षत्रिय का परम धर्म है। धर्मज्ञ राजा अपना धन और प्राण देकर भी शरण में आये हुए दीन-दुःखियों की रक्षा करते हैं। जो पीड़ितों की प्राणरक्षा नहीं कर सकते, ऐसे लोगों के लिये तो जीने की अपेक्षा मर जाना ही अच्छा है।'
इस प्रकार ब्राह्मण का विलाप और उसके मुख से अपने पराक्रम की निन्दा सुनकर राजा ने शोक से मन-ही-मन इस प्रकार विचार किया – 'अहो! आज भाग्य के उलट-फेर से मेरा पराक्रम नष्ट हो गया। मेरे धर्म का भी नाश हो गया। अतः अब मेरी सम्पदा, राज्य और आयु का भी निश्चय ही नाश हो जायगा। यों विचार कर राजा भद्रायु ब्राह्मण के चरणों में गिर पड़े और उसे धीरज बँधाते हुए बोले – 'ब्रह्मन्! मेरा पराक्रम नष्ट हो गया है। महामते! मुझ क्षत्रियाधम पर कृपा करके शोक छोड़ दीजिये। मैं आपको मनोवांछित पदार्थ दूँगा। यह राज्य, यह रानी और मेरा यह शरीर सब कुछ आपके अधीन हैं। बोलिये, आप क्या चाहते हैं?'
ब्राह्मण बोले – राजन्! अंधे को दर्पण से क्या काम? जो भिक्षा माँगकर जीवन-निर्वाह करता हो, वह बहुत-से घर लेकर क्या करेगा। जो मूर्ख है, उसे पुस्तक से क्या काम तथा जिसके पास स्त्री नहीं है, वह धन लेकर क्या करेगा? मेरी पत्नी चली गयी, मैंने कभी काम-सुख का उपभोग नहीं किया। अतः कामभोग के लिये आप अपनी इस बड़ी रानी को मुझे दे दीजिये।
राजा ने कहा – ब्रह्मन्! क्या यही तुम्हारा धर्म है? क्या तुम्हें गुरु ने यही उपदेश किया है? क्या तुम नहीं जानते कि परायी स्त्री का स्पर्श स्वर्ग एवं सुयश की हानि करने वाला है? परस्त्री के उपभोग से जो पाप कमाया जाता है, उसे सैकड़ों प्रायश्चित्तों द्वारा भी धोया नहीं जा सकता।
ब्राह्मण बोले – राजन्! मैं अपनी तपस्या से भयंकर ब्रह्महत्या और मदिरा पान जैसे पाप का भी नाश कर डालूँगा। फिर परस्त्री-संगम किस गिनती में है। अतः आप अपनी इस भार्या को मुझे अवश्य दे दीजिये अन्यथा आप निश्चय ही नरक में पड़ेंगे।
ब्राह्मण की इस बात पर राजा ने मन-ही-मन विचार किया कि ब्राह्मण के प्राणों की रक्षा न करने से महापाप होगा, अतः इससे बचने के लिये पत्नी को दे डालना ही श्रेष्ठ है। इस श्रेष्ठ ब्राह्मण को अपनी पत्नी देकर मैं पाप से मुक्त हो शीघ्र ही अग्नि में प्रवेश कर जाऊँगा। मन-ही-मन ऐसा निश्चय करके राजा ने आग जलायी और ब्राह्मण को बुलाकर उसे अपनी पत्नी को दे दिया। तत्पश्चात् स्नान करके पवित्र हो देवताओं को प्रणाम करके उन्होंने अग्नि की दो बार परिक्रमा की और एकाग्रचित्त होकर भगवान् शिव का ध्यान किया। इस प्रकार राजा को अग्नि में गिरने के लिये उद्यत देख जगतपति भगवान् विश्वनाथ सहसा वहाँ प्रकट हो गये। उनके पाँच मुख थे। मस्तक पर चन्द्रकला आभूषण का काम दे रही थी। कुछ-कुछ पीले रंग की जटा लटकी हुई थी। वे कोटि-कोटि सूर्यों के समान तेजस्वी थे। हाथों में त्रिशूल, खट्वांग, कुठार, ढाल, मृग, अभय, वरद और पिनाक धारण किये, बैल की पीठ पर बैठे हुए भगवान् नीलकंठ को राजा ने अपने सामने प्रत्यक्ष देखा। उनके दर्शनजनित आनन्द से युक्त हो राजा भद्रायु ने हाथ जोड़कर स्तवन किया।
राजा के स्तुति करने पर पार्वती के साथ प्रसन्न हुए महेश्वर ने कहा – राजन्! तुमने किसी अन्य का चिन्तन न करके जो सदा सर्वदा मेरा पूजन किया है, तुम्हारी इस भक्ति के कारण और तुम्हारे द्वारा की हुई इस पवित्र स्तुति को सुनकर मैं बहुत प्रसन्न हुआ हूँ। तुम्हारे भक्तिभाव की परीक्षा के लिये मैं स्वयं ब्राह्मण बनकर आया था। जिसे व्याघ्र ने ग्रस लिया था, वह ब्राह्मणी और कोई नहीं, ये गिरिराजनन्दिनी उमादेवी ही थीं। तुम्हारे बाण मारने से भी जिसके शरीर को चोट नहीं पहुँची, वह व्याघ्र मायानिर्मित था। तुम्हारे धैर्य को देखने के लिये ही मैंने तुम्हारी पत्नी को माँगा था, इस कीर्तिमालिनी की और तुम्हारी भक्ति से मैं संतुष्ट हूँ। तुम कोई दुर्लभ वर माँगों, मैं उसे दूँगा।
राजा बोले – देव! आप साक्षात् परमेश्वर हैं। आपने सांसारिक ताप से घिरे हुए मुझ अधम को तो प्रत्यक्ष दर्शन दिया है, यही मेरे लिये महान् वर है। देव! आप वरदाताओं में श्रेष्ठ हैं। आपसे मैं दूसरा कोई वर नहीं माँगता। मेरी यही इच्छा है, कि मैं, मेरी रानी, मेरे माता-पिता, पद्माकर वैश्य और उसके पुत्र सुनय – इन सबको आप अपना पार्श्ववर्ती सेवक बना लीजिये।
तत्पश्चात् रानी कीर्तिमालिनी ने प्रणाम करके अपनी भक्ति से भगवान् शंकर को प्रसन्न किया और यह उत्तम वर माँगा – 'महादेव! मेरे पिता चन्द्रांगद और माता सीमन्तिनी इन दोनों को भी आपके समीप निवास प्राप्त हो। ' भक्तवत्सल भगवान् गौरीपति ने प्रसन्न होकर; एवमस्तु' कहा और उन दोनों पति-पत्नी को इच्छानुसार वर देकर वे क्षणभर में अन्तर्धान हो गये। इधर राजा ने भगवान् शंकर का प्रसाद प्राप्त करके रानी कीर्तिमालिनी के साथ प्रिय विषयों का उपभोग किया और दस हजार वर्षों तक राज्य करने के पश्चात् अपने पुत्रों को राज्य देकर उन्होंने शिवजी के परम पद को प्राप्त किया। राजा और रानी दोनों ही भक्तिपूर्वक महादेवजी की पूजा करके भगवान् शिव के धाम को प्राप्त हुए। यह परम पवित्र, पापनाशक एवं अत्यन्त गोपनीय भगवान् शिव का विचित्र गुणानुवाद जो विद्वानों को सुनाता है अथवा स्वयं भी शुद्धचित्त होकर पढ़ता है, वह इस लोक में भोग-ऐश्वर्य को प्राप्त कर अन्त में भगवान् शिव को प्राप्त होता है।
(अध्याय २६ - २७)