भगवान् शिव का यतिनाथ एवं हंस नामक अवतार

नन्दीश्वर कहते हैं – मुने! अब मैं परमात्मा शिव के यतिनाथ नामक अवतार का वर्णन करता हूँ। मुनीश्वर! अर्बुदाचल नामक पर्वत के समीप एक भील रहता था, जिसका नाम था आहुक। उसकी पत्नी को लोग आहुका कहते थे। वह उत्तम व्रत का पालन करने वाली थी। वे दोनों पति-पत्नी महान् शिवभक्त थे और शिव की आराधना-पूजा में लगे रहते थे। एक दिन वह शिवभक्त भील अपनी पत्नी के लिये आहार की खोज करने के निमित्त जंगल में बहुत दूर चला गया। इसी समय संध्याकाल में भील की परीक्षा लेने के लिये भगवान् शंकर संन्यासी का रूप धारण करके घर आये। इतने में ही उस घर का मालिक भील भी चला गया और उसने बड़े प्रेम से उन यतिराज का पूजन किया। उसके मनोभाव की परीक्षा के लिये उन यतीश्वर ने दीन वाणी में कहा – 'भील! आज रात में यहाँ रहने के लिये मुझे स्थान दे दो। सबेरा होते ही चला जाऊँगा, तुम्हारा सदा कल्याण हो।'

भील बोला – स्वामीजी! आप ठीक कहते हैं, तथापि मेरी बात सुनिये। मेरे घर में स्थान तो बहुत थोड़ा है। फिर उसमें आपका रहना कैसे हो सकता है?

भील की यह बात सुनकर स्वामीजी वहाँ से चले जाने को उद्यत हो गये।

तब भीलनी ने कहा – प्राणनाथ! आप स्वामीजी को स्थान दे दीजिये। घर आये हुए अतिथि को निराश न लौटाइये। अन्यथा हमारे गृहस्थ-धर्म के पालन में बाधा पहुंचेगी। आप स्वामीजी के साथ सुखपूर्वक घर के भीतर रहिये और मैं बड़े-बड़े अस्त्र-शस्त्र लेकर बाहर खड़ी रहूँगी।

पत्नी की यह बात सुनकर भील ने सोचा – स्त्री को घर से बाहर निकालकर मैं भीतर कैसे रह सकता हूँ? संन्यासीजी का अन्यत्र जाना भी मेरे लिये अधर्मकारक ही होगा। ये दोनों ही कार्य एक गृहस्थ के लिये सर्वथा अनुचित हैं। अतः मुझे ही घर के बाहर रहना चाहिये। हो होनहार होगी, वह तो होकर ही रहेगी। ऐसा सोच आग्रह करके उसने स्त्री को और संन्यासीजी को तो सानन्द घर के भीतर रख दिया और स्वयं वह भील अपने आयुध पास रखकर घर से बाहर खड़ा हो गया। रात में जंगली क्रूर एवं हिंसक पशु उसे पीड़ा देने लगे। उसने भी यथाशक्ति उनसे बचने के लिये महान् यत्न किया। इस तरह यत्न करता हुआ वह भील बलवान् होकर भी प्रारब्धप्रेरित हिंसक पशुओं द्वारा बलपूर्वक खा लिया गया। प्रातःकाल उठकर जब यति ने देखा कि हिंसक पशुओं ने वनवासी भील को खा डाला है, तब उन्हें बड़ा दुःख हुआ। संन्यासी को दुःखी देख भीलनी दुःख से व्याकुल होने पर भी धैर्यपूर्वक उस दुःख को दबाकर यों बोली – 'स्वामीजी! आप दुःखी किस लिये हो रहे हैं? इन भीलराज का तो इस समय कल्याण ही हुआ। ये धन्य और कृतार्थ हो गये, जो इन्हें ऐसी मृत्यु प्राप्त हुई। मैं चिता की आग में जलकर इनका अनुसरण करूँगी। आप प्रसन्नतापूर्वक मेरे लिये एक चिता तैयार कर दें; क्योंकि स्वामी का अनुसरण करना स्त्रियों के लिये सनातन धर्म है।' उसकी बात सुनकर संन्यासीजी ने स्वयं चिता तैयार की और भीलनी ने अपने धर्म के अनुसार उसमें प्रवेश किया। इसी समय भगवान् शंकर अपने साक्षात् स्वरूप से उसके सामने प्रकट हो गये और उसकी प्रशंसा करते हुए बोले – 'तुम धन्य हो, धन्य हो। मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। तुम इच्छानुसार वर माँगो। तुम्हारे लिये मुझे कुछ भी अदेय नहीं है।'

भगवान् शंकर का यह परमानन्ददायक वचन सुनकर भीलनी को बड़ा सुख मिला। वह ऐसी विभोर हो गयी कि इसे किसी भी बात की सुघ नहीं रही। उसकी इस अवस्था को लक्ष्य करके भगवान् शंकर और भी प्रसन्न हुए और उसके न माँगनेपर भी उसे वर देते हुए बोले – 'मेरा जो यतिरूप है, यह भावी जन्म में हंस रूप से प्रकट होगा और प्रसन्नतापूर्वक तुम दोनों का परस्पर संयोग करायेगा। यह भील निषधदेश की उत्तम राजधानी में राजा वीरसेन का श्रेष्ठ पुत्र होगा। उस समय नल के नाम से इसकी ख्याति होगी और तुम विदर्भ नगर में भीमराज की पुत्री दमयन्ती होओगी। तुम दोनों मिलकर राजभोग भोगने के पश्चात् वह मोक्ष प्राप्त करोगे, जो बड़े-बड़े योगीश्वरों के लिये भी दुर्लभ है।'

नन्दीश्वर कहते हैं – मुने! ऐसा कहकर भगवान् शिव उस समय लिंगरूप में स्थित हो गये। वह भील अपने धर्म से विचलित नहीं हुआ था, अतः उसी के नाम पर उस लिंग को 'अचलेश' संज्ञा दी गयी। दूसरे जन्म में वह आहुक नामक भील नैषध नगर में वीरसेन का पुत्र हो महाराज नल के नाम से विख्यात हुआ और आहुका नामक की भीलनी हुई और वे यतिनाथ शिव वहाँ हंसरूप में प्रकट हुए। उन्होंने दमयन्ती का नल के साथ विवाह कराया। पूर्वजन्म के सत्कारजनित पुण्य से प्रसन्न हो भगवान् शिव ने हंस का रूप धारण कर उन दोनों को सुख दिया। हंसावतारधारी शिव भाँति-भाँति की बातें करने और संदेश पहुँचाने में कुशल थे। वे नल और दमयन्ती दोनों के लिये परमानन्ददायक हुए।

(अध्याय २८)