भगवान् शिव के कृष्णदर्शन नामक अवतार की कथा
नन्दीश्वर कहते हैं – सनत्कुमारजी! भगवान् शम्भु के एक उत्तम अवतार का नाम कृष्णदर्शन है, जिसने राजा नभग को ज्ञान प्रदान किया था। उसका वर्णन करता हूँ, सुनो। श्राद्धदेव नामक मनु के जो इक्ष्वाकु आदि पुत्र थे, उनमें नवम का नाम नभग था, जिनका पुत्र नाभाग नाम से प्रसिद्ध हुआ। नाभाग के ही पुत्र अम्बरीष हुए, जो भगवान् विष्णु के भक्त थे तथा जिनकी ब्राह्मणभक्ति देखकर उनके ऊपर महर्षि दुर्वासा प्रसन्न हुए थे। मुने! अम्बरीष के पितामह जो नभग कहे गये हैं, उनके चरित्र का वर्णन सुनो। उन्हीं को भगवान् शिव ने ज्ञान प्रदान किया था। मनुपुत्र नभग बड़े बुद्धिमान् थे। उन्होंने विद्याध्ययन के लिये दीर्घकाल तक इन्द्रियसंयमपूर्वक गुरुकुल में निवास किया। इसी बीच में इक्ष्वाकु आदि भाइयों ने नभग के लिये कोई भाग न देकर पिता की सम्पत्ति आपस में बाँट ली और अपना-अपना भाग लेकर वे उत्तम रीति से राज्य का पालन करने लगे। उन सबने पिता की आज्ञा से ही धन का बँटवारा किया था। कुछ काल के पश्चात् ब्रह्मचारी नभग गुरुकुल से सांगोपांग वेदों का अध्ययन करके वहाँ आये। उन्होंने देखा सब भाई सारी सम्पत्ति का बँटवारा करके अपना-अपना भाग ले चुके हैं। तब उन्होंने भी बड़े स्नेह से दायभाग पाने की इच्छा रखकर अपने इक्ष्वाकु आदि बन्धुओं से कहा – 'भाइयो! मेरे लिये भाग दिये बिना ही आप लोगों ने आपस में सारी सम्पत्ति का बँटवारा कर लिया। अतः अब प्रसन्नतापूर्वक मुझे भी हिस्सा दीजिये। मैं अपना दायभाग लेने के लिये ही यहाँ आया हूँ।'
भाई बोले – जब सम्पत्ति का बँटवारा हो रहा था, उस समय हम तुम्हारे लिये भाग देना भूल गये थे। अब इस समय पिताजी को ही तुम्हारे हिस्से में देते हैं। तुम उन्हीं को ले लो, इसमें संशय नहीं है।
भाइयों का यह वचन सुनकर नभग को बड़ा विस्मय हुआ। वे पिता के पास जाकर बोले – 'तात! मैं विद्याध्ययन के लिये गुरुकुल में गया था और वहाँ अब तक ब्रह्मचारी रहा हूँ। इसी बीच में भाइयों ने मुझे छोड़कर आपस में धन का बँटवारा कर लिया। वहाँ से लौटकर जब मैंने अपने हिस्से के बारे में उनसे पूछा, तब उन्होंने आपको मेरा हिस्सा बता दिया। अतः उसके लिये मैं आपकी सेवा में आया हूँ।' नभग की वह बात सुनकर पिता को बड़ा विस्मय हुआ। श्राद्धदेव ने पुत्र को आश्वासन देते हुए कहा – 'बेटा! भाइयों की उस बात पर विश्वास न करो। वह उन्होंने तुम्हें ठगने के लिये कही है। मैं तुम्हारे लिये भोगसाधक उत्तम दाय नहीं बन सकता, तथापि उन वंचकों ने यदि मुझे ही दाय के रूप में तुम्हें दिया है तो मैं तुम्हारी जीविका का एक उपाय बताता हूँ, सुनो। इन दिनों उत्तम बुद्धिवाले आंगिरसगोत्रीय ब्राह्मण एक बहुत बड़ा यज्ञ कर रहे हैं, उस कर्म में प्रत्येक छठे दिन का कार्य वे ठीक-ठीक नहीं समझ पाते – उसमें उनसे भूल हो जाती है। तुम वहाँ जाओ और उन ब्राह्मणों को विश्वेदेवसम्बन्धी दो सूक्त बतला दिया करो। इससे वह शुद्ध रूप से सम्पादित होगा। वह यज्ञ समाप्त होने पर वे ब्राह्मण जब स्वर्ग को जाने लगेंगे, उस समय संतुष्ट होकर अपने यज्ञ से बचा हुआ सारा धन तुम्हें दे देंगे।'
पिता की यह बात सुनकर सत्यवादी नभग बड़ी प्रसन्नता के साथ उस उत्तम यज्ञ में गये। मुने! वहाँ छठे दिन के कर्म में बुद्धिमान् मनुपुत्र ने वैश्वदेवसम्बन्धी दोनों सूक्तों का स्पष्ट रूप से उच्चारण किया। यज्ञ कर्म समाप्त होने पर वे आंगिरस ब्राह्मण यज्ञ से बचा हुआ अपना-अपना धन नभग को देकर स्वर्ग लोक को चले गये। उस यज्ञशिष्ट धन को जब ये ग्रहण करने लगे, उस समय सुन्दर लीला करनेवाले भगवान् शिव तत्काल वहाँ प्रकट हो गये। उनके सारे अंग बड़े सुन्दर थे, परंतु नेत्र काले थे। उन्होंने नभग से पूछा – 'तुम कौन हो? जो इस धन को ले रहे हो। यह तो मेरी सम्पत्ति हैं। तुम्हें किसने यहाँ भेजा है। सब बातें ठीक-ठीक बताओ।'
नभग ने कहा – यह तो यज्ञ से बचा हुआ धन है, जिसे ऋषियों ने मुझे दिया है। अब यह मेरी ही सम्पत्ति है। इसको लेने से तुम मुझे कैसे रोक रहे हो?
कृष्णदर्शन ने कहा – 'तात! हम दोनों के इस झगड़े में तुम्हारे पिता ही पंच रहेंगे। जाकर उनसे पूछो और वे जो निर्णय दें, उसे ठीक-ठीक यहाँ आकर बताओ।' उनकी बात सुनकर नभग ने पिता के पास जाकर उक्त प्रश्न को उनके सामने रखा। श्राद्धदेव को कोई पुरानी बात याद आ गयी और उन्होंने भगवान् शिव के चरण-कमलों का चिन्तन करते हुए कहा।
मनु बोले – 'तात! वे पुरुष जो तुम्हें वह धन लेने से रोक रहे हैं, साक्षात् भगवान् शिव हैं। यों तो संसार की सारी वस्तु ही उन्हीं की है। परंतु यज्ञ से प्राप्त हुए धन पर उनका विशेष अधिकार है। यज्ञ करने से जो धन बच जाता है, उसे भगवान् रुद्र का भाग निश्चित किया गया है। अतः यज्ञावशिष्ट सारी वस्तु ग्रहण करने के अधिकारी सर्वेश्वर महादेवजी ही हैं। उनकी इच्छा से ही दूसरे लोग उस वस्तु को ले सकते हैं। भगवान् शिव तुम पर कृपा करने के लिये ही वहाँ वैसा रूप धारण करके आये हैं। तुम वहीं जाओ और उन्हें प्रसन्न करो। अपने अपराध के लिये क्षमा माँगो और प्रणामपूर्वक उनकी स्तुति करो।' नभग पिता की आज्ञा से वहाँ गये और भगवान् को प्रणाम करके हाथ जोड़कर बोले – 'महेश्वर! यह सारी त्रिलोकी ही आपकी है। फिर यज्ञ से बचे हुए धन के लिये तो कहना ही क्या है। निश्चय ही इसपर आपका अधिकार है, यही मेरे पिता ने निर्णय दिया है। नाथ! मैंने यथार्थ बात न जानने के कारण भ्रमवश जो कहा है मेरे उस अपराध को क्षमा कीजिये। मैं आपके चरणों में मस्तक रखकर यह प्रार्थना करता हूँ कि आप मुझ पर प्रसन्न हो।'
ऐसा कहकर नभग ने अत्यन्त दीनतापूर्ण हृदय से दोनों हाथ जोड़ महेश्वर कृष्णदर्शन का स्तवन किया। उधर श्राद्धदेव ने भी अपने अपराध के लिये क्षमा माँगते हुए भगवान् शिव की स्तुति की। तदनन्तर भगवान् रुद्र ने मन-ही-मन प्रसन्न हो नभग को कृपादृष्टि से देखा और मुस्कारते हुए कहा।
कृष्णदर्शन बोले – 'नभग! तुम्हारे पिता ने जो धर्मानुकुल बात कही है, वह ठीक ही है। तुमने भी साधू-स्वभाव के कारण सत्य ही कहा है। इसलिये मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ और कृपापूर्वक तुम्हें सनातन ब्रह्मतत्त्व का ज्ञान प्रदान करता हूँ। इस समय यह सारा धन मैंने तुम्हें दे दिया। अब तुम इसे ग्रहण करो। इस लोक में निर्विकार रहकर सुख भोगो। अन्त में मेरी कृपा से तुम्हें सद्गति प्राप्त होगी।' ऐसा कहकर भगवान् रुद्र सबके देखते-देखते वहीं अन्तर्धान हो गये। साथ ही श्राद्धदेव भी अपने पुत्र नभग के साथ अपने स्थान को लौट आये। इस लोक में विपुल भोगों का उपभोग करके अन्त में वे भगवान् शिव के धाम में चले गये। ब्रह्मन्! इस प्रकार तुमसे मैंने भगवान् शिव के कृष्णदर्शन नामक अवतार का वर्णन किया। जो इस आख्यान को पढ़ता और सुनता है, उसे सम्पूर्ण मनोवांछित फल प्राप्त हो जाते हैं।
(अध्याय २९)