शिव के सुरेश्वरावतार की कथा, उपमन्यु की तपस्या और उन्हें उत्तम वर की प्राप्ति

नन्दीश्वर कहते हैं – सनत्कुमारजी! अब मैं परमात्मा शिव के सुरेश्वरावतार का वर्णन करूँगा, जिन्होंने धौम्य के बड़े भाई उपमन्यु का हितसाधन किया था। उपमन्यु व्याप्रपाद मुनि के पुत्र थे। उन्होंने पूर्वजन्म में ही सिद्धि प्राप्त कर ली थी और वर्तमान जन्म में मुनिकुमार के रूप में प्रकट हुए थे। वे शैशवावस्था से ही माता के साथ मामा के घर में रहते थे और दैववश दरिद्र थे। एक दिन उन्हें बहुत कम दूध पीने को मिला। इसलिये अपनी माता से वे बारंबार दूध माँग ने लगे। उनकी तपस्विनी माता ने घर के भीतर जाकर एक उपाय किया। उंछवृत्ति से लाये हुए कुछ बीजों को सिल पर पीसा और उन्हें पानी में घोलकर कृत्रिम दूध तैयार किया। फिर बेटे को पुचकारकर वह उसे पीने को दिया। माँ के दिये हुए उस नकली दूध को पीकर बालक उपमन्यु बोले – 'यह तो दूध नहीं है।' इतना कहकर वे फिर रोने लगे। बेटे का रोना-धोना सुनकर माँ को बड़ा दुःख हुआ। अपने हाथ से उपमन्यु की दोनों आँखें पोंछकर उनकी लक्ष्मी-जैसी माता ने कहा – 'बेटा।! हम लोग सदा वन में निवास करते हैं। हमें यहाँ दूध कहाँ से मिल सकता है। भगवान् शिव की कृपा के बिना किसी को दूध नहीं मिलता। वत्स! पूर्वजन्म में भगवान् शिव के लिये जो कुछ किया गया है, वर्तमान जन्म में वही मिलता है।'

माता की यह बात सुनकर उपमन्यु ने भगवान् शिव की आराधना करने का निश्चय किया। वे तपस्या के लिये हिमालय पर्वत पर गये और वहाँ वायु पीकर रहने लगे। उन्होंने आठ ईंटों का एक मन्दिर बनाया और उसके भीतर मिट्टी के शिवलिंग की स्थापना करके उसमें माता पार्वती सहित शिव का आवाहन किया। तत्पश्चात् जंगल के पत्र-पुष्प आदि ले आकर भक्तिभाव से पंचाक्षर-मन्त्र के उच्चारणपूर्वक साम्ब शिव की पूजा करने लगे। माता पार्वती और शिव का ध्यान करके उनकी पूजा करने के पश्चात् वे पंचाक्षर मन्त्र का जप किया करते थे। इस तरह दीर्घकाल तक उन्होंने बड़ी भारी तपस्या की।

मुने! बालक उपमन्यु की तपस्या से चराचर प्राणियों सहित त्रिभुवन संतप्त हो उठा। तब देवताओं की प्रार्थना से उपमन्यु के भक्तिभाव की परीक्षा ले ने के लिये भगवान् शंकर उनके समीप पधारे। उस समय शिव ने देवराज इन्द्र का, पार्वती ने शची का, नन्दीश्वर वृषभ ने ऐरावत हाथी का तथा शिव के गणों ने सम्पूर्ण देवताओं का रूप धारण कर लिया। निकट आने पर सुरेश्वररूपधारी शिव ने बालक उपमन्यु को वर माँगने के लिये कहा। उपमन्यु ने पहले तो शिवभक्ति माँगी, फिर अपने को इन्द्र बताकर जब उन्होंने शिव की निन्दा की, तब उस बालक ने भगवान् शिव के अतिरिक्त दूसरे किसी से कुछ भी लेना अस्वीकार कर दिया। वे इन्द्र को मारकर स्वयं भी मर जाने को उद्यत हो गये। उन्होंने जो अधोरास्त्र चलाया, उसे नन्दी ने पकड़ लिया और उन्होंने अपने को जलाने के लिये जो अग्नि की धारणा की, उसे भगवान् शिव ने शान्त कर दिया। फिर वे सब-के-सब अपने यथार्थ स्वरूप में प्रकट हो गये। शिव ने उपमन्यु को अपना पुत्र माना और उनका मस्तक सूँघकर कहा – 'वत्स! मैं तुम्हारा पिता और ये पार्वतीदेवी तुम्हारी माता हैं। तुम्हें आज से सनातनकुमारत्व प्राप्त होगा। मैं तुम्हारे लिये दूध, दही और मधु के सहस्त्रों समुद्र देता हूँ। भक्ष्य-भोज्य आदि पदार्थों के भी समुद्र तुम्हारे लिये सुलभ होंगे। में तुम्हें अमरत्व तथा अपने गणों का आधिपत्य प्रदान करता हूँ।' ऐसा कहकर शम्भु ने उपमन्यु को बहुत-से दिव्य वर दिये। पाशुपतव्रत, पाशुपत-ज्ञान तथा व्रतयोग का उपदेश किया। प्रवचन की शक्ति दी और अपना परम पद अर्पित किया। फिर दोनों हाथों से उपमन्यु को हृदय से लगाकर उनका मस्तक सूँघा और देवी पार्वती को सौंपते हुए कहा – 'यह तुम्हारा बेटा है।' पार्वती ने भी बड़े प्यार से उनके मस्तक पर अपना करकमल रखा और उन्हें अक्षय कुमारपद प्रदान किया। शिव ने संतुष्ट होकर उनके लिये पिण्डीभूत एवं अविनाशी साकार क्षीर-सागर प्रस्तुत कर दिया। साथ ही योगसम्बन्धी ऐश्वर्य, नित्य संतोष, अक्षय ब्रह्मविद्या तथा उत्तम समृद्धि प्रदान की। उनके कुल और गोत्र के अक्षय होने का वरदान दिया और यह भी कहा कि मैं तुम्हारे इस आश्रम पर नित्य निवास करूँगा।

इतना कहकर भगवान् शिव अन्तर्धान हो गये। उपमन्यु वर पाकर प्रसन्नतापूर्वक घर आये। उन्होंने माता से सब बातें बतायीं। सुनकर माता को बड़ा हर्ष हुआ। उपमन्यु सब के पूजनीय और अधिक सुखी हो गये। तात! इस प्रकार मैंने तुमसे परमेश्वर शिव के सुरेश्वरावतार का वर्णन किया है। यह अवतार सत्पुरुषों को सदा ही सुख देनेवाला है। सुरेश्वरावतार की यह कथा पाप को दूर करने वाली तथा सम्पूर्ण मनोवांछित फलों को देने वाली है। जो इसे भक्तिपूर्वक सुनता या सुनाता है, वह सम्पूर्ण सुखों को भोगकर अन्त में भगवान् शिव को प्राप्त होता है।

(अध्याय ३२)