शिवजी के किरातावतार के प्रसंग में श्रीकृष्ण द्वारा द्वैतवन में दुर्वासा के शाप से पाण्डवों की रक्षा, व्यासजी का अर्जुन को शक्रविद्या और पार्थिवपूजन की विधि बताकर तप के लिये सम्मति देना, अर्जुन का इन्द्रकील पर्वत पर तप, इन्द्र का आगमन और अर्जुन को वरदान, अर्जुन का शिवजी के उद्देश्य से पुनः तप में प्रवृत्त होना
तदनन्तर पार्वती के विवाहप्रसंग में हुए जटिल, नर्तक, तथा द्विज अवतारों की, फिर अश्वत्थामा-अवतार की बात कहकर नन्दीश्वरजी आगे कहते हैं – बुद्धिमान् सनत्कुमारजी! अब तुम पिनाकधारी भगवान् शिव के किरात नामक अवतार का वर्णन सुनो। उस अवतार में उन्होंने मूक नामक दैत्य का वध और प्रसन्न होकर अर्जुन को वर प्रदान किया था। जब सुयोधन ने महाबली पाण्डवों को (जूए में) जीत लिया, तब वे सती-साध्वी द्रौपदी के साथ द्वैतवन में चले आये। वहीं वे पाण्डव सूर्य द्वारा दी हुई बटलोई का आश्रय लेकर सुखपूर्वक अपना समय बिताने लगे। प्रियवर! उसी समय सुयोधन ने आदरपूर्वक मुनिवर दुर्वासा को छल करने के प्रयोजन से पाण्डवों के निकट जाने के लिये प्रेरित किया। तब महर्षि दुर्वाता अपने दस हजार शिष्यों के साथ आनन्दपूर्वक वहाँ गये और पाण्डवों से मनोऽनुकूल भोजन की याचना की। तब उन सभी पाण्डवों ने उनकी प्रार्थना स्वीकार करके दुर्वासा आदि तपस्वी मुनियों को स्नान करने के लिये भेजा। मुनीश्वर! इधर अन्नाभाव के कारण वे सभी पाण्डव बड़े संकट में पड़ गये और मन-ही-मन प्राण त्याग देने का विचार करने लगे। तब द्रौपदी ने श्रीकृष्ण का स्मरण किया। वे तत्काल ही वहाँ आ पहुँचे और शाक (के पत्ते) का भोग लगाकर उन सभी तपस्वियों को तृप्त कर दिया। फिर तो महर्षि दुर्वासा अपने शिष्यों को तृप्त हुआ जानकर वहाँ से चलते बने। इस प्रकार श्रीकृष्ण की कृपा से उस समय पाण्डव संकट से मुक्त हुए।
तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण ने पाण्डवों को शिवजी की आराधना करने की सम्मति दी। फिर व्यासजी ने भी आकर उन्हें शंकर के समाराधन का आदेश देते हुए कहा – 'शिवजी सम्पूर्ण दुःखों का विनाश करनेवाले हैं। वे भक्ति करने से थोड़े ही समय में प्रसन्न हो जाते हैं। इसलिये सभी लोगों को शंकरजी की सेवा करनी चाहिये। वे महेश्वर प्रसन्न होने पर भक्तों की सारी अभिलाषाएँ पूर्ण कर देते हैं, यहाँ तक कि वे इस लोक में सारा भोग और परलोक में मोक्ष तक दे डालते हैं – यह बिलकुल निश्चित बात है। इसलिये भुक्ति-मुक्तिरूपी फल की कामनावाले मनुष्यों को सदा शम्भु की सेवा करनी चाहिये; क्योंकि भगवान् शंकर साक्षात् परम पुरुष, दुष्टों के संहारक और सत्पुरुषों के आश्रयस्वरूप हैं। अब अर्जुन पहले दृढ़तापूर्वक शक्रविद्या का जप करें। तब इन्द्र पहले परीक्षा लेंगे, पीछे संतुष्ट हो जायँगे। प्रसन्न होने पर वे सर्वदा विघ्नों का नाश करते रहेंगे और फिर शिवजी का श्रेष्ठ मन्त्र प्रदान करेंगे।'
नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! इतना कहकर व्यासजी अर्जुन को बुलाकर उन्हें शक्रविद्या का उपदेश देने को उद्यत हुए, तब तीक्ष्णबुद्धि अर्जुन ने स्नान करके पूर्वमुख बैठकर उस विद्या को ग्रहण कर लिया। फिर उदारबुद्धि मुनिवर व्यासजी ने अर्जुन को पार्थिवलिंग के पूजन का विधान बतलाकर उनसे कहा।
व्यासजी बोले – 'पार्थ! अब तुम यहाँ से परम रमणीय इन्द्रकील पर्वत पर जाओ और वहाँ जाह्नवी के तट पर बैठकर सम्यक्-रूप से तपस्या करो। यह विद्या अदृश्यरूप से सदा तुम्हारा हित करती रहेगी।' अर्जुन को ऐसा आशीर्वाद देकर व्यासजी पाण्डवों से कहने लगे – नृपश्रेष्ठो! तुम सब लोग धर्म पर दृढ़ बने रहो, इससे तुम्हें सर्वथा श्रेष्ठ सिद्धि प्राप्त होगी; इसमें अन्यथा विचार करने की आवश्यकता नहीं है।'
नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने। इस प्रकार मुनिवर व्यास उन पाण्डवों को आशीर्वाद दे तथा शिवजी के चरणकमलों का स्मरण करके तुरंत ही अन्तर्धान हो गये। उधर शिवमन्त्र के धारण करने से अर्जुन में भी अनुपम तेज व्याप्त हो गया। वे उस समय उद्दीप्त हो उठे। अर्जुन को देखकर सभी पाण्डवों को निश्चय हो गया कि अवश्य ही हमारी विजय होगी; क्योंकि अर्जुन में विपुल तेज उत्पन्न हो गया है। (तब उन्होंने अर्जुन से कहा –) 'व्यासजी के कथन से ऐसा प्रतीत होता है कि इस कार्य को केवल तुम्हीं कर सकते हो, यह दूसरे के द्वारा कभी भी सिद्ध नहीं हो सकता; अतः जाओ और हम लोगों का जीवन सफल बनाओ।' तब अर्जुन ने चारों भाइयों तथा द्रौपदी से अनुमति माँगी। उन लोगों को अर्जुन के विछोह का दुःख तो हुआ, पर कार्य की महत्ता देखकर सभी ने अनुमति दे दी। फिर तो अर्जुन मन-ही-मन प्रसन्न होते हुए उस उत्तम पर्वत (इन्द्रकील) को चले गये। वहाँ पहुँचकर वे गंगाजी के समीप एक मनोरम स्थान पर, जो स्वर्ग से भी उत्तम और अशोकवन से सुशोभित था, ठहर गये। वहाँ उन्होंने स्नान करके गुरुवर को नमस्कार किया और जैसा उपदेश मिला था, उसी के अनुसार स्वयं ही अपना वेष बनाया। फिर पहले मन-ही-मन इन्द्रियों का अपकर्ष करके वे आसन लगाकर बैठ गये। तत्पश्चात् समसूत्रवाले सुन्दर पार्थिव (शिवलिंग) का निर्माण करके उनके आगे अनुपम तेजोराशि शंकर का ध्यान करने लगे। वे तीनों समय स्नान करके अनेक प्रकार से बारंबार शिवजी की पूजा करते हुए उपासना में तत्पर हो गये। तब अर्जुन के शिरोभाग से तेज की ज्वाला निकलने लगी। उसे देखकर इन्द्र के गुप्तचर भयभीत हो गये। वे सोचने लगे – यह यहाँ कब आ गया? पुनः उन्होंने ऐसा विचार किया कि यह घटना इन्द्र को बतला देनी चाहिये। ऐसा सोचकर वे तत्काल ही इन्द्र के समीप गये।
गुप्तचरों ने कहा – देवेश! वन में एक पुरुष तप कर रहा है; परंतु हमें पता नहीं कि वह देवता है, ऋषि है, सूर्य है अथवा अग्नि है। उसी के तेज से संतप्त होकर हम आप के संनिकट आये हैं। हमने उसका चरित्र भी आप से निवेदित कर दिया। अब आप जैसा उचित समझें, वैसा करें।
नन्दीश्वजी कहते हैं – मुने! गुप्तचरों के यों कहने पर इन्द्र को अपने पुत्र अर्जुन का सारा मनोरथ ज्ञात हो गया। तब वे पर्वतरक्षकों को विदा करके स्वयं वहाँ जाने का विचार करने लगे। विप्रवर! इन्द्र अर्जुन की परीक्षा करने के लिये वृद्ध ब्रह्मचारी ब्राह्षण का वेष बनाकर वहाँ पहुँचे। उस समय उन्हें आया हुआ देखकर पाण्डुपुत्र अर्जुन ने उनकी पूजा की और फिर उनकी स्तुति करके आगे खड़े हो पूछने लगे – 'ब्रहान्! बताइये, इस समय कहाँ से आपका शुभागमन हुआ है?' इसपर ब्राह्मणवेषधारी इन्द्र ने अर्जुन को ऐसे वचन कहे, जिससे वह तप से डिग जाय; पर जब अर्जुन को दृढ़निश्चय देखा, तब अपने स्वरूप में प्रकट होकर इन्द्र ने अर्जुन को भगवान् शंकर का मन्त्र बताया और उसका जप करने की आज्ञा दी। तदनन्तर अपने अनुचरों को सावधानी के साथ अर्जुन की रक्षा करने का आदेश देकर वे अर्जुन से बोले – 'भद्र! तुम्हें कभी भी प्रमादपूर्वक राज्य नहीं करना चाहिये। परंतप! यह विद्या तुम्हारे लिये श्रेयस्करी होगी। साधक को सर्वथा धैर्य धारण किये रहना चाहिये, रक्षक तो भगवान् शिव हैं ही। वे सम्पत्तियाँ और फल (मोक्ष) दोनों समान रूप से देंगे। इसमें तनिक भी संशय नहीं है।'
नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! इस प्रकार अर्जुन को वरदान देकर देवराज इन्द्र शिवजी के चरणकमलों का स्मरण करते हुए अपने भवन को लौट गये। तब महावीर अर्जुन ने भी सुरेश्वर को प्रणाम किया और फिर वे मन को वश में करके इन्द्र के उपदेशानुसार शिवजी के उद्देश्य से तपस्या करने लगे।
(अध्याय ३३ - ३८)