किरातावतार के प्रसंग में मूक नामक दैत्य का शूकररूप धारण करके अर्जुन के पास आना, शिवजी का किरातवेष में प्रकट होना और अर्जुन तथा किरातवेषधारी शिव द्वारा उस दैत्य का वध

नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! तदनन्तर अर्जुन व्यासजी के उपदेशानुसार विधिपूर्वक स्नान तथा न्यास आदि करके परम भक्ति के साथ शिवजी का ध्यान करने लगे। उस समय वे एक श्रेष्ठ मुनि की भाँति एक ही पैर के बल पर खड़े हो सूर्य की ओर एकाग्र दृष्टि करके खड़े-खड़े मन्त्र जप कर रहे थे। इस प्रकार वे परम प्रेमपूर्वक मन-ही-मन शिवजी का स्मरण करके शम्भु के सर्वोत्कृष्ट पंचाक्षरमन्त्र का जप करते हुए घोर तप करने लगे। उस तपस्या का ऐसा उत्कृष्ट तेज प्रकट हुआ, जिससे देवगण विस्मित हो गये। पुनः वे शिवजी के पास गये और समाहित चित्त से बोले।

देवताओं ने कहा – सर्वेश! एक मनुष्य आप के लिये तपस्या में निरत है। प्रभो! वह व्यक्ति जो कुछ चाहता है, उसे आप दे क्यों नहीं देते?

नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! यों कहकर देवताओं ने अनेक प्रकार से उनकी स्तुति की। फिर उनके चरणों की ओर दृष्टि लगाकर वे विनम्रभाव से खड़े हो गये। तब उदारबुद्धि एवं प्रसन्नात्मा महाप्रभु शिवजी उस वचन को सुनकर ठठाकर हँस पड़े और देवताओं से इस प्रकार बोले।

शिवजी ने कहा – देवताओ! अब तुम लोग अपने स्थान को लौट जाओ। में सब तरह से तुम लोगों का कार्य सम्पन्न करूँगा। यह बिलकुल सत्य है, इसमें संदेह की गुंजाइश नहीं है।

नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! शम्भु के उस वचन को सुनकर देवताओं को पूर्णतया निश्चय हो गया। तब वे सब अपने स्थान को लौट गये। इसी समय मूक नामक दैत्य शूकर का रूप धारण करके वहाँ आया। विप्रेन्द्र! उसे उस समय मायावी दुरात्मा दुर्योधन ने अर्जुन के पास भेजा था। वह जहाँ अर्जुन स्थित थे, उसी मार्ग से अत्यन्त वेगपूर्वक पर्वतशिखरों को उखाड़ता, वृक्षों को छिन्न-भिन्न करता तथा अनेक प्रकार के शब्द करता हुआ आया। तब अर्जुन की भी दृष्टि उस मूक नामक असुर पर पड़ी, वे शिवजी के पादपद्यों का स्मरण करके यों विचार करने लगे।

अर्जुन ने (मन-ही-मन) कहा – 'यह कौन है और कहाँ से आ रहा है? यह तो क्रूरकर्मा दिखायी पड़ रहा है। निश्चय ही यह मेरा अनिष्ट करने के लिये आ रहा है। इसमें तनिक भी संशय नहीं है; क्योंकि जिसका दर्शन होने पर अपना मन प्रसन्न हो जाय, वह निश्चय ही अपना हितेषी है और जिस के दीखने पर मन व्याकुल हो जाय, वह शत्रु ही है। आचार से कुल का, शरीर से भोजन का, वार्तालाप से शास्त्र ज्ञान का और नेत्र से स्नेह का परिचय मिलता है। आकार से, चालढाल से, चेष्टा से, बोलने से तथा नेत्र और मुख के विकार से मन के भीतर का भाव जाना जाता है। नेत्र चार प्रकार के कहे गये हैं – उज्ज्वल, सरस, तिरछे और लाल। दिद्वानों ने इनका भाव भी पृथक्-पृथक् बतलाया है। नेत्र मित्र का संयोग होने पर उज्ज्वल, पुत्रदर्शन के समय सरस, कामिनी के प्राप्त होने पर वक्र और शत्रु के दीख जाने पर लाल हो जाते हैं। (इस नियम के अनुसार) इसे देखते ही मेरी सारी इन्द्रियाँ कलुषित हो उठी हैं, अतः यह निस्संदेह शत्रु ही है और मार डालने योग्य है। इधर मेरे लिये गुरुजी की आज्ञा भी ऐसी है कि राजन्! जो तुम्हें कष्ट देने के लिये उद्यत हो, उसे तुम बिना किसी प्रकार का विचार किये अवश्य मार डालना तथा मैंने इसीलिये आयुध भी तो धारण कर रखा है।' यों विचार कर अर्जुन बाण का संधान करके वहीं डटकर खड़े हो गये।

इसी बीच भक्तवत्सल भगवान् शंकर अर्जुन की रक्षा, उनकी भक्ति की परीक्षा और उस दैत्य का नाश करने के लिये शीघ्र ही वहाँ आ पहुँचे। उस समय उनके साथ गणों का यूथ भी था और वे महान् अद्भुत सुशिक्षित भील का रूप धारण किये हुए थे। उनकी काछ बँधी थी और उन्होंने वस्त्रखण्डों से ईशानध्वज बाँध रखा था। उनके शरीर पर श्वेत धारियाँ चमक रही थीं, पीठ पर बाणों से भरा हुआ तरकश बँधा था और वे स्वयं धनुष-बाण धारण किये हुए थे। उनका गण-यूथ भी वैसी ही साज-सज्जा से युक्त था। इस प्रकार शिव भिल्लराज बने हुए थे। वे सेनाध्यक्ष होकर तरह-तरह के शब्द करते हुए आगे बढ़े। इतने में सूअर की गुर्राहट का शब्द दसों दिशाओं में गूँज उठा। उस शब्द से पर्वत आदि सभी जड पदार्थ झन्ना उठे। तब उस वनेचर के शब्द से घबराकर अर्जुन सोचने लगे – 'अहो! क्या ये भगवान् शिव तो नहीं हैं, जो यहाँ शुभ करने के लिये पधारे हैं; क्योंकि मैंने पहले से ही ऐसा सुन रखा है। पुनः श्रीकृष्ण और व्यासजी ने भी ऐसा ही कहा है तथा देवताओं ने भी बारंबार स्मरण करके ऐसी ही घोषणा की है कि शिवजी कल्याणकर्ता और सुखदाता हैं। वे मुक्ति प्रदान करने के कारण मुक्तिदाता कहे जाते हैं। उनका नामस्मरण करने से मनुष्यों का निश्चय ही कल्याण होता है। जो लोग सर्वभाव से उनका भजन करते हैं, उन्हें स्वप्म में भी दुःख का दर्शन नहीं होता। यदि कदाचित् कुछ दुःख आ ही जाता है तो उसे कर्मजनित समझना चाहिये। सो भी बहुत की आशंका होने पर भी थोड़ा होता है। अथवा उसे विशेष रूप से प्रार्ध का ही दोष मानना चाहिये। अथवा कभी-कभी भगवान् शंकर अपनी इच्छा से थोड़ा या अधिक दुःख भुगताकर फिर निस्संदेह उसे दूर कर देते हैं। वे विष को अमृत और अमृत को विष बना देते हैं। यों जैसी उनकी इच्छा होती है, वैसा वे करते हैं। भला, उन समर्थ को कौन मना कर सकता है। अन्यान्य प्राचीन भक्तों की भी ऐसी ही धारणा थी, अतः भावी भक्तों को सदा इसी विचार पर अपने मन को स्थिर रखना चाहिए। लक्ष्मी रहे अथवा चली जाय, मृत्यु आँखों के सामने ही क्यों न उपस्थित हो जय, लोग निन्दा करें अथवा प्रशंसा; परंतु शिवभक्ति से दुःखों का विनाश होता ही है। शंकर अपने भक्तों को, चाहे वे पापी हों या पुण्यात्मा, सदा सुख देते हैं। यदि कभी वे परीक्षा के लिये भक्त को कष्ट में डाल देते हैं तो अन्त में दयालु स्वभाव होने के कारण वे ही उसके सुखदाता भी होते हैं। फिर तो वह भक्त उसी प्रकार निर्मल हो जाता है, जैसे आग में तपाया हुआ सोना शुद्ध हो जाता है। इसी तरह की बातें मैंने पहले भी मुनियों के मुख से सुन रखी हैं; अतः मैं शिवजी का भजन करके उसी से उत्तम सुख प्राप्त करूंगा।'

अर्जुन यों विचार कर ही रहे थे, तब तक बाण का लक्ष्यभूत वह सूअर वहाँ आ पहुँचा। उधर शिवजी भी उस सूअर के पीछे लगे हुए दीख पड़े। उस समय उन दोनों के मध्य में वह शूकर अद्भुत शिखर-सा दीख रहा था। उसकी बड़ी महिमा भी कही गयी है। तब भक्तवत्सल भगवान् शंकर अर्जुन की रक्षा के लिये बड़े वेग से आगे बढ़े। इसी समय उन दोनों ने उस शूकर पर बाण चलाया। शिवजी के बाण का लक्ष्य उसका पुच्छभाग था और अर्जुन ने उसके मुख को अपना निशाना बनाया था। शिवजी का बाण उसके पुच्छभाग से प्रवेश करके मुख के रास्ते निकल गया और शीघ्र ही भूमि में विलीन हो गया। तथा अर्जुन का बाण उसके पिछले भाग से निकलकर बगल में ही गिर पड़ा। तब वह शूकररूपधारी दैत्य उसी क्षण मरकर भूतल पर गिर पड़ा। उस समय देवताओं को महान् हर्ष प्राप्त हुआ। उन्होंने पहले तो जय-जयकार करते हुए पुष्पों की वृष्टि की, फिर वे बारंबार नमस्कार करके स्तुति करने लगे। उस समय उन दोनों ने दैत्य के उस क्रूर रूप की ओर दृष्टिपात किया। उसे देखकर शिवजी का मन संतुष्ट हो गया और अर्जुन को महान् सुख प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् अर्जुन मन-ही-मन विशेष रूप से सुख का अनुभव करते हुए कहने लगे – 'अहो! यह श्रेष्ठ दैत्य परम अद्भुत रूप धारण करके मुझे मारने के लिये ही आया था, परंतु शिवजी ने ही मेरी रक्षा की है। निस्संदेह उन परमेश्वर ने ही आज (इसे मारने के लिये) मेरी बुद्धि को प्रेरित किया है।' ऐसा विचार कर अर्जुन ने शिवनामसंकीर्तन किया और फिर बारंबार उनके चरणों में प्रणाम करके उनकी स्तुति की।

(अध्याय ३९)