अर्जुन और शिवदूत का वार्तालाप, किरातवेषधारी शिवजी के साथ अर्जुन का युद्ध, पहचानने पर अर्जुन द्वारा शिव-स्तुति, शिवजी का अर्जुन को वरदान देकर अन्तर्धान होना, अर्जुन का आश्रम पर लौटकर भाइयों से मिलना, श्रीकृष्ण का अर्जुन से मिलने के लिये वहाँ पधारना

नन्दीश्वजी कहते हैं – महाज्ञानी सनत्कुमारजी! अब परमात्मा शिव की उस लीला को श्रवण करो, जो भक्तवत्सलता से युक्त तथा उनकी दृढ़ता से भरी हुई है। तदनन्तर शिवजी ने उस बाण को लाने के लिये तुरंत ही अपने अनुचर को भेजा। उधर अर्जुन भी उसी निमित्त वहाँ आये। इस प्रकार एक ही समय में रुद्रानुचर तथा अर्जुन दोनों बाण उठाने के लिये वहाँ पहुँचे। तब अर्जुन ने उसे डरा-धमकाकर अपना बाण उठा लिया। यह देखकर उस अनुचर ने कहा – 'ऋषिसत्तम! आप क्यों इस बाण को ले रहे हैं? यह हमारा सायक है, इसे छोड़ दीजिये।' भिललराज के उस अनुचर द्वारा यों कहे जाने पर मुनिश्रेष्ठ अर्जुन ने शंकरजी का स्मरण किया और इस प्रकार कहा।

अर्जुन बोले – वनेचर! तू बड़ा मूर्ख है। तू बिना समझे-बूझे क्या बक रहा है? इस बाण को तो मैंने अभी-अभी छोड़ा है, फिर यह तेरा कैसे? इसकी धारियों तथा पिच्छों पर मेरा ही नाम अंकित है, फिर यह तेरा कैसे हो गया? ठीक है, तेरा कुटिल-स्वभाव छूटना कठिन है।

नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! अर्जुन का वह कथन सुनकर भिल्लरूपी गणेश्वर को हँसी आ गयी। तब वह ऋषिरूप में वर्तमान अर्जुन को यों उत्तर देते हुए बोला – 'रे तापस! सुन। जान पड़ता है, तू तपस्या नहीं कर रहा है, केवल तेरा वेष ही तपस्वी का है; क्योंकि सच्चा तपस्वी छल-कपट नहीं करता। भला, जो मनुष्य तपस्या में निरत होगा, वह कैसे मिथ्या भाषण करेगा एवं कैसे छल करेगा। अरे तू मुझे अकेला मत समझ। तुझे ज्ञात होना चाहिये कि मैं एक सेना का अधिपति हूँ। हमारे स्वामी बहुत-से वनचारी भीलों के साथ वहाँ बैठे हैं। वे विग्रह तथा अनुग्रह करने में सर्वथा समर्थ हैं। यह बाण, जिसे तूने अभी उठा लिया है, उन्हीं का है। यह बाण कभी तेरे पास टिक नहीं सकेगा। तापस! तू क्यों अपनी तपस्या का फल नष्ट करना चाहता है? मैंने तो ऐसा सुन रखा है कि चोरी करने से, छलपूर्वक किसी को कष्ट पहुँचाने से, विस्मय करने से तथा सत्य का त्याग करने से प्राणी का तप क्षीण हो जाता है – यह बिलकुल सत्य है। ऐसी दशा में तुझे अब तप का फल कैसे प्राप्त होगा? उस बाण को ले लेने से तू तप से च्युत तथा कृतघ्न हो जायगा; क्योंकि निश्चय ही यह मेरे स्वामी का बाण है और तेरी रक्षा के लिये ही उन्होंने इसे छोड़ा था। इस बाण से तो उन्होंने शत्रु को मार ही डाला और फिर बाण को भी सुरक्षित रखा। तू तो महान् कृतघ्न तथा तपस्या में अमंगल करनेवाला है। जब तू सत्य नहीं बोल रहा है, तब फिर इस तप से सिद्धि की अभिलाषा कैसे करता है? अथवा यदि तुझे बाण से ही प्रयोजन है तो मेरे स्वामी से माँग ले। वे स्वयं इस प्रकार के बहुत-से बाण तुझे दे सकते हैं। मेरे स्वामी आज यहाँ वर्तमान हैं। तू उनसे क्यों नहीं याचना करता? तू जो उपकार का परित्याग करके उपकार करना चाहता है तथा अभी-अभी कर रहा है, यह तेरे लिये उचित नहीं है। तू चपलता छोड़ दे।'

इसपर कुपित होकर अर्जुन ने उससे कई बातें कहीं। दोनों में बड़ा विवाद हुआ। अन्त में अर्जुन ने कहा – 'वनचारी भील! तू मेरी सार बात सुन ले। जिस समय तेरा स्वामी आयेगा, उस समय मैं उसे उसका फल चखाऊँगा। तेरे साथ युद्ध करना तो मुझे शोभा नहीं देता, अतः मैं तेरे स्वामी के साथ ही लोहा लूँगा; क्योंकि सिंह और गीदड़ का युद्ध उपहासास्पद ही माना जाता है। भील! तूने मेरी बात तो सुन ही ली, अब तू मेरे महान् बल को भी देखेगा। जा, अपने स्वामी के पास लौट जा अथवा जैसी तेरी इच्छा हो, वेसा कर।'

नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! अर्जुन के यों कहने पर वह भील जहाँ शिवावतार सेनापति किरात विराजमान थे, वहाँ गया और उन भिल्लराज से अर्जुन का सारा वचन विस्तारपूर्वक कह सुनाया। उसकी बात सुनकर उन किरातेश्वर को महान् हर्ष हुआ। तब भीलरूपधारी भगवान् शंकर अपनी सेना के साथ वहाँ गये। उधर पाण्डुपुत्र अर्जुन ने भी जब किरात की उस सेना को देखा, तब वे भी धनुष-बाण ले सामने आकर डट गये। तदनन्तर किरात ने पुनः उस दूत को भेजा और उसके द्वारा भरतवंशी महात्मा अर्जुन से यों कहलवाया।

किरात ने कहा – तपस्विन्! तनिक इस सेना की ओर तो दृष्टिपात करो। अरे! अब तुम बाण छोड़कर जल्दी भाग जाओ। क्यों तुम इस समय एक सामान्य काम के लिये प्राण गँवाना चाहते हो? तुम्हारे भाई दुःख से पीड़ित हैं, स्त्री तो उनसे भी बढ़कर दुःखी है। मेरा तो ऐसा विचार है कि ऐसा करने से पृथ्वी भी तुम्हारे हाथ से चली जायगी।

ननन्दीश्वजी कहते हैं – मुने! जब अर्जुन की सब तरह से रक्षा करने के लिये किरातरूपधारी परमेश्वर शम्भु ने उनकी भक्ति की दृढ़ता की परीक्षा के निमित्त ऐसी बात कही, तब वह शिवदूत उसी समय अर्जुन के पास पहुँचा और उसने वह सारा वृत्तान्त उनसे विस्तारपूर्वक कह सुनाया। उसकी बात सुनकर अर्जुन ने उस समागत दूत से पुनः कहा – 'दूत! तुम जाकर अपने सेनापति से कहो कि तुम्हारे कथनानुसार करने से सारी बातें विपरीत हो जायँगी। यदि मैं तुम्हें अपना बाण दे देता हूँ तो निस्संदेह मैं अपने कुल को दूषित करनेवाला सिद्ध होऊँगा। इसलिये भले ही मेरे भाई दुःखार्त हो जायें तथा मेरी सारी विद्याएँ निष्फल हो जायें, परंतु तुम आओ तो सही। मैंने ऐसा कभी नहीं सुना है कि कहीं सिंह गीदड़ से डर गया हो। इसी प्रकार राजा (क्षत्रिय) कभी भी वनेचर से भयभीत नहीं हो सकता।

नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! अर्जुन के यों कहने पर वह दूत पुनः अपने स्वामी के पास लौट गया और उसने अर्जुन की कही हुई सारी बातें उनके सामने विशेष रूप से निवेदन कर दीं। उन्हें सुनकर किरातवेषधारी सेनानायक महादेवजी अपनी सेना के साथ अर्जुन के सम्मुख आये। उन्हें आया हुआ देखकर अर्जुन ने शिवजी का ध्यान किया। फिर निकट जाकर उनके साथ अत्यन्त भीषण संग्राम छेड़ दिया। इस प्रकार गणों सहित महादेवजी के साथ अर्जुन का घोर युद्ध हुआ। अन्त में अर्जुन ने शिवजी के चरणकमल का ध्यान किया। उनका ध्यान करने से अर्जुन का बल बढ़ गया। तब वे शंकरजी के दोनों पैर पकड़कर उन्हें घुमाने लगे। उस समय भक्तवत्सल महादेवजी हँस रहे थे। मुने! भक्त पराधीन होने के कारण वे अर्जुन को अपनी दासता प्रदान करना चाहते थे, इसीलिये उन्होंने ऐसी लीला रची थी; अन्यथा ऐसा होना सर्वथा असम्भव था। तत्पश्चात् शंकरजी ने भक्तपरवशता के कारण मुसकराकर वहीं अपना सौम्य एवं अद्भुत रूप सहसा प्रकट कर दिया। पुरुषोत्तम! शिवजी का जो स्वरूप वेदों, शास्त्रों तथा पुराणों में वर्णित है तथा व्यासजी ने अर्जुन को ध्यान करने के लिये जिस सर्वसिद्धिदाता रूप का उपदेश दिया था, शिवजी ने वही रूप दिखाया। तब ध्यान द्वारा प्राप्त होनेवाले शिवजी के उस सुन्दर रूप को देखकर अर्जुन को महान् विस्मय हुआ। फिर वे लज्जित होकर स्वयं पश्चात्ताप करने लगे – 'अहो! जिनको मैंने प्रमुख रूप से वरण किया है, वे त्रिलोकी के अधीश्वर कल्याणकर्ता साक्षात् स्वयं शिव तो ये ही हैं। हाय! इस समय मैंने यह क्या कर डाला? अहो! भगवान् शिव की माया बड़ी बलवती है। वह बड़े-बड़े मायावियों को भी मोह में डाल देती है (फिर मेरी तो बिसात ही क्या है)। उन्हीं प्रभु ने अपने रूप को छिपाकर यह कौन-सी लीला रची है? मैं तो उनके द्वारा छला गया।' इस प्रकार अपनी बुद्धि से भलीभाँति विचार करके अर्जुन ने प्रेमपूर्वक हाथ जोड़ें एवं मस्तक झुकाकर भगवान् शिव को प्रणाम किया, फिर खिनन्नमन से यों कहा।

अर्जुन बोले – देवाधिदेव महादेव! आप तो बड़े कृपालु तथा भक्तों के कल्याणकर्ता हैं। सर्वेश! आपको मेरा अपराध क्षमा कर देना चाहिये। इस समय आपने अपने रूप को छिपाकर यह कौन-सा खेल किया है? आपने तो मुझे छल लिया। प्रभो! आप स्वामी के साथ युद्ध करनेवाले मुझको धिक्कार है!

नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! इस प्रकार पाण्डुपुत्र अर्जुन को महान् पश्चात्ताप हुआ। तत्पश्चात् वे शीघ्र ही महाप्रभु शंकरजी के चरणों में लोट गये। यह देखकर भक्तवत्सल महेश्वर का चित्त प्रसन्न हो गया। तब वे अर्जुन को अनेकों प्रकार से आश्वासन देकर यों बोले।

शंकरजी ने कहा – पार्थ। तुम तो मेरे परम भक्त हो, अतः खेद न करो। यह तो मैंने आज तुम्हारी परीक्षा लेने के लिये ऐसी लीला रची थी, इसलिये तुम शोक त्याग दो।

नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! यों कहकर भगवान् शिव ने अपने दोनों हाथों से पकड़कर अर्जुन को उठा लिया और अपने तथा गणों के समक्ष उनकी लाज का निवारण किया। फिर भक्तवत्सल भगवान् शंकर वीरों में मान्य पाण्डुपुत्र अर्जुन को सब तरह से हर्ष प्रदान करते हुए प्रेमपूर्वक बोले।

शिवजी ने कहा – पाण्डवों में श्रेष्ठ अर्जुन! मैं तुम पर परम प्रसन्न हूँ, अतः अब तुम वर माँगो। इस समय तुमने जो मुझ पर प्रहार एवं आघात किया है, उसे मैंने अपनी पूजा मान लिया है। साथ ही यह सब तो मैंने अपनी इच्छा से किया है। इसमें तुम्हारा अपराध ही क्या है। अतः तुम्हारी जो लालसा हो, वह माँग लो; क्योंकि मेरे पास कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है, जो तुम्हारे लिये अदेय हो। यह जो कुछ हुआ है, वह शत्रुओं में तुम्हारे यश और राज्य की स्थापना के लिये अच्छा ही हुआ है। तुम्हें इसका दुःख नहीं मानना चाहिये। अब तुम अपनी सारी घबराहट छोड़ दो।

नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! भगवान् शंकर के यों कहने पर अर्जुन भक्तिपूर्वक सावधानी से खड़े होकर शंकरजी से बोले।

अर्जुन ने कहा – 'शम्भो! आप तो बड़े उत्तम स्वामी हैं, आप को भक्त बहुत प्रिय हैं। देव! भला, मैं आपकी करुणा का क्या वर्णन कर सकता हूँ। सदाशिव! आप तो बड़े कृपालु हैं।! यों कहकर अर्जुन ने महाप्रभु शंकर की सद्भक्तियुक्त एवं वेदसम्मत स्तुति आरम्भ की।

अर्जुज बोले – आप देवाधिदेव को नमस्कार है। कैलासवासिन्! आप को प्रणाम है। सदाशिव! आप को अभिवादन है। पंचमुख परमेश्वर! आप को में सिर झुकाता हूँ। आप जटाधारी तथा तीन नेत्रों से विभूषित हैं, आप को बारंबार नमस्कार है। आप प्रसन्नरूपवाले तथा सहस्त्रों मुखों से युक्त हैं, आप को प्रणाम है। नीलकण्ठ! आप को मेरा नमस्कार प्राप्त हो। मैं सद्योजात को अभिवादन, करता हूँ। वामांक में गिरिजा को धारण करनेवाले वृषध्वज।! आपको प्रणाम है। दस भुजाधारी आप परमात्मा को पुनः-पुनः अभिवादन है। आप के हाथों में डमरू और कपाल शोभा पाते हैं तथा आप मुण्डों की माला धारण करते हैं, आप को नमस्कार है। आपका श्रीविग्रह शुद्ध स्फटिक तथा निर्मल कर्पूर के समान गौरवर्ण का है, हाथ में पिनाक सुशोभित है, तथा आप उत्तम त्रिशूल धारण किये हुए हैं; आप को प्रणाम है। गंगाधर! आप व्याघ्रचर्म का उत्तरीय तथा गजचर्म का वस्त्र लपेटनेवाले हैं, आप के अंगों में नाग लिपटे रहते हैं; आप को बारंबार अभिवादन है। सुन्दर लाल-लाल चरणोंवाले आप को नमस्कार है। नन्दी आदि गणों द्वारा सेवित आप गणनायक को प्रणाम है। जो गणेशस्वरूप हैं, कार्तिकेय जिनके अनुगामी हैं, जो भक्तों को भक्ति और मुक्ति प्रदान करनेवाले हैं, उन आप को पुनः-पुनः नमस्कार है। आप निर्गुण, सगुण, रूपरहित, रूपवान्, कलायुक्त तथा निष्कल हैं; आपको मैं बारंबार सिर झुकाता हूँ। जिन्होंने मुझ पर अनुग्रह करने के लिये किरातवेष धारण किया है, जो वीरों के साथ युद्ध करने के प्रेमी तथा नाना प्रकार की लीलाएं करनेवाले हैं, उन महेश्वर को प्रणाम है। जगतू में जो कुछ भी रूप दृष्टिगोचर हो रहा है, वह सब आपका ही तेज कहा जाता है। आप चिद्रूप हैं और अन्वय भेद से त्रिलोकी में रमण कर रहे हैं। जैसे धूलिकणों की आकाश में उदय हुई तारकाओं की तथा बरसते हुए जल की बूँदों की गणना नहीं की जा सकती, उसी प्रकार आप के गुणों की भी संख्या नहीं है। नाथ! आपके गुणों की गणना करने में तो वेद भी समर्थ नहीं हैं, में तो एक मन्दबुद्धि व्यक्ति हूँ; फिर मैं उनका वर्णन कैसे कर सकता हूँ। महेशान! आप जो कोई भी हों, आप को मेरा नमस्कार है। महेश्वर! आप मेरे स्वामी हैं और मैं आपका दास हूँ; अतः आप को मुझ पर कृपा करनी ही चाहिये।

नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! अर्जुन द्वारा किये गये इस स्तवन को सुनकर भगवान् शंकर का मन परम प्रसन्न हो गया। तब वे हँसते हुए पुनः अर्जुन से बोले।

शंकरजी ने कहा – वत्स! अब अधिक कहने से क्या लाभ, तुम मेरी बात सुनो और अपना अभीष्ट वर माँग लो। इस समय तुम जो कुछ कहोगे, वह सब मैं तुम्हें प्रदान करूँगा।

नन्दीश्वरजी कहते हैं – महर्षे। शंकरजी के यों कहने पर अर्जुन ने हाथ जोड़कर नत-मस्तक हो सदाशिव को प्रणाम किया और फिर प्रेमपूर्वक गदगद वाणी में कहना आरम्भ किया।

अर्जुन ने कहा – विभो! आप तो स्वयं ही अन्तर्यामी रूप से सब के अंदर विराजमान हैं (अतः घट-घट की जानने वाले हैं), ऐसी दशा में मैं क्या कहूँ; तथापि मैं जो कुछ कहता हूँ, उसे आप सुनिये। भगवन्! मुझ पर शत्रुओं द्वारा जो संकट प्राप्त हुआ था, वह तो आपके दर्शन से ही विनष्ट हो गया। अब जिस प्रकार मुझे इस लोक की परासिद्धि प्राप्त हो सके, वैसी कृपा कीजिये।

नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! इतना कहकर अर्जुन ने भक्तवत्सल भगवान् शंकर को नमस्कार किया और फिर वे हाथ जोड़कर मस्तक झुकाये हुए उनके निकट खड़े हो गये। जब स्वामी शिवजी को यह ज्ञात हो गया कि यह पाण्डुपुत्र अर्जुन मेरा अनन्य भक्त है, तब वे भी परम प्रसन्न हुए। फिर उन महेश्वर ने अपने पाशुपत नामक अस्त्र को, जो सर्वथा समस्त प्राणियों के लिये दुर्जय है, अर्जुन को दे दिया और इस प्रकार कहा।

शिवजी बोले – वत्स! मैंने तुम्हें अपना महान् अस्त्र दे दिया। इसे धारण करने से अब तुम समस्त शत्रुओं के लिये अजेय हो जाओगे। जाओ, विजय-लाभ करो। साथ ही मैं श्रीकृष्ण से कहूँगा, वे तुम्हारी सहायता करेंगे; क्योंकि श्रीकृष्ण मेरे आत्मस्वरूप, भक्त और मेरा कार्य करनेवाले हैं। भारत! मेरे प्रभाव से तुम निष्कण्टक राज्य भोगो और अपने भाई युधिष्ठिर से सर्वदा नाना प्रकार के धर्म कार्य कराते रहो।

नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! यों कहकर शंकरजी ने अर्जुन के मस्तक पर अपना करकमल रख दिया और अर्जुन द्वारा पूजित हो वे शीघ्र ही अन्तर्धान हो गये। इस प्रकार भगवान् शंकर से वरदान और अस्त्र पाकर अर्जुन का मन प्रसन्न हो गया। तब वे अपने मुख्य गुरु शिव का भक्तिपूर्वक स्मरण करते हुए अपने आश्रम को लौट गये। वहाँ अर्जु से मिलकर सभी भाइयों को ऐसा आनन्द प्राप्त हुआ मानो मृतक शरीर में प्राण का संचार हो गया हो। उत्तम व्रत का पालन करने वाली द्रौपदी को अत्यन्त सुख मिला। जब उन पाण्डवों को यह ज्ञात हुआ कि शिवजी परम संतुष्ट हो गये हैं, तब उनके हर्ष का पार नहीं रहा। उन्हें उस सम्पूर्ण वृत्तान्त के सुनने से तृप्ति ही नहीं होती थी। उस समय उस आश्रम में महा-मनस्वी पाण्डवों का भला करने के लिये चन्दनयुक्त पुष्पों की वृष्टि होने लगी। तब उन्होंने हर्षपूर्वक सम्पत्तिदाता तथा कल्याणकर्ता शिव को नमस्कार किया और (तेरह वर्ष की) अवधि को समाप्त हुई जानकर यह निश्चय किया कि अवश्य ही हमारी विजय होगी। इसी अवसर पर जब श्रीकृष्ण को पता चला कि अर्जुन लौटकर आ गये हैं, तब यह समाचार सुनकर उन्हें बड़ा सुख मिला और वे अर्जुन से मिलने के लिये वहाँ पधारे तथा कहने लगे कि 'इसीलिये मैंने कहा था कि शंकरजी सम्पूर्ण कष्टों का विनाश करनेवाले हैं। में नित्य उनकी सेवा करता हूँ, अतः आप लोग भी उनकी सेवा करें।' मुने! इस प्रकार मैंने शंकरजी के किरात नामक अवतार का वर्णन किया। जो इसे सुनता अथवा दूसरे को सुनाता है, उसकी सारी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं।

(अध्याय ४० - ४१)