शिवजी के द्वादश ज्योतिर्लिंगावतारों का सविस्तर वर्णन

नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! अब तुम सर्वव्यापी भगवान् शंकर के बारह अन्य ज्योतिर्लिंग-स्वरूपी अवतारों का वर्णन श्रवण करो, जो अनेक प्रकार के मंगल करनेवाले हैं। उनके नाम ये हैं – सौराष्ट्र में सोमनाथ, श्रीशैल पर मल्लिकार्जुन, उज्जयिनी में महाकाल, ओंकार में अमरेश्वर, हिमालय पर केदार, डाकिनी में भीमशंकर, काशी में विश्वनाथ, गौतमी के तट पर त्र्यम्बकेश्वर, चिताभूमि में वैद्यनाथ, दारुक वन में नागेश्वर, सेतुबन्ध पर रामेश्वर और शिवालय में घुश्मेश्वर। परमात्मा शम्भु के ये ही वे बारह अवतार हैं। ये दर्शन और स्पर्श करने से मनुष्यों को सब प्रकार का आनन्द प्रदान करते हैं।

मुने! उनमें पहला अवतार सोमनाथ का है। यह चन्द्रमा के दुःख का विनाश करनेवाला है। इनका पूजन करने से क्षय और कुष्ठ आदि रोगों का नाश हो जाता है। यह सोमेश्वर नामक शिवावतार सौराष्ट्र नामक पावन प्रदेश में लिंगरूप से स्थित है। पूर्वकाल में चन्द्रमा ने इनकी पूजा की थी। वहीं सम्पूर्ण पापों का विनाश करनेवाला एक चन्द्रकुण्ड है, जिसमें स्नान करने से बुद्धिमान् मनुष्य सम्पूर्ण रोगों से मुक्त हो जाता है। परमात्मा शिव के सोमेश्वर नामक महालिंग का दर्शन करने से मनुष्य पाप से छुट जाता है और उसे भोग और मोक्ष सुलभ हो जाते हैं।

तात! शंकरजी का मल्लिकार्जुन नामक दूसरा अवतार श्रीशैल पर हुआ। वह भक्तों को अभीष्ट फल प्रदान करनेवाला है। मुने! भगवान् शिव परम प्रसन्नतापूर्वक अपने निवासभूत कैलासगिरी से लिंगरूप से श्रीशैल पर पधारे हैं। पुत्र-प्राप्ति के लिये इनकी स्तुति की जाती है। मुने! यह जो दूसरा ज्योतिर्लिग है, वह दर्शन और पूजन करने से महा सुखकारक होता है और अन्त में मुक्ति भी प्रदान कर देता है – इसमें तनिक भी संशय नहीं है।

तात! शंकरजी का महाकाल नामक तीसरा अवतार उज्जयिनी नगरी में हुआ। वह अपने भक्तों की रक्षा करनेवाला है। एक बार रतनमालनिवासी दूषण नामक असुर, जो वैदिक धर्म का विनाशक, विप्रद्रोही तथा सब कुछ नष्ट करनेवाला था, उज्जयिनी में जा पहुँचा। तब वेद नामक ब्राह्मण के पुत्र ने शिवजी का ध्यान किया। फिर तो शंकरजी ने तुरंत ही प्रकट होकर हुंकार द्वारा उस असुर को भस्म कर दिया। तत्पश्चात् अपने भक्तों का सर्वथा पालन करनेवाले शिव देवताओं के प्रार्थना करने पर महाकाल नामक ज्योतिर्लिगस्वरुप से वहीं प्रतिष्ठित हो गये। इन महाकाल नामक लिंग का प्रयत्नपूर्वक दर्शन और पूजन करने से मनुष्य की सारी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं और अन्त में उसे परम गति प्राप्त होती है।

परम आत्मबल से सम्पन्न परमेश्वर शम्भु ने भक्तों को अभीष्ट फल प्रदान करनेवाला ओंकार नामक चौथा अवतार धारण किया। मुने! विन्ध्यगिरी ने भक्तिपूर्वक विधि-विधान से शिवजी का पार्थिवलिंग स्थापित किया। उसी लिंग से विन्ध्य का मनोरथ पूर्ण करनेवाले महादेव प्रकट हुए। तब देवताओं के प्रार्थना करने पर भुक्ति-मुक्ति के प्रदाता भक्तवत्सल लिंगरूपी शंकर वहाँ दो रूपों में विभक्त हो गये। मुनीश्वर! उनमें एक भाग ओंकार में ओंकारेश्वर नामक उत्तम लिंग के रूप में प्रतिष्ठित हुआ और दूसरा पार्थिवलिंग परमेश्वर नाम से प्रसिद्ध हुआ। मुने इन दोनों में जिस किसी का भी दर्शन-पूजन किया जाय, उसे भक्तों की अभिलाषा पूर्ण करनेवाला समझना चाहिये। महामुने! इस प्रकार मैंने तुम्हें इन दोनों महादिव्य ज्योतिर्लिंगों का वर्णन सुना दिया।

परमात्मा शिव के पाँचवे अवतार का नाम है केदारेश। वह केदार में ज्योतिर्लिंगरूप से स्थित है। मुने! वहाँ श्रीहरि के जो नर-नारायण नामक अवतार हैं, उनके प्रार्थना करने पर शिवजी हिमगिरि के केदारशिखर पर स्थित हो गये। वे दोनों उस केदारेश्वर लिंग की नित्य पूजा करते हैं। वहाँ शम्भु दर्शन और पूजन करनेवाले भक्तों को अभीष्ट प्रदान करते हैं। तात! सर्वेश्वर होते हुए भी शिव इस खण्ड के विशेष रूप से स्वामी है। शिवजी का यह अवतार सम्पूर्ण अभिष्टों को प्रदान करनेवाला है।

महाप्रभु शम्भु के छठे अवतार का नाम भीमशंकर है। इस अवतार में उन्होंने बड़ी-बड़ी लीलाएँ की है और भीमासुर का विनाश किया है। कामरूप देश के अधिपति राजा सुदक्षिण शिवजी के भक्त थे। भीमासुर उन्हें पीड़ित कर रहा था। तब शंकरजी ने अपने भक्त को दुःख देने वाले उस अद्भुत असुर का वध करके उनकी रक्षा की। फिर राजा सुदक्षिण के प्रार्थना करने पर स्वयं शंकरजी डाकिनी में भीमशंकर नामक ज्योतिर्लिंगस्वरूप से स्थित हो गये।

मुने! जो समस्त ब्रह्माण्डस्वरुप तथा भोग-मोक्ष का प्रदाता है, वह विश्वेश्वर नामक सातवाँ अवतार काशी में हुआ। मुक्तिदाता सिद्धस्वरूप स्वयं भगवान् शंकर अपनी पूरी काशी में ज्योतिर्लिंगरूप में स्थित हैं। विष्णु आदि सभी देवता, कैलासपति शिव और भैरव नित्य उनकी पूजा करते हैं। जो काशी-विश्वनाथ के भक्त हैं और नित्य उनके नामों का जप करते रहते हैं, वे कर्मों से निर्लिप्त होकर कैवल्य-पद के भागी होते हैं।

चन्द्रशेखर शिव का जो त्र्यम्बक नामक आठवाँ अवतार है, वह गौतम ऋषि के प्रार्थना करने पर गौतमी नदी के तट पर प्रकट हुआ था। गौतम की प्रार्थना से उन मुनि को प्रसन्न करने के लिये शंकरजी प्रेमपूर्वक ज्योतिर्लिंगस्वरूप से वहाँ अचल होकर स्थित हो गये। अहो! उन महेश्वर का दर्शन और स्पर्श करने से सारी कामनाएँ सिद्ध हो जाती हैं। तत्पश्चात् मुक्ति भी मिल जाती है। शिवजी के अनुग्रह से शंकरप्रिया परम पावनी गंगा गौतम के स्नेहवश वहाँ गौतमी नाम से प्रवाहित हुईं।

उनमें नवाँ अवतार वैद्यनाथ नाम से प्रसिद्ध है। इस अवतार में बहुत-सी विचित्र लीलाएँ करनेवाले भगवान् शंकर रावण के लिये आविर्भूत हुए थे। उस समय रावण द्वारा अपने लाये जाने को ही कारण मानकर महेश्वर ज्योतिर्लिंगस्वरूप से चिता-भूमि में प्रतिष्ठित हो गये। उस समय से वे त्रिलोकी में वैद्यनाथेश्वर नाम से विख्यात हुए। वे भक्तिपूर्वक दर्शन और पूजन करनेवाले को भोग-मोक्ष के प्रदाता हैं। मुने! जो लोग इन वैद्यनाथेश्वर शिव के माहात्म्य को पढ़ते अथवा सुनते हैं, उन्हें यह भुक्ति-मुक्ति का भागी बना देता है।

दसवाँ नागेश्वरावतार कहलाता है। यह अपने भक्तों की रक्षा के लिये प्रादुर्भूत हुआ था। यह सदा दुष्टों को दण्ड देता रहता है। इस अवतार में शिवजी ने दारुक नामक राक्षस को, जो धर्मघाती था, मारकर वैश्यों के स्वामी अपने सुप्रिय नामक भक्त की रक्षा की थी। तत्पश्चात् बहुत-सी लीलाएँ करनेवाले वे परात्पर प्रभु शम्भु लोकों का उपकार करने के लिये अम्बिका सहित ज्योतिर्लिंगस्वरूप से स्थित हो गये। मुने! नागेश्वर नामक इस शिवलिंग का दर्शन तथा अर्चन करने से राशि-के-राशि महान् पातक तुरंत विनष्ट हो जाते हैं।

मुने! शिवजी का ग्यारहवाँ अवतार रामेश्वरावतार कहलाता है। वह श्रीरामचन्द्र का प्रिय करनेवाला है। उसे श्रीराम ने ही स्थापित किया था। जिन भक्तवत्सल शंकर ने परम प्रसन्न होकर श्रीराम को प्रेमपूर्वक विजय का वरदान दिया, वे ही लिंगरूप में आविर्भूत हुए। मुने! तब श्रीराम के अत्यन्त प्रार्थना करने पर वे सेतुबन्ध पर ज्योतिर्लिंगरूप से स्थित हो गये! उस समय श्रीराम ने उनकी भलिभाँति सेवा-पूजा की। रामेश्वर की अद्भुत महिमा की भूतल पर किसी से तुलना नहीं की जा सकती। यह सर्वदा भुक्ति-मुक्ति की प्रदायिनी तथा भक्तों की कामना पूर्ण करने वाली है। जो मनुष्य सद्भक्तिपूर्वक रामेश्वर लिंग को गंगाजल से स्नान कराएगा, वह जीवन्मुक्त ही है। वह इस लोक में जो देवताओं के लिये भी दुर्लभ हैं, ऐसे सम्पूर्ण भोगों को भोगने के पश्चात् परम ज्ञान को प्राप्त होगा। फिर उसे कैवल्य मोक्ष मिल जायगा।

घुश्मेश्वरावतार शंकरजी का बारहवाँ अवतार है। वह नाना प्रकार की लीलाओं का कर्ता, भक्तवत्सल तथा घुश्मा को आनन्द देने वाला है। मुने! घुश्मा का प्रिय करने के लिये भगवान् शंकर दक्षिण दिशा में स्थित देवशैल के निकटवर्ती एक सरोवर में प्रकट हुए। मुने! घुश्मा के पुत्र को सुदेह्य ने मार डाला था। उसे जीवित करने के लिये घुश्मा ने शिवजी की आराधना की। तब उनकी भक्ति से संतुष्ट होकर भक्तवत्सल शम्भु ने उनके पुत्र को बचा लिया। तदनन्तर कामनाओं के पूरक शम्भु घुश्मा की प्रार्थना से उस तड़ाग में ज्योतिर्लिंगस्वरूप से स्थित हो गये! उस समय उनका नाम घुश्मेश्वर हुआ। जो मनुष्य उस शिवलिंग का भक्तिपूर्वक दर्शन तथा पूजन करता है, वह इस लोक में सम्पूर्ण सुखों को भोगकर अन्त में मुक्ति-लाभ करता है।

सनत्कुमारजी! इस प्रकार मैंने तुमसे इस बारह दिव्य ज्योतिर्लिंगों का वर्णन किया। ये सभी भोग और मोक्ष के प्रदाता हैं। जो मनुष्य ज्योतिर्लिंगों की इस कथा को पढ़ता अथवा सुनता है, वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है तथा भोग-मोक्ष को प्राप्त करता है। इस प्रकार मैंने इस शतरुद्रनाम की संहिता का वर्णन कर दिया। यह शिवके सौ अवतारों की उत्तम कीर्ति से सम्पन्न तथा सम्पूर्ण अभीष्ट फलों को देने वाली है। जो मनुष्य इसे नित्य समाहितचित्त से पढ़ता अथवा सुनता है, उसकी सारी लालसाएँ पूर्ण हो जाती हैं और अन्त में उसे निश्चय ही मुक्ति मिल जाती है।

(अध्याय ४२)