काशी आदि के विभिन्न लिंगों का वर्णन तथा अत्रीश्वर की उत्पत्ति के प्रसंग में गंगा और शिव के अत्रि के तपोवन में नित्य निवास करने की कथा
सूतजी कहते हैं – मुनीश्वरो! गंगाजी के तट पर मुक्तिदायिनी काशीपुरी सुप्रसिद्ध है। वह भगवान् शिव की निवासस्थली मानी गयी है। उसे शिवलिंगमयी ही समझना चाहिये। इतना कहकर सूतजी ने काशी के अविमुक्त कृत्तिवासेश्वर, तिलभाण्डेश्वर, दशाश्वमेध आदि और गंगासागर आदि के संगमेश्वर, भूतेश्वर, नारीश्वर, वटुकेश्वर, पूरेश्वर, सिद्धनाथेश्वर, दूरेश्वर, श्रृंगेश्वर, वैद्यनाथ, जप्येश्वर, गोपेश्वर, रंगेश्वर, वामेश्वर, नागेश, कामेश, विमलेश्वर, प्रयाग के ब्रह्मेश्वर, सोमेश्वर, भारद्वाजेश्वर, शूलटंकेश्वर, माधवेश तथा अयोध्या के नागेश आदि अनेक प्रसिद्ध शिवलिंगों का वर्णन करके अत्रीश्वर की कथा के प्रसंग में यह बतलाया कि अत्रिपत्नी अनसूया पर कृपा करके गंगाजी वहाँ पधारीं। अनसूया ने गंगाजी से सदा वहाँ निवास करने के लिये प्रार्थना की।
तब गंगाजी ने कहा – अनसूये! यदि तुम एक वर्ष तक की हुई शंकरजी की पूजा और पतिसेवा का फल मुझे दे दो तो मैं देवताओं का उपकार करने के लिये यहाँ सदा ही स्थित रहूँगी। पतिव्रता का दर्शन करके मेरे मन को जैसी प्रसन्नता होती है, वैसी दूसरे उपायों से नहीं होती। सती अनसूये! यह मैंने तुमसे सच्ची बात कही है। पतिव्रता स्त्री का दर्शन करने से मेरे पापों का नाश हो जाता है और मैं विशेष शुद्ध हो जाती हूँ; क्योंकि पतिव्रता नारी पार्वती के समान पवित्र होती है। अतः यदि तुम जगत् का कल्याण करना चाहती हो और लोकहित के लिये मेरी माँगी हुई वस्तु मुझे देती हो तो मैं अवश्य यहाँ स्थिर रूप से निवास करूँगी।
सूतजी कहते हैं – मुनियो! गंगाजी की यह बात सुनकर पतिव्रता अनसूया ने वर्षभर का वह सारा पुण्य उन्हें दे दिया। अनसूया के पतिव्रत सम्बन्धी उस महान् कर्म को देखकर भगवान् महादेवजी प्रसन्न हो गये और पार्थिवलिंग से तत्काल प्रकट हो उन्होंने साक्षात् दर्शन दिया।
शम्भु बोले – साध्वि अनसूये! तुम्हारा यह कर्म देखकर मैं बहुत प्रसन्न हूँ। प्रिय पतिव्रते! वर माँगो; क्योंकि तुम मुझे बहुत ही प्रिय हो।
उस समय वे दोनों पति-पत्नी अद्भुत सुन्दर आकृति एवं पंचमुख आदि से युक्त भगवान् शिव को वहाँ प्रकट हुआ देख बड़े विस्मित हुए; उन्होंने हाथ जोड़ नमस्कार और स्तुति करके बड़े भक्तिभाव से भगवान् शंकर का पूजन किया। फिर उन लोककल्याणकारी शिव से कहा।
ब्राह्मणदम्पति बोले – देवेश्वर! यदि आप प्रसन्न हैं और जगदम्बा गंगा भी प्रसन्न हैं तो आप इस तपोवन में निवास कीजिये और समस्त लोकों के लिये सुखदायक हो जाइये। तब गंगा और शिव दोनों ही प्रसन्न हो उस स्थान पर, जहाँ वे ऋषिशिरोमणि रहते थे, प्रतिष्ठित हो गये। इन्हीं शिव का नाम वहाँ अत्रीश्वर हुआ।
(अध्याय २ - ४)