ऋषिका पर भगवान् शिव की कृपा, एक असुर से उसके थर्म की रक्षा करके उसके आश्रम में 'नन्दिकेश' नाम से निवास करना और वर्ष में एक दिन गंगा का भी वहाँ आना

तदनन्तर श्री सूतजी ने जब बहुत-से शिवलिंगों के कथाप्रसंग सुना दिये, तब ऋषियों ने पूछा – 'महामते सूतजी! वैशाख शुक्ला सप्तमी के दिन गंगाजी नर्मदा में कैसे आयीं? इसका विशेष रूप से वर्णन कीजिये। वहाँ महादेवजी का नाम नन्दिकेश्वर कैसे हुआ? इस बात को भी प्रसन्नतापूर्वक बताइये।'

सूतजी ने कहा – महर्षियो! एक ब्राह्मणी थी, जिसका नाम ऋषिका था। वह किसी ब्राह्मण की पुत्री थी और एक ब्राह्मण को ही विधिपूर्वक ब्याही गयी थी। विप्रवरो! यद्यपि वह द्विजपत्नी उत्तम व्रत का पालन करने वाली थी, तथापि अपने पूर्व जन्म के किसी अशुभ कर्म के प्रभाव से 'बालवैधव्य' को प्राप्त हो गयी। तब वह ब्राह्मणपत्नी ब्रह्मचर्यव्रत के पालन में तत्पर हो पार्थिवपूजनपूर्वक अत्यन्त कठोर तपस्या करने लगी। उस समय अवसर पाकर मूढ़ नाम से प्रसिद्ध एक दुष्ट और बलवान् असुर, जो बड़ा मायावी था, कामबाण से पीड़ित होकर वहाँ गया। उस अत्यन्त सुन्दरी कामिनी को तपस्या करती देख वह असुर उसे नाना प्रकार के लोभ दिखाता हुआ उसके साथ सम्भोग की याचना करने लगा। मुनीश्वरो! परंतु उत्तम व्रत का पालन करने तथा शिव के ध्यान में तत्पर रहनेवाली वह साध्वी नारी कामभाव से उस पर दृष्टि न डाल सकी। तपस्या में लगी हुई उस ब्राह्मणी ने उस असुर का सम्मान नहीं किया; क्योंकि वह अत्यन्त तपोनिष्ठ और शिवध्यान परायणा थी। उस कृशांगी युवती से तिरस्कृत हो उस दैत्यराज मूढ़ ने उसके ऊपर क्रोध प्रकट किया और फिर अपना विकट रूप उसे दिखाया। इसके बाद उस दुष्टात्मा ने भयदायक दुर्वचचन कहा और उस ब्राह्मणपत्नी को बारंबार त्रास देना आरम्भ किया। उस समय वह उसके भय से थर्रा उठी और अनेक बार स्नेहपूर्वक शिब-शिव की पुकार करने लगी। उस तन्वंगी द्विजपत्नी ने भगवान् शिव का पूर्णतया आश्रय ले रखा था। शिव का नाम जपनेवाली वह नारी अत्यन्त विह्वल हो अपने धर्म की रक्षा के लिये भगवान् शम्भु की ही शरण में गयी।

तब शरणागत की रक्षा, सदाचार की प्रतिष्ठा तथा उस ब्राह्मणी को आनन्द प्रदान करने के लिये भगवान् शिव वहाँ प्रकट हो गये। भक्तवत्सल परमेश्वर शंकर ने उस कामविह्वल दैत्यराज मूढ़ को तत्काल भस्म कर दिया और ब्राह्मणी की ओर कृपादृष्टि से देखकर भक्त की रक्षा के लिये दत्तचित्त हो कहा – 'वर माँगो।' महेश्वर का यह वचन सुनकर उस साध्वी ब्राह्मणपत्नी ने उनके उस आनन्दजनक मंगलमय स्वरूप का दर्शन किया। फिर सबको सुख देने वाले परमेश्वर शम्भु को प्रणाम करके शुद्ध अन्तःकरणवाली उस साध्वी ने हाथ जोड़ मस्तक झुकाकर उनकी स्तुति की।

ऋषिका बोली – देवदेव महादेव! शरणागतवत्सल! आप दीनबन्धु हैं। भक्तों की सदा रक्षा करनेवाले ईश्वर हैं। आपने मूढ़ नामक असुर से मेरे धर्म की रक्षा की है; क्योंकि आपके द्वारा यह दुष्ट असुर मारा गया। ऐसा करके आपने सम्पूर्ण जगत् की रक्षा की है। अब आप मुझे अपने चरणों की परम उत्तम एवं अनन्य भक्ति प्रदान कीजिये। नाथ! यही मेरे लिये वर है। इससे अधिक और क्या हो सकता है? प्रभो! महेश्वर! मेरी दूसरी प्रार्थना भी सुनिये। आप लोगों के उपकार के लिये यहाँ सदा स्थित रहिये।

महादेवजी ने कहा – ऋषिके! तुम सदाचारिणी और विशेषतः मुझमें भक्ति रखनेवाली हो। तुमने मुझसे जो-जो वर माँगे हैं, वे सब मैंने तुम्हें दे दिये।

ब्राह्मणो! इसी बीच में श्रीविष्णु और ब्रह्मा आदि देवता वहाँ भगवान् शिव का आविर्भाव हुआ जान हर्ष से भरे हुए आये और अत्यन्त प्रेमपूर्वक शिव को प्रणाम करके उन सबने उनका भलीभाँति पूजन किया। फिर शुद्ध हृदय से हाथ जोड़ मस्तक झुकाकर उनकी स्तुति भी की। इसी समय साध्वी देवनदी गंगा उस ऋषिका से उसके भाग्य की सराहना करती हुई प्रसन्नचित्त हो बोलीं।

गंगा ने कहा – ऋषिके! वैशाखमास में एक दिन यहाँ रहने के लिये मुझे भी तुम्हें वचन देना चाहिये। उस दिन मैं भी इस तीर्थ में निवास करना चाहती हूँ।

सूतजी कहते हैं – महर्षियो! गंगाजी की यह बात सुनकर उत्तम व्रत का पालन करने वाली सती साध्वी ऋषिका ने लोकहित के लिये प्रसन्नतापूर्वक कहा – 'बहुत अच्छा, ऐसा हो।' भगवान् शिव ऋषिका को आनन्द प्रदान करने के लिये अत्यन्त प्रसन्न हो उस पार्थिवलिंग में अपने पूर्ण अंश से विलीन हो गये। यह देख सब टेवता आनन्दित हो शिव तथा ऋषिका की प्रशंसा करने लगे और अपने-अपने धाम को चले गये। उस दिन से नर्मदा का वह तीर्थ ऐसा उत्तम और पावन हो गया तथा सम्पूर्ण पापों का नाश करनेवाले शिव वहाँ नन्दिकेश के नाम से विख्यात हुए। गंगा भी प्रतिवर्ष वैशाखमास की सप्तमी के दिन शुभ की इच्छा से अपने उस पाप को धोने के लिये वहाँ जाती हैं, जो मनुष्यों से वे ग्रहण किया करती हैं।

(अध्याय ५ - ७)