मल्लिकार्जुन और महाकाल नामक ज्योतिर्लिंगों के आविर्भाव की कथा तथा उनकी महिमा

सूतजी कहते हैं – महर्षियो! अब मैं मल्लिकार्जुन के प्रादुर्भाव का प्रसंग सुनाता हूँ, जिसे सुनकर बुद्धिमान् पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाता है। जब महाबली तारकशत्रु शिवापुत्र कुमार कार्तिकेय सारी पृथ्वी की परिक्रमा करके फिर कैलास पर्वत पर आये और गणेश के विवाह आदि की बात सुनकर क्रौंच पर्वत पर चले गये, पार्वती और शिवजी के वहाँ जाकर अनुरोध करने पर भी नहीं लौटे तथा वहाँ से भी बारह कोस दूर चले गये, तब शिव और पार्वती ज्योतिर्मय स्वरूप धारण करके वहाँ प्रतिष्ठित हो गये। वे दोनों पुत्रस्नेह से आतुर हो पर्व के दिन अपने पुत्र कुमार को देखने के लिये उनके पास जाया करते हैं। अमावस्या के दिन भगवान् शंकर स्वयं वहाँ जाते हैं और पौर्णमासी के दिन पार्वतीजी निश्चय ही वहाँ पदार्पण करती हैं। उसी दिन से लेकर भगवान् शिव का मल्लिकार्जुन नामक एक लिंग तीनों लोकों में प्रसिद्ध हुआ। (उसमें पार्वती और शिव दोनों की ज्योतियाँ प्रतिष्ठित हैं। 'मल्लिका' का अर्थ पार्वती है और 'अर्जुन' शब्द शिव का वाचक है।) उस लिंग का जो दर्शन करता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है और सम्पूर्ण अभीष्ट को प्राप्त कर लेता है। इसमें संशय नहीं है। इस प्रकार मल्लिकार्जुन नामक द्वितीय ज्योतिर्लिंग का वर्णन किया गया, जो दर्शन मात्र से लोगों के लिये सब प्रकार का सुख देनेवाला बताया गया है।

ऋषियों ने कहा – प्रभो! अब आप विशेष कृपा करके तीसरे ज्योतिर्लिंग का वर्णन कीजिये।

सूतजी ने कहा – ब्राह्मणो! मैं धन्य हूँ, कृतकृत्य हूँ, जो आप श्रीमानों का संग मुझे प्राप्त हुआ। साधु पुरुषों का संग निश्चय ही धन्य है। अतः मैं अपना सौभाग्य समझकर पापनाशिनी परम पावनी दिव्य कथा का वर्णन करता हूँ। तुम लोग आदरपूर्वक सुनो। अवन्ति नाम से प्रसिद्ध एक रमणीय नगरी है, जो समस्त देहधारियों को मोक्ष प्रदान करने वाली है। वह भगवान् शिव को बहुत ही प्रिय, परम पुण्यमयी और लोकपावनी है। उस पुरी में एक श्रेष्ठ ब्राह्मण रहते थे, जो शुभकर्मपरायण, वेदों के स्वाध्याय में संलग्न तथा वैदिक कर्मों के अनुष्ठान में सदा तत्पर रहनेवाले थे। वे घर में अग्नि की स्थापना करके प्रतिदिन अग्निहोत्र करते और शिव की पूजा में सदा तत्पर रहते थे। वे ब्राह्मण देवता प्रतिदिन पार्थिव शिवलिंग बनाकर उसकी पूजा किया करते थे। वेदप्रिय नामक वे ब्राह्मण देवता सम्यक् ज्ञानार्जन में लगे रहते थे; इसलिये उन्होंने सम्पूर्ण कर्मों का फल पाकर वह सदगति प्राप्त कर ली, जो संतों को ही सुलभ होती है। उनके शिवपूजापरायण चार तेजस्वी पुत्र थे, जो पिता-माता से सदगुणों में कम नहीं थे। उनके नाम थे – देवप्रिय, प्रियमेधा, सुकृत और सुव्रत। उनके सुखदायक गुण वहाँ सदा बढ़ने लगे। उनके कारण अवन्ति-नगरी ब्रह्मतेज से परिपूर्ण हो गयी थी।

उसी समय रत्नमाल पर्वत पर दूषण नामक एक धर्मद्वेषी असुर ने ब्रह्माजी से वर पाकर वेद, धर्म तथा धर्मात्माओं पर आक्रमण किया। अन्त में उसने सेना लेकर अवन्ति (उज्जैन) के ब्राह्मणों पर भी चढ़ाई कर दी। उसकी आज्ञा से चार भयानक दैत्य चारों दिशाओं में प्रलयाग्नि के समान प्रकट हो गये, परंतु वे शिवविश्वासी ब्राह्मण बन्धु उनसे डरे नहीं। जब नगर के ब्राह्मण बहुत घबरा गये, तब उन्होंने उनको आश्वासन देते हुए कहा – 'आप लोग भक्तवत्सल भगवान् शंकर पर भरोसा रखें।' यों कह शिवलिंग का पूजन करके वे भगवान् शिव का ध्यान करने लगे।

इतने में ही सेना सहित दूषण ने आकर उन ब्राह्मणों को देखा और कहा – 'इन्हें मार डालो, बाँध लो।' वेदप्रिय के पुत्र उन ब्राह्मणों ने उस समय उस दैत्य की कही हुई वह बात नहीं सुनी; क्योंकि वे भगवान् शम्भु के ध्यानमार्ग में स्थित थे। उस दुष्टात्मा दैत्य ने ज्यों ही उन ब्राह्मणों को मारने की इच्छा की, त्यों ही उनके द्वारा पूजित पार्थिव शिवलिंग के स्थान में बड़ी भारी आवाज के साथ एक गढ्ढा प्रकट हो गया। उस गढ्ढे से तत्काल विकटरूपधारी भगवान् शिव प्रकट हो गये, जो महाकाल नाम से विख्यात हुए। वे दुष्टों के विनाशक तथा सत्पुरुषों के आश्रयदाता हैं। उन्होंने उन दैत्यों से कहा – 'अरे खल! मैं तुझ-जैसे दुष्टों के लिये महाकाल प्रकट हुआ हूँ। तुम इन ब्राह्मणों के निकट से दूर भाग जाओ।'

ऐसा कहकर महाकाल शंकर ने सेना सहित दूषण को अपने हुंकार मात्र से तत्काल भस्म कर दिया। कुछ सेना उनके द्वारा मारी गयी और कुछ भाग खड़ी हुई। परमात्मा शिव ने दूषण का वध कर डाला। जैसे सूर्य को देखकर सम्पूर्ण अन्धकार नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार भगवान् शिव को देखकर उसकी सारी सेना अदृश्य हो गयी। देवताओं की दुन्दुभियाँ बज उठीं और आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी। उन ब्राह्मणों को आश्वासन दे सुप्रसनन हुए स्वयं महाकाल महेश्वर शिव ने उनसे कहा – 'तुम लोग वर माँगो।' उनकी वह बात सुनकर वे सब ब्राह्मण हाथ जोड़ भक्ति-भाव से भलीभाँति प्रणाम करके नतमस्तक हो बोले।

द्विजों ने कहा – महाकाल! महादेव! दुष्टों को दण्ड देने वाले प्रभो! शम्भो! आप हमें संसारसागर से मोक्ष प्रदान करें। शिव! आप जनसाधारण की रक्षा के लिये सदा यहीं रहें। प्रभो! शम्भो! अपना दर्शन करनेवाले मनुष्यों का आप सदा ही उद्धार करें।

सूतजी कहते हैं – महर्षियो! उनके ऐसा कहने पर उन्हें सद्गति दे भगवान् शिव अपने भक्तों की रक्षा के लिये उस परम सुन्दर गढ्ढे में स्थित हो गये। वे ब्राह्मण मोक्ष पा गये और वहाँ चारों ओर की एक-एक कोस भूमि लिंगरूपी भगवान् शिव का स्थल बन गयी। वे शिव भूतल पर महाकालेश्वर के नाम से विख्यात हुए। ब्राह्मणो! उनका दर्शन करने से स्वप्न में भी कोई दुःख नहीं होता। जिस-जिस कामना को लेकर कोई उस लिंग की उपासना करता है, उसे वह अपना मनोरथ प्राप्त हो जाता है तथा परलोक में मोक्ष भी मिल जाता है।

(अध्याय १५ - १६)