महाकाल के माहात्म्य के प्रसंग में शिवभक्त राजा चन्द्रसेन तथा गोप-बालक श्रीकर की कथा

सूतजी कहते हैं – ब्राह्मणो! भक्तों की रक्षा करनेवाले महाकाल नामक ज्योतिर्लिंग का माहात्म्य भक्तिभाव को बढ़ानेवाला है। उसे आदरपूर्वक सुनो। उज्जयिनी में चन्द्रसेन नामक एक महान् राजा थे, जो सम्पूर्ण शास्त्रों के तत्त्वज्ञ, शिवभक्त और जितेन्द्रिय थे। शिव के पार्षदों में प्रधान तथा सर्वलोकवन्दित मणिभद्रजी राजा चन्द्रसेन के सखा हो गये थे। एक समय उन्होंने राजा पर प्रसन्न होकर उन्हें चिन्तामणि नामक महामणि प्रदान की, जो कौस्तुभमणि तथा सूर्य के समान देदीप्यमान थी। वह देखने, सुनने अथवा ध्यान करने पर भी मनुष्यों को निश्चय ही मंगल प्रदान करती थी। भगवान् शिव के आश्रित रहनेवाले राजा चन्द्रसेन उस चिन्तामणि को कण्ठ में धारण करके जब सिंहासन पर बैठते, तब देवताओं में सूर्यनारायण की भाँति उनकी शोभा होती थी। नृपश्रेष्ठ चन्द्रसेन के कण्ठ में चिन्तामणि शोभा देती है, यह सुनकर समस्त राजाओं के मन में उस मणि के प्रति लोभ की मात्रा बढ़ गयी और वे क्षुब्ध रहने लगे। तदनन्तर वे सब राजा चतुरंगिणी सेना के साथ आकर युद्ध में चन्द्रसेन को जीतने के लिये उद्यत हो गये। वे सब परस्पर मिल गये थे और उसके साथ बहुत-से सैनिक थे। उन्होंने आपस में संकेत और सलाह करके आक्रमण किया और उज्जयिनी के चारों द्वारों को घेर लिया। अपनी पुरी को सम्पूर्ण राजाओं द्वारा घिरी हुई देख राजा चन्द्रसेन उन्हीं भगवान् महाकालेश्वर की शरण में गये और मन को संदेहरहित करके दृढ़ निश्चय के साथ उपवासपूर्वक दिन-रात अनन्य भाव से महाकाल की आराधना करने लगे।

उन्हीं दिनों उस श्रेष्ठ नगर में कोई ग्वालिन रहती थी, जिसके एकमात्र पुत्र था। वह विधवा थी और उज्जयिनी में बहुत दिनों से रहती थी। वह अपने पाँच वर्ष के बालक को लिये हुए महाकाल के मन्दिर में गयी और उसने राजा चन्द्रसेन द्वारा की हुई महाकाल की पूजा का आदरपूर्वक दर्शन किया। राजा के शिवपूजन का वह आश्चर्यमय उत्सव देखकर उसने भगवान् को प्रणाम किया और फिर वह अपने निवास स्थान पर लौट आयी। ग्वालिन के उस बालक ने भी वह सारी पूजा देखी थी। अतः घर आने पर उसने कौतूहलवश शिवजी की पूजा करने का विचार किया। एक सुन्दर पत्थर लाकर उसे अपने शिविर से थोड़ी ही दूर पर दूसरे शिविर के एकान्त स्थान में रख दिया और उसी को शिवलिंग माना। फिर उसने भक्तिपूर्वक कुत्रिम गन्ध, अलंकार, वस्त्र, धूप, दीप और अक्षत आदि द्रव्य जुटाकर उनके द्वारा पूजन करके मनःकल्पित दिव्य नैवेद्य भी अर्पित किया। सुन्दर-सुन्दर पत्तों और फूलों से बारंबार पूजन करके भाँति-भाँति से नृत्य किया और बारंबार भगवान् के चरणों में मस्तक झुकाया। इसी समय ग्वालिन ने भगवान् शिव में आसक्तचित्त हुए अपने पुत्र को बड़े प्यार से भोजन के लिये बुलाया। परंतु उसका मन तो भगवान् शिव की पूजा में लगा हुआ था। अतः जब बारंबार बुलाने पर भी उस बालक को भोजन करने की इच्छा नहीं हुई, तब उसकी माँ स्वयं उसके पास गयी और उसे शिव के आगे आँख बंद करके ध्यान लगाये बैठा देख उसका हाथ पकड़कर खींचने लगी। इतने पर भी जब वह न उठा, तब उसने क्रोध में आकर उसे खूब पीटा। खींचने और मारने-पीटने पर भी जब उसका पुत्र नहीं आया, तब उसने वह शिवलिंग उठाकर दूर फेंक दिया और उस पर चढ़ायी हुई सारी पूजा-सामग्री नष्ट कर दी। यह देख बालक 'हाय-हाय' करके रो उठा। रोष से भरी हुई ग्वालिन अपने बेटे को डाँट-फटकार कर पुनः घर में चली गयी। भगवान् शिव की पूजा को माता के द्वारा नष्ट की गयी देख वह बालक 'देव! देव! महादेव!' की पुकार करते हुए सहसा मूर्च्छित होकर गिर पड़ा। उसके नेत्रों से आँसुओं की धारा प्रवाहित होने लगी। दो घड़ी बाद जब उसे चेत हुआ, तब उसने आँखें खोलीं।

आँख खुलने पर उस शिशु ने देखा, उसका वही शिविर भगवान् शिव के अनुग्रह से तत्काल महाकाल का सुन्दर मन्दिर बन गया, मणियों के चमकीले खंभे उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। वहाँ की भूमि स्फटिकमणि से जड़ दी गयी थी। तपाये हुए सोने के बहुत-से विचित्र कलश उस शिवालय को सुशोभित करते थे। उसके विशाल द्वार, कपाट और प्रधान द्वार सुवर्णमय दिखायी देते थे। वहाँ बहुमूल्य नीलमणि तथा हीरे के बने हुए चबूतरे शोभा दे रहे थे। उस शिवालय के मध्य-भाग में दयानिधान शंकर का रत्नमय लिंग प्रतिष्ठित था। ग्वालिन के उस पुत्र ने देखा, उस शिवलिंग पर उसकी अपनी ही चढ़ायी हुई पूजन-सामग्री सुसज्जित है। यह सब देख वह बालक सहसा उठकर खड़ा हो गया। उसे मन-ही-मन बड़ा आश्चर्य हुआ और वह परमानन्द के समुद्र में निमग्न-सा हो गया। तदनन्तर भगवान् शिव की स्तुति करके उसने बारंबार उनके चरणों में मस्तक झुकाया और सूर्यास्त होने के पश्चात् वह गोपबालक शिवालय से बाहर निकला। बाहर आकर उसने अपने शिविर को देखा। वह इन्द्रभवन के समान शोभा पा रहा था। वहाँ सब कुछ तत्काल सुवर्णमय होकर विचित्र एवं परम उज्ज्वल वैभव से प्रकाशित होने लगा। फिर वह उस भवन के भीतर गया, जो सब प्रकार की शोभाओं से सम्पन्न था। उस भवन में सर्वत्र मणि, रत्न और सुवर्ण ही जड़े गये थे। प्रदोषकाल में सानन्द भीतर प्रवेश करके बालक ने देखा, उसकी माँ दिव्य लक्षणों से लक्षित हो एक सुन्दर पलंग पर सो रही है। रत्नमय अलंकारों से उसके सभी अंग उद्दीप्त हो रहे हैं और वह साक्षात् देवांगना के समान दिखायी देती है। मुख से विह्वल हुए उस बालक ने अपनी माता को बड़े वेग से उठाया। वह भगवान् शिव की कृपापात्र हो चुकी थी। ग्वालिन ने उठकर देखा, सब कुछ अपूर्व-सा हो गया था। उसने महान् आनन्द में निमग्न हो अपने बेटे को छाती से लगा लिया। पुत्र के मुख से गिरिजापति के कृपाप्रसाद का वह सारा वृत्तान्त सुनकर ग्वालिन ने राजा को सूचना दी, जो निरन्तर भगवान् शिव के भजन में लगे रहते थे। राजा अपना नियम पूरा करके रात में सहसा वहाँ आये और ग्वालिन के पुत्र का वह प्रभाव, जो शंकरजी को संतुष्ट करनेवाला था, देखा। मन्त्रियों और पुरोहितों सहित राजा चन्द्रसेन वह सब कुछ देख परमानन्द के समुद्र में डूब गये और नेत्रों से प्रेम के आँसू बहाते तथा प्रसन्नतापूर्वक शिव के नाम का कीर्तन करते हुए उन्होंने उस बालक को हृदय से लगा लिया। ब्राह्मणो! उस समय वहाँ बड़ा भारी उत्सव होने लगा। सब लोग आनन्दविभोर होकर महेश्वर के नाम और यश का कीर्तन करने लगे। इस प्रकार शिव का यह अद्भुत माहात्म्य देखने से पुरवासियों को बड़ा हर्ष हुआ और इसी की चर्चा में वह सारी रात एक क्षण के समान व्यतीत हो गयी।

युद्ध के लिये नगर को चारों ओर से घेरकर खड़े हुए राजाओं ने भी प्रातःकाल अपने गुप्तचरों के मुख से वह सारा अद्भुत चरित्र सुना। उसे सुनकर सब आश्चर्य से चकित हो गये और वहाँ आये हुए सब नरेश एकत्र हो आपस में इस प्रकार बोले – 'ये राजा चन्द्रसेन बड़े भारी शिवभक्त हैं; अतएव इन पर विजय पाना कठिन है। ये सर्वथा निर्भय होकर महाकाल की नगरी उज्जयिनी का पालन करते हैं। जिसकी पुरी के बालक भी ऐसे शिवभक्त हैं, वे राजा चन्द्रसेन तो महान शिवभक्त हैं ही। इनके साथ विरोध करने से निश्चय ही भगवान् शिव क्रोध करेंगे और उनके क्रोध से हम सब लोग नष्ट हो जायँगे। अतः इन नरेश के साथ हमें मेल-मिलाप ही कर लेना चाहिये। ऐसा होने पर महेश्वर हम पर बड़ी कृपा करेंगे।'

सूतजी कहते हैं – ब्राह्मणो! ऐसा निश्चय करके शुद्ध हृदयवाले उन सब भूपालों ने हथियार डाल दिये। उनके मन से वैरभाव निकल गया। वे सभी राजा अत्यन्त प्रसन्न हो चन्द्रसेन की अनुमति ले महाकाल की उस रमणीय नगरी के भीतर गये। वहाँ उन्होंने महाकाल का पूजन किया। फिर वे सब-के-सब उस ग्वालिन के महान् अभ्युदयपूर्ण दिव्य सौभाग्य की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए उनके घर पर गये। वहाँ राजा चन्द्रसेन ने आगे बढ़कर उनका स्वागत-सत्कार किया। वे बहुमूल्य आसनों पर बैठे और आश्चर्यचकित एवं आनन्दित हुए। गोपबालक के ऊपर कृपा करने के लिये स्वतः प्रकट हुए शिवालय और शिवलिंग का दर्शन करके उन सब राजाओं ने अपनी उत्तम बुद्धि भगवान् शिव के चिन्तन में लगायी। तदनन्तर उन सारे नरेशों ने भगवान् शिव की कृपा प्राप्त करने के लिये उस गोपशिशु को बहुत-सी वस्तुएँ प्रसन्नतापूर्वक भेंट कीं। सम्पूर्ण जनपदों में जो बहुसंख्यक गोप रहते थे, उन सबका राजा उन्होंने उसी बालक को बना दिया।

इसी समय समस्त देवताओं से पूजित परम तेजस्वी वानरराज हनुमानजी वहाँ प्रकट हुए। उनके आते ही सब राजा बड़े वेग से उठकर खड़े हो गये। उन सबने भक्तिभाव से विनम्र होकर उन्हें मस्तक झुकाया। राजाओं से पूजित हो वानरराज हनुमानजी उन सबके बीच में बैठे और उस गोपबालक को हृदय से लगाकर उन नरेशों की ओर देखते हुए बोले – 'राजाओ! तुम सब लोग तथा दूसरे देहधारी भी मेरी बात सुनें। इससे तुम लोगों का भला होगा। भगवान् शिव के सिवा देहधारियों के लिये दूसरी कोई गति नहीं है। यह बड़े सौभाग्य की बात है कि इस गोपबालक ने शिव की पूजा का दर्शन करके उससे प्रेरणा ली और बिना मन्त्र के भी शिव का पूजन करके उन्हें पा लिया। गोपवंश की कीर्ति बढ़ानेवाला यह बालक भगवान् शंकर का श्रेष्ठ भक्त है। इस लोक में सम्पूर्ण भोगों का उपभोग करके अन्त में यह मोक्ष प्राप्त कर लेगा। इसकी वंश परम्परा के अन्तर्गत आठवीं पीढ़ी में महायशस्वी नन्द होंगे, जिनके यहाँ साक्षात् भगवान् नारायण उनके पुत्ररूप से प्रकट हो श्रीकृष्ण नाम से प्रसिद्ध होंगे। आज से यह गोपकुमार इस जगत् में श्रीकर के नाम से विशेष ख्याति प्राप्त करेगा।'

सूतजी कहते हैं – ब्राह्मणो। ऐसा कहकर अंजनीनन्दन शिवस्वरूप वानरराज हनुमानजी ने समस्त राजाओं तथा महाराज चअन्द्रसेन को भी कृपादृष्टि से देखा। तदनन्तर उन्होंने उस बुद्धिमान् गोपबालक श्रीकर को बड़ी प्रसन्नता के साथ शिवोपासना के उस आचार-व्यवहार का उपदेश दिया, जो भगवान् शिव को बहुत प्रिय है। इसके बाद परम प्रसन्न हुए हनुमानजी चन्द्रसेन और श्रीकर से बिदा ले उन सब राजाओं के देखते-देखते वहीं अन्तर्धान हो गये। वे सब राजा हर्ष में भरकर सम्मानित हो महाराज चन्द्रसेन की आज्ञा ले जैसे आये थे, वैसे ही लौट गये। महातेजस्वी श्रीकर भी हनुमानूजी का उपदेश पाकर धर्मज्ञ ब्राह्णों के साथ शंकरजी की उपासना करने लगा। महाराज चन्द्रसेन और गोपबालक श्रीकर दोनों ही बड़ी प्रसन्नता के साथ महाकाल की सेवा करते थे। उन्हीं की आराधना करके उन दोनों ने परम पद प्राप्त कर लिया। इस प्रकार महाकाल नामक शिवलिंग सत्पुरुषों का आश्रय है। भक्तवत्सल शंकर दुष्ट पुरुषों का सर्वथा हनन करनेवाले हैं। यह परम पवित्र रहस्यमय आख्यान कहा गया है, जो सब प्रकार का सुख देनेवाला है। यह शिवभक्ति को बढ़ाने तथा स्वर्ग की प्राप्ति करानेवाला है।

(अध्याय १७)