विन्ध्य की तपस्या, ओंकार में परमेश्वरलिंग के प्रादुर्भाव और उसकी महिमा का वर्णन
ऋषियों ने कहा – महाभाग सूतजी! आपने अपने भक्त की रक्षा करनेवाले महाकाल नामक शिवलिंग की बड़ी अद्भुत कथा सुनायी है। अब कृपा करके चौथे ज्योतिर्लिंग का परिचय दीजिये – ओंकारतीर्थ में सर्वपातकहारी परमेश्वर का जो ज्योतिर्लिंग है, उसके आविर्भाव की कथा सुनाइये।
सूतजी बोले – महर्षियो! ओंकारतीर्थ में परमेशसंज्ञक ज्योतिर्लिंग जिस प्रकार प्रकट हुआ, वह बताता हूँ; प्रेम से सुनो। एक समय की बात है, भगवान् नारद मुनि गोकर्ण नामक शिव के समीप जा बड़ी भक्ति के साथ उनकी सेवा करने लगे। कुछ काल के बाद वे मुनिश्रेष्ठ वहाँ से गिरिराज विन्ध्य पर आये और विन्ध्य ने वहाँ बड़े आदर के साथ उनका पूजन किया। मेरे यहाँ सब कुछ है, कभी किसी बात की कमी नहीं होती है, इस भाव को मन में लेकर विन्ध्याचल नारदजी के सामने खड़ा हो गया। उसकी वह अभिमानभरी बात सुनकर अहंकारनाशक नारद मुनि लंबी साँस खींचकर चुपचाप खड़े रह गये। यह देख विन्ध्य पर्वत ने पूछा – 'आपने मेरे यहाँ कौन-सी कमी देखी है? आपके इस तरह लंबी साँस खींचने का क्या कारण है?'
नारदजी ने कहा – भैया! तुम्हारे यहाँ सब कुछ है। फिर भी मेरु पर्वत तुमसे बहुत ऊँचा है। उसके शिखरों का विभाग देवताओं के लोकों में भी पहुँचा हुआ है। किंतु तुम्हारे शिखर का भाग वहाँ कभी नहीं पहुँच सका है।
सूतजी कहते हैं – ऐसा कहकर नारदजी वहाँ से जिस तरह आये थे, उसी तरह चल दिये। परंतु विन्ध्य पर्वत 'मेरे जीवन आदि को धिक्कार है' ऐसा सोचता हुआ मन-ही-मन संतप्त हो उठा। अच्छा, 'अब मैं विश्वनाथ भगवान् शम्भु की आराधनापूर्वक तपस्या करूँगा' ऐसा हार्दिक निश्चय करके वह भगवान् शंकर की शरण में गया। तदनन्तर जहाँ साक्षात् ओंकार की स्थिति है, वहाँ प्रसन्नतापूर्वक जाकर उसने शिव की पार्थिवमूर्ति बनायी और छः मास तक निरन्तर शम्भु की आराधना करके शिव के ध्यान में तत्पर हो वह अपनी तपस्या के स्थान से हिला तक नहीं। विन्ध्याचल की ऐसी तपस्या देखकर पार्वतीपति प्रसन्न हो गये। उन्होंने विन्ध्याचल को अपना वह स्वरूप दिखाया, जो योगियों के लिये भी दुर्लभ है। वे प्रसन्न हो उस समय उससे बोले – 'विन्ध्य! तुम मनोवांछित वर मागो। मैं भक्तों को अभीष्ट वर देनेवाला हूँ और तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूँ।'
विन्ध्य बोला – देवेश्वर शम्भो! आप सदा ही भक्तवत्सल हैं। यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे वह अभीष्ट बुद्धि प्रदान कीजिये, जो अपने कार्य को सिद्ध करने वाली हो।
भगवान् शम्भु ने उसे वह उत्तम वर दे दिया और कहा – 'पर्वतराज विन्ध्य! तुम जैसा चाहो, वैसा करो।' इसी समय देवता तथा निर्मल अन्तःकरणवाले ऋषि वहाँ आये और शंकरजी की पूजा करके बोले – 'प्रभो! आप यहाँ स्थिर रूप से निवास करें।'
देवताओं की यह बात सुनकर परमेश्वर शिव प्रसन्न हो गये और लोकों को सुख देने के लिये उन्होंने सहर्ष वैसा ही किया। वहाँ जो एक ही ओंकारलिंग था, वह दो स्वरूपों में विभक्त हो गया। प्रणव में जो सदाशिव थे, वे ओंकार नाम से विख्यात हुए और पार्थिवमूर्ति में जो शिवज्योति प्रतिष्ठित हुई, उसकी परमेश्वर संज्ञा हुई (परमेश्वर को ही अमलेश्वर भी कहते हैं)। इस प्रकार ओंकार और परमेश्वर - ये दोनों शिवलिंग भक्तों को अभीष्ट फल प्रदान करनेवाले हैं। उस समय देवताओं और ऋषियों ने उन दोनों लिंगों की पूजा की और भगवान् वृषभध्वज को संतुष्ट करके अनेक वर प्राप्त किये। तत्पश्चात् देवता अपने-अपने स्थान को गये और विन्ध्याचल भी अधिक प्रसन्नता का अनुभव करने लगा। उसने अपने अभीष्ट कार्य को सिद्ध किया और मानसिक परिताप को त्याग दिया। जो पुरुष इस प्रकार भगवान् शंकर का पूजन करता है, वह माता के गर्भ में फिर नहीं आता और अपने अभीष्ट फल को प्राप्त कर लेता है – इसमें संशय नहीं।
सूतजी कहते हैं – महर्षियो! ओंकार में जो ज्योतिर्लिंग प्रकट हुआ और उसकी आराधना से जो फल मिलता है, वह सब यहाँ तुम्हें बता दिया। इसके बाद में उत्तम केदार नामक ज्योतिर्लिंग का वर्णन करूँगा।
(अध्याय १८)