विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग और उनकी महिमा के प्रसंग में पंचक्रोशी की महत्ता का प्रतिपादन

सूतजी कहते हैं – मुनिवरो! अब मैं काशी के विश्वेश्वर नामक ज्योतिर्लिंग का माहात्म्य बताऊँगा, जो महापातकों का भी नाश करनेवाला है। तुम लोग सुनो, इस भूतल पर जो कोई भी वस्तु दृष्टिगोचर होती है, वह सच्चिदानन्दस्वरूप, निर्विकार एवं सनातन ब्रह्मरूप है। अपने कैवल्य (अद्वैत) भाव में ही रमनेवाले उन अद्वितीय परमात्मा में कभी एक से दो हो जाने की इच्छा जाग्रत् हुई।' फिर वे ही परमात्मा सगुण रूप में प्रकट हो शिव कहलाये। वे शिव ही पुरुष और स्त्री दो रूपों में प्रकट हो गये। उनमें जो पुरुष था, उसका 'शिव' नाम हुआ और जो स्त्री हुईं, उसे 'शक्ति' कहते हैं। उन चिदानन्दस्वरूप शिव और शक्ति ने स्वयं अदृष्ट रहकर स्वभाव से ही दो चेतनों (प्रकृति और पुरुष) की सृष्टि की। मुनिवरो! उन दोनों माता-पिताओं को उस समय सामने न देखकर वे दोनों प्रकृति और पुरुष महान् संशय में पड़ गये। उस समय निर्गुण परमात्मा से आकाशवाणी प्रकट हुई – 'तुम दोनों को तपस्या करनी चाहिये। फिर तुमसे परम उत्तम सृष्टि का विस्तार होगा।'

वे प्रकृति और पुरुष बोले – 'प्रभो। शिव! तपस्या के लिये तो कोई स्थान है ही नहीं। फिर हम दोनों इस समय कहाँ स्थित होकर आपकी आज्ञा के अनुसार तप करें।'

तब निर्गुण शिव ने तेज के सारभूत पाँच कोस लंबे-चौड़े शुभ एवं सुन्दर नगर का निर्माण किया, जो उनका अपना ही स्वरूप था। वह सभी आवश्यक उपकरणों से युक्त था। उस नगर का निर्माण करके उन्होंने उसे उन दोनों के लिये भेजा। वह नगर आकाश में पुरुष के समीप आकर स्थित हो गया। तब पुरुष – श्रीहरि ने उस नगर में स्थित हो सृष्टि की कामना से शिव का ध्यान करते हुए बहुत वर्षों तक तप किया। उस समय परिश्रम के कारण उनके शरीर से श्वेत जल की अनेक धाराएं प्रकट हुईं, जिनसे सारा शून्य आकाश व्याप्त हो गया। वहाँ दूसरा कुछ भी दिखायी नहीं देता था। उसे देखकर भगवान् विष्णु मन-ही-मन बोल उठे – यह कैसी अद्भुत वस्तु दिखायी देती है? उस समय इस आश्चर्य को देखकर उन्होंने अपना सिर हिलाया, जिससे उन प्रभु के सामने ही उनके एक कान से मणि गिर पड़ी। जहाँ वह मणि गिरी, वह स्थान मणिकर्णिका नामक महान् तीर्थ हो गया। जब पूर्वोक्त जलराशि में वह सारी पंचक्रोशी डूबने और बहने लगी, तब निर्गुण शिव ने शीघ्र ही उसे अपने त्रिशूल के द्वारा धारण कर लिया। फिर विष्णु अपनी पत्नी प्रकृति के साथ वहीं सोये। तब उनकी नाभि से एक कमल प्रकट हुआ और उस कमल से ब्रह्मा उत्पन्न हुए। उनकी उत्पत्ति में भी शंकर का आदेश ही कारण था। तदनन्तर उन्होंने शिव की आज्ञा पाकर अद्भुत सृष्टि आरम्भ की। ब्रह्माजी ने ब्रह्माण्ड में चौदह भुवन बनाये। ब्रह्माण्ड का विस्तार महर्षियों ने पचास करोड़ योजन का बताया है। फिर भगवान् शिव ने यह सोचा कि 'ब्रह्माण्ड के भीतर कर्मपाश से बँधे हुए प्राणी मुझे कैसे प्राप्त कर सकेंगे?' यह सोचकर उन्होंने मुक्तिदायिनी पंचक्रोशी को इस जगत् में छोड़ दिया।

"यह पंचक्रोशी काशी लोक में कल्याणदायिनी, कर्मबन्धन का नाश करने वाली, ज्ञानदात्री तथा मोक्ष को प्रकाशित करने वाली मानी गयी है। अतएव मुझे परम प्रिय है। यहाँ स्वयं परमात्मा ने 'अविमुक्त' लिंग की स्थापना की है। अतः मेरे अंशभूत हरे! तुम्हें कभी इस क्षेत्र का त्याग नहीं करना चाहिये।" ऐसा कहकर भगवान् हर ने काशीपुरी को स्वयं अपने त्रिशूल से उतार कर मर्त्यलोक के जगत् में छोड़ दिया। ब्रह्माजी का एक दिन पूरा होने पर जब सारे जगत् का प्रलय हो जाता है, तब भी निश्चय ही इस काशीपुरी का नाश नहीं होता। उस समय भगवान् शिव इसे त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं और जब ब्रह्मा द्वारा पुनः नयी सृष्टि की जाती है, तब इसे फिर वे इस भूतल पर स्थापित कर देते हैं। कर्मों का कर्षण करने से ही इस पुरी को 'काशी' कहते हैं। काशी में अविमुक्तेश्वरलिंग सदा विराजमान रहता है। वह महापात की पुरुषों को भी मोक्ष प्रदान करनेवाला है। मुनीश्वरो! अन्य मोक्षदायक धामों में सारूप्य आदि मुक्ति प्राप्त होती है। केवल इस काशी में ही जीवों को सायुज्य नामक सर्वोत्तम मुक्ति सुलभ होती है। जिनकी कहीं भी गति नहीं है, उनके लिये वाराणसी पुरी ही गति है। महापुण्यमयी पंचक्रोशी करोड़ों हत्याओं का विनाश करने वाली है। यहाँ समस्त अमरगण भी मरण की इच्छा करते हैं। फिर दूसरों की तो बात ही क्या है। यह शंकर की प्रिय नगरी काशी सदा भोग और मोक्ष प्रदान करने वाली है।

कैलास के पति, जो भीतर से सत्त्वगुणी और बाहर से तमोगुणी कहे गये हैं, कालाग्नि रुद्र के नाम से विख्यात हैं। वे निर्गुण होते हुए भी सगुण रूप में प्रकट हुए शिव हैं। उन्होंने बारंबार प्रणाम करके निर्गुण शिव से इस प्रकार कहा।

रुद्र बोले – विश्वनाथ! महेश्वर! मैं आपका ही हूँ, इसमें संशय नहीं है। साम्ब महादेव! मुझ आत्मज पर कृपा कीजिये। जगत्पते! लोकहित की कामना से आपको सदा यहीं रहना चाहिये। जगन्नाथ! मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ। आप यहाँ रहकर जीवों का उद्धार करें।

सूतजी कहते हैं – तदनन्तर मन और इन्द्रियों को वश में रखने वाले अविमुक्त ने भी शंकर से बारंबार प्रार्थना करके नेत्रों से आँसू बहाते हुए ही प्रसन्नतापूर्वक उनसे कहा।

अविमुक्त बोले – काल रूपी रोग के सुन्दर औषध देवाधिदेव महादेव! आप वास्तव में तीनों लोकों के स्वामी तथा ब्रह्मा और विष्णु आदि के द्वारा भी सेवनीय हैं। देव! काशीपुरी को आप अपनी राजधानी स्वीकार करें। मैं अचिन्त्य सुख की प्राप्ति के लिये यहाँ सदा आपका ध्यान लगाये स्थिर भाव से बैठा रहूँगा। आप ही मुक्ति देने वाले तथा सम्पूर्ण कामनाओं के पूरक हैं, दूसरा कोई नहीं। अतः आप परोपकार के लिये उमा सहित सदा यहाँ विराजमान रहें। सदाशिव! आप समस्त जीवों को संसार-सागर से पार करें। हर! मैं बारंबार प्रार्थना करता हूँ कि आप अपने भक्तों का कार्य सिद्ध करें।

सूतजी कहते हैं – ब्राह्मणो! जब विश्वनाथ ने भगवान् शंकर से इस प्रकार प्रार्था की, तब सर्वेश्वर शिव समस्त लोकों का उपकार करने के लिये वहाँ विराजमान हो गये। जिस दिन से भगवान् शिव काशी में आ गये, उसी दिन से काशी सर्वश्रेष्ठ पुर हो गयी।

(अध्याय २२)