वाराणसी तथा विश्वेश्वर का माहात्म्य
सूतजी कहते हैं – मुनीश्वरो! मैं संक्षेप से ही वाराणसी तथा विश्वेश्वर के परम सुन्दर माहात्म्य का वर्णन करता हूँ, सुनो। एक समय की बात है कि पार्वती देवी ने लोकहित की कामना से बड़ी प्रसन्नता के साथ भगवान् शिव से अविमुक्त क्षेत्र और अविमुक्त लिंग का माहात्म्य पूछा।
तब परमेश्वर शिव ने कहा – यह वाराणसी पुरी सदा के लिये मेरा गुह्मतम क्षेत्र है और सभी जीवों की मुक्ति का सर्वथा हेतु है। इस क्षेत्र में सिद्धगण सदा मेरे व्रत का आश्रय ले नाना प्रकार के वेष धारण किये मेरे लोक को पाने की इच्छा रखकर जितात्मा और जितेन्द्रिय हो नित्य महायोग का अभ्यास करते हैं। उस उत्तम महायोग का नाम है पाशुपत योग। उसका श्रुतियों द्वारा प्रतिपादन हुआ है। वह भोग और मोक्ष रूप फल प्रदान करनेवाला है। महेश्वरि! वाराणसी पुरी में निवास करना मुझे सदा ही अच्छा लगता है। जिस कारण से मैं सब कुछ छोड़कर काशी में रहता हूँ, उसे बताता हूँ, सुनो। जो मेरा भक्त तथा मेरे तत्त्व का ज्ञानी है, वे दोनों अवश्य ही मोक्ष के भागी होते हैं। उनके लिये तीर्थ की अपेक्षा नहीं है। विहित और अविहित दोनों प्रकार के कर्म उनके लिये समान हैं। उन्हें जीवन्मुक्त ही समझना चाहिये। वे दोनों कहीं भी मरें, तुरंत ही मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। यह मैंने निश्चित बात कही है। सर्वोत्तमशक्ति देवी उमे! इस परम उत्तम अविमुक्त तीर्थ में जो विशेष बात है, उसे तुम मन लगाकर सुनो। सभी वर्ण और समस्त आश्रमों के लोग चाहे वे बालक, जवान या बूढ़े, कोई भी क्यों न हों – यदि इस पुरी में मर जायँ तो मुक्त हो ही जाते हैं, इसमें संशय नहीं है। स्त्री अपवित्र हो या पवित्र, कुमारी हो या विवाहिता, विधवा हो या वन्ध्या, रजस्वला, प्रसूता, संस्कारहीना अथवा जैसी-तैसी – कैसी ही क्यों न हो, यदि इस क्षेत्र में मरी हो तो अवश्य मोक्ष की भागिनी होती है – इसमें संदेह नहीं है। स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज अथवा जरायुज प्राणी जैसे यहाँ मरने पर मोक्ष पाता है, वैसे और कहीं नहीं पाता। देवि! यहाँ मरनेवाले के लिये न ज्ञान की अपेक्षा है न भक्ति की; न कर्म की आवश्यकता है न दानकी; न कभी संस्कृति की अपेक्षा है और न धर्म की ही; यहाँ नामकीर्तन, पूजन तथा उत्तम जाति की भी अपेक्षा नहीं होती। जो मनुष्य मेरे इस मोक्षदायक क्षेत्र में निवास करता है, वह चाहे जैसे मरे, उसके लिये मोक्ष की प्राप्ति सुनिश्चित है। प्रिये! मेरा यह दिव्य पुर गुह्म से भी गुह्मतर है। ब्रह्मा आदि देवता भी इसके माहात्म्य को नहीं जानते। इसलिये यह महान् क्षेत्र अविमुक्त नाम से प्रसिद्ध है; क्योंकि नेमिष आदि सभी तीर्थों से यह श्रेष्ठ है। यह मरने पर अवश्य मोक्ष देनेवाला है। धर्म का सार सत्य है, मोक्ष का सार समता है तथा समस्त क्षेत्रों एवं तीर्थों का सार यह 'अविमुक्त' तीर्थ (काशी) है – ऐसी विद्वानों की मान्यता है। इच्छानुसार भोजन, शयन, क्रीड़ा तथा विविध कर्मों का अनुष्ठान करता हुआ भी मनुष्य यदि इस अविमुक्त तीर्थ में प्राणों का परित्याग करता है तो उसे मोक्ष मिल जाता है। जिसका चित्त विषयों में आसक्त है और जिसने धर्म की रुचि त्याग दी है, वह भी यदि इस क्षेत्र में मृत्यु को प्राप्त होता है तो पुनः संसार-बन्धन में नहीं पड़ता। फिर जो ममता से रहित, धीर, सत्त्वगुणी, दम्भहीन, कर्मकुशल और कर्तापन के अभिमान से रहित होने के कारण किसी भी कर्म का आरम्भ न करनेवाले हैं, उनकी तो बात ही क्या है। वे सब मुझमें ही स्थित हैं।
इस काशीपुरी में शिवभक्तों द्वारा अनेक शिवलिंग स्थापित किये गये हैं। पार्वति! वे सम्पूर्ण अभीष्टों को देने वाले और मोक्षदायक हैं। चारों दिशाओं में पाँच-पाँच कोस फैला हुआ यह क्षेत्र 'अविमुक्त' कहा गया है, यह सब ओर से मोक्षदायक है। जीव को मृत्युकाल में यह क्षेत्र उपलब्ध हो जाय तो उसे अवश्य मोक्ष की प्राप्ति होती है। यदि निष्पाप मनुष्य काशी में मरे तो उसका तत्काल मोक्ष हो जाता है और जो पापी मनुष्य मरता है, वह कायव्यूहों को प्राप्त होता है। उसे पहले यातना का अनुभव करके ही पीछे मोक्ष की प्राप्ति होती है। सुन्दरि! जो इस अविमुक्त क्षेत्र में पातक करता है, वह हजारों वर्षों तक भैरवी यातना पाकर पाप का फल भोगने के पश्चात् ही मोक्ष पाता है। शतकोटि कल्पों में भी अपने किये हुए कर्म का क्षय नहीं होता। जीव को अपने द्वारा किये गये शुभाशुभ कर्म का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है। केवल अशुभ कर्म नरक देनेवाला होता है, केवल शुभ कर्म स्वर्ग की प्राप्ति करानेवाला होता है तथा शुभ और अशुभ दोनों कर्मों से मनुष्य योनि की प्राप्ति बतायी गयी है। अशुभ कर्म की कमी और शुभ कर्म की अधिकता होने पर उत्तम जन्म प्राप्त होता है। शुभ कर्म की कमी और अशुभ कर्म की अधिकता होने पर यहाँ अधम जन्म की प्राप्ति होती है। पार्वति! जब शुभ और अशुभ दोनों ही कर्मों का क्षय हो जाता है, तभी जीव को सच्चा मोक्ष प्राप्त होता है। यदि किसी ने पूर्वजन्म में आदरपूर्वक काशी का दर्शन किया है, तभी उसे इस जन्म में काशी में पहुँचकर मृत्यु की प्राप्ति होती है। जो मनुष्य काशी जाकर गंगा में स्नान करता है, उसके क्रियमाण और संचित कर्म का नाश हो जाता है। परंतु प्रारब्ध कर्म भोगे बिना नष्ट नहीं होता, यह निश्चित बात है। जिसकी काशी में मुक्ति हो जाती है, उसके प्रारब्ध कर्म का भी क्षय हो जाता है। प्रिये! जिसने एक ब्राह्मण को भी काशीवास करवाया है, वह स्वयं भी काशीवास का अवसर पाकर मोक्ष लाभ करता है।
सूतजी कहते हैं – मुनिवरो! इस तरह काशी का तथा विश्वेश्वर लिंग का प्रचुर माहात्म्य बताया गया है, जो सत्पुरुषों को भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला है। इसके बाद मैं त्र्यम्बक नामक ज्योतिरलिंग का माहात्म्य बताऊँगा, जिसे सुनकर मनुष्य क्षणभर में समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।
(अध्याय २३)