त्र्यम्बक ज्योतिर्लिंग के प्रसंग में महर्षि गौतम के द्वारा किये गये परोपकार की कथा, उनका तप के प्रभाव से अक्षय जल प्राप्त करके ऋषियों की अनावृष्टि के कष्ट से रक्षा करना; ऋषियों का छलपूर्वक उन्हें गोहत्या में फँसाकर आश्रम से निकालना और शुद्धि का उपाय बताना

सूतजी कहते हैं – मुनिवरो! सुनो, मैंने सद्गुरु व्यासजी के मुख से जैसी सुनी है, उसी रूप में एक पापनाशक कथा तुम्हें सुना रहा हूँ। पूर्वकाल की बात है, गौतम नाम से विख्यात एक श्रेष्ठ ऋषि रहते थे, जिनकी परम धार्मिक पत्नी का नाम अहल्या था। दक्षिण दिशा में जो ब्रह्मगिरि है, वहीं उन्होंने दस हजार वर्षों तक तपस्या की थी। उत्तम व्रत का पालन करनेवाले महर्षियो! एक समय वहाँ सौ वर्षों तक बड़ा भयानक अवर्षण हो गया। सब लोग महान् दुःख में पड़ गये। इस भूतल पर कहीं गीला पत्ता भी नहीं दिखायी देता था। फिर जीवों का आधारभूत जल कहाँ से दृष्टिगोचर होता। उस समय मुनि, मनुष्य, पशु, पक्षी और मृग – सब वहाँ से दसों दिशाओं को चले गये। तब गौतम ऋषि ने छः महीने तक तप करके वरुण को प्रसन्न किया। वरुण ने प्रकट होकर वर माँगने को कहा – ऋषि ने वृष्टि के लिये प्रार्था की। वरुण ने कहा – 'देवताओं के विधान के विरुद्ध वृष्टि न करके मैं तुम्हारी इच्छा के अनुसार तुम्हें सदा अक्षय रहनेवाला जल देता हूँ। तुम एक गढ्ढा तैयार करो।'

उनके ऐसा कहने पर गौतम ने एक हाथ गहरा गड्ढ़ा खोदा और वरुण ने उसे दिव्य जल के द्वारा भर दिया तथा परोपकार से सुशोभित होनेवाले मुनिश्रेष्ठ गौतम से कहा – 'महामुने! कभी क्षीण न होने वाला यह जल तुम्हारे लिये तीर्थरूप होगा और पृथ्वी पर तुम्हारे ही नाम से इसकी ख्याति होगी। यहाँ किये हुए दान, होम, तप, देवपूजन तथा पितरों का श्राद्ध-सभी अक्षय होंगे।'

ऐसा कहकर उन महर्षि से प्रशंसित हो वरुण देव अन्तर्धान हो गये। उस जल के द्वारा दूसरों का उपकार करके महर्षि गौतम को भी बड़ा सुख मिला। महात्मा पुरुष का आश्रय मनुष्यों के लिये महत्त्व की ही प्राप्ति करानेवाला होता है। महान् पुरुष ही महात्मा के उस स्वरूप को देखते और समझते हैं, दूसरे अधम मनुष्य नहीं। मनुष्य जैसे पुरुष का सेवन करता है, वैसा ही फल पाता है। महान् पुरुष की सेवा से महत्ता मिलती है और क्षुद्र की सेवा से क्षुद्रता। उत्तम पुरुषों का यह स्वभाव ही है कि वे दूसरों के दुःख को नहीं सहन कर पाते। अपने को दुःख प्राप्त हो जाय, इसे भी स्वीकार कर लेते हैं, किंतु दूसरों के दुःख का निवारण ही करते हैं। दयालु, अभिमानशून्य, उपकारी और जितेन्द्रिय – ये पुण्य के चार खंभे हैं, जिनके आधार पर यह पृथ्वी टिकी हुई है।'

तदनन्तर गौतमजी वहाँ उस परम दुर्लभ जल को पाकर विधिपूर्वक नित्य-नैमित्तिक कर्म करने लगे। उन मुनिश्वर ने वहाँ नित्य होम की सिद्धि के लिये धान, जौ और अनेक प्रकार के नीवार बोआ दिये। तरह-तरह के धान्य, भाँति-भाँति के वक्ष और अनेक प्रकार के फल-फूल वहाँ लहलहा उठे। यह समाचार सुनकर वहाँ दूसरे-दूसरे सहस्त्रों ऋषि-मुनि, पशु-पक्षी तथा बहुसंख्यक जीव जाकर रहने लगे। वह वन इस भूमण्डल में बड़ा सुन्दर हो गया। उस अक्षय जल के संयोग से अनावृष्टि वहाँ के लिये दुःखदायिनी नहीं रह गयी। उस वन में अनेक शुभकर्म परायण ऋषि अपने शिष्य, भार्या और पुत्र आदि के साथ वास करने लगे। उन्होंने कालक्षेप करने के लिये वहाँ धान बोआ दिये। गौतमजी के प्रभाव से उस वन में सब ओर आनन्द छा गया।

एक बार वहाँ गौतम के आश्रम में जाकर बसे हुए ब्राह्मणों की स्त्रियाँ जल के प्रसंग को लेकर अहल्या पर नाराज हो गयीं। उन्होंने अपने पतियों को उकसाया। उन लोगों ने गौतम का अनिष्ट करने के लिये गणेशजी की आराधना की। भक्त पराधीन गणेशजी ने प्रकट होकर वर माँगने के लिये कहा – तब ये बोले – 'भगवन्! यदि आप हमें वर देना चाहते हैं तो ऐसा कोई उपाय कीजिये, जिससे समस्त ऋषि डाँट-फटकार कर गौतम को आश्रम से बाहर निकाल दें।'

गणेशजी ने कहा – ऋषियो! तुम सब लोग सुनो। इस समय तुम उचित कार्य नहीं कर रहे हो। बिना किसी अपराध के उन पर क्रोध करने के कारण तुम्हारी हानि ही होगी। जिन्होंने पहले उपकार किया हो, उन्हें यदि दुःख दिया जाय तो वह अपने लिये हितकारक नहीं होता। जब उपकारी को दुःख दिया जाता है, तब उससे इस जगत् में अपना ही नाश होता है। ऐसी तपस्या करके उत्तम फल की सिद्धि की जाती है। स्वयं ही शुभ फल का परित्याग करके अहितकारक फल को नहीं ग्रहण किया जाता। ब्रह्माजी ने जो यह कहा है कि असाधु कभी साधुता को और साधु कभी असाधुता को नहीं ग्रहण करता, यह बात निश्चय ही ठीक जान पड़ती है। पहले उपवास के कारण जब तुम लोगों को दुःख भोगना पड़ा था, तब महर्षि गौतम ने जल की व्यवस्था करके तुम्हें सुख दिया। परंतु इस समय तुम सब लोग उन्हें दुःख दे रहे हो। संसार में ऐसा कार्य करना कदापि उचित नहीं। इस बात पर तुम सब लोग सर्वथा विचार कर लो। स्त्रियों की शक्ति से मोहित हुए तुम लोग यदि मेरी बात नहीं मानोगे तो तुम्हारा यह बर्ताव गौतम के लिये अत्यन्त हितकारक ही होगा, इसमें संशय नहीं है। ये मुनिश्रेष्ठ गौतम तुम्हें पुनः निश्चय ही सुख देंगे। अतः उनके साथ छल करना कदापि उचित नहीं। इसलिये तुम लोग कोई दूसरा वर माँगो।

सूतजी कहते हैं – ब्राह्मणो! महात्मा गणेश ने ऋषियों से जो यह बात कही, वह यद्यपि उनके लिये हितकर थी, तो भी उन्होंने इसे नहीं स्वीकार किया। तब भक्तों के अधीन होने के कारण उन शिवकुमार ने कहा – 'तुम लोगों ने जिस वस्तु के लिये प्रार्थना की है, उसे में अवश्य करूँगा। पीछे जो होनहार होगी, वह होकर ही रहेगी।' ऐसा कहकर वे अन्तर्धान हो गये। मुनीश्वरो! उसके बाद उन दुष्ट ऋषियों के प्रभाव से तथा उन्हें प्राप्त हुए वर के कारण जो घटना घटित हुई, उसे सुनो। वहाँ गौतम के खेत में जो धान और जौ थे, उनके पास गणेशजी एक दुर्बल गाय बनकर गये। दिये हुए वर के कारण वह गौ काँपती हुई वहाँ जाकर धान और जौ चरने लगी। इसी समय दैववश गौतमजी वहाँ आ गये। वे दयालु ठहरे, इसलिये मुट्ठी भर तिनके लेकर उन्हीं से उस गौ को हाँकने लगे। उन तिनकों का स्पर्श होते ही वह गौ पृथ्वी पर गिर पड़ी और ऋषि के देखते-देखते उसी क्षण मर गयी।

वे दूसरे-दूसरे (द्वेषी) ब्राह्मण और उनकी दुष्ट स्त्रियाँ वहाँ छिपे हुए सब कुछ देख रहे थे। उस गौ के गिरते ही वे सब-के-सब बोल उठे – 'गौतम ने यह क्या कर डाला?' गौतम भी आश्चर्यचकित हो, अहल्या को बुलाकर व्यथित हृदय से दुःखपूर्वक बोले – 'देवि! यह कया हुआ, कैसे हुआ? जान पड़ता है परमेश्वर मुझ पर कुपित हो गये हैं। अब क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? मुझे हत्या लग गयी।'

इसी समय ब्राह्मण और उनकी पत्नियाँ गौतम को डाँटने और दुर्वचनों द्वारा अहल्या को पीड़ित करने लगीं। उनके दुर्बुद्धि शिष्य और पुत्र भी गौतम को बारंबार फटकारने और धिक्कारने लगे।

ब्राह्मण बोले – अब तुम्हें अपना मुँह नहीं दिखाना चाहिये। यहाँ से जाओ, जाओ। गोहत्यारे का मुँह देखने पर तत्काल वस्त्र सहित स्नान करना चाहिये। जब तक तुम इस आश्रम में रहोगे, तब तक अग्निदेव और पितर हमारे दिये हुए किसी भी हव्य-कव्य को ग्रहण नहीं करेंगे। इसलिये पापी गोहत्यारे! तुम परिवार सहित यहाँ से अन्यत्र चले जाओ। विलम्ब न करो।

सूतजी कहते हैं – ऐसा कहकर उन सबने उन्हें पत्थरों से मारना आरम्भ किया। वे गालियाँ दे-देकर गौतम और अहल्या को सताने लगे। उन दुष्टों के मारने और धमकाने पर गौतम बोले – 'मुनियो! मैं यहाँ से अन्यत्र जाकर रहूँगा' ऐसा कहकर गौतम उस स्थान से तत्काल निकल गये और उन सबकी आज्ञा से एक कोस दूर जाकर उन्होंने अपने लिये आश्रम बनाया। वहाँ भी जाकर उन ब्राह्मणों ने कहा – 'जब तक तुम्हारे ऊपर हत्या लगी है, तब तक तुम्हें कोई यज्ञ-यागादि कर्म नहीं करना चाहिये। किसी भी वैदिक देवयज्ञ या पितृयज्ञ के अनुष्ठान का तुम्हें अधिकार नहीं रह गया है।' मुनिवर गौतम उनके कथनानुसार किसी तरह एक पक्ष बिताकर उस दुःख से दुःखी हो बारंबार उन मुनियों से अपनी शुद्धि के लिये प्रार्थना करने लगे। उनके दीनभाव से प्रार्थना करने पर उन ब्राह्मणों ने कहा – 'गौतम! तुम अपने पाप को प्रकट करते हुए तीन बार सारी पृथ्वी को परिक्रमा करो। फिर लौटकर यहाँ एक महीने तक व्रत करो। उसके बाद इस ब्रह्मगिरि की एक सौ एक परिक्रमा करने के पश्चात् तुम्हारी शुद्धि होगी। अथवा यहाँ गंगाजी को ले आकर उन्हीं के जल से स्नान करो तथा एक करोड़ पार्थिवलिंग बनाकर महादेवजी की आराधना करो। फिर गंगा में स्नान करके इस पर्वत की ग्यारह बार परिक्रमा करो। तत्पश्चात् सौ घड़ों के जल से पार्थिव शिवलिंग को स्नान कराने पर तुम्हारा उद्धार होगा।' उन ऋषियों के इस प्रकार कहने पर गौतम ने 'बहुत अच्छा' कहकर उनकी बात मान ली। वे बोले – 'मुनिवरो! में आप श्रीमानों की आज्ञा से यहाँ पार्थिवपूजन तथा ब्रह्मगिरि की परिक्रमा करूँगा।' ऐसा कहकर मुनिश्रेष्ठ गौतम ने उस पर्वत की परिक्रमा करने के पश्चात् पार्थिवलिंगों का निर्माण करके उनका पूजन किया। साध्वी अहल्या ने भी साथ रहकर वह सब कुछ किया। उस समय शिष्य-प्रशिष्य उन दोनों की सेवा करते थे।

(अध्याय २४ - २५)