पत्नी सहित गौतम की आराधना से संतुष्ट हो भगवान् शिव का उन्हें दर्शन देना, गंगा को वहाँ स्थापित करके स्वयं भी स्थिर होना, देवताओं का वहाँ बृहस्पति के सिंहराशि पर आने पर गंगाजी के विशेष माहात्म्य को स्वीकार करना, गंगा का गौतमी (या गोदावरी) नाम से और शिव का त्र्यम्बक ज्योतिर्लिंग के नाम से विख्यात होना तथा इन दोनों की महिमा

सूतजी कहते हैं – पत्नी सहित गौतम ऋषि के इस प्रकार आराधना करने पर संतुष्ट हुए भगवान् शिव वहाँ शिवा और प्रमथगणों के साथ प्रकट हो गये। तदनन्तर प्रसन्न हुए कृपानिधान शंकर ने कहा – 'महामुने! मैं तुम्हारी उत्तम भक्ति से बहुत प्रसन्न हूँ। तुम कोई वर माँगो।' उस समय महात्मा शम्भु के सुन्दर रूप को देखकर आनन्दित हुए गौतम ने भक्तिभाव से शंकर को प्रणाम करके उनकी स्तुति की। लंबी स्तुति और प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़कर वे उनके सामने खड़े हो गये और बोले – 'देव! मुझे निष्पाप कर दीजिये।'

भगवान् शिव ने कहा – मुने! तुम धन्य हो, कृतकृत्य हो और सदा ही निष्पाप हो। इन दुष्टों ने तुम्हार साथ छल किया। जगत् के लोग तुम्हारे दर्शन से पापरहित हो जाते हैं। फिर सदा मेरी भक्ति में तत्पर रहनेवाले तुम कया पापी हो? मुने! जिन दुरात्माओं ने तुम पर अत्याचार किया है, वे ही पापी, दुराचारी और हत्यारे हैं। उनके दर्शन से दूसरे लोग पापिष्ठ हो जायँगे। वे सब-के-सब कृतघ्न हैं। उनका कभी उद्धार नहीं हो सकता।

महादेवजी की यह बात सुनकर महर्षि गौतम मन-ही-मन बड़े विस्मित हुए। उन्होंने भक्तिपूर्वक शिव को प्रणाम करके हाथ जोड़ पुनः इस प्रकार कहा।

गौतम बोले – महेश्वर! उन ऋषियों ने तो मेरा बहुत बड़ा उपकार किया। यदि उन्होंने यह बर्ताव न किया होता तो मुझे आपका दर्शन कैसे होता? धन्य हैं वे महर्षि, जिन्होंने मेरे लिये परम कल्याणकारी कार्य किया है। उनके इस दुराचार से ही मेरा महान् स्वार्थ सिद्ध हुआ है।

गौतमजी की यह बात सुनकर महेश्वर बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने गौतम को कृपादृष्टि से देखकर उन्हें शीघ्र ही यों उत्तर दिया।

शिवजी बोले – विप्रवर! तुम धन्य हो, सभी ऋषियों में श्रेष्ठतर हो। मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हुआ हूँ। ऐसा जानकर तुम मुझसे उत्तम वर माँगो।

गौतम बोले – नाथ! आप सच कहते हैं, तथापि पाँच आदमियों ने जो कह दिया या कर दिया, वह अन्यथा नहीं हो सकता। अतः जो हो गया, सो रहे। देवेश! यदि आप प्रसन्न हैं तो मुझे गंगा प्रदान कीजिये और ऐसा करके लोक का महान् उपकार कीजिये। आपको मेरा नमस्कार है, नमस्कार है।

यों कहकर गौतम ने देवेश्वर भगवान् शिव के दोनों चरणारविन्द पकड़ लिये और लोकहित की कामना से उन्हें नमस्कार किया। तब शंकर देव ने पृथिवी और स्वर्ग के सारभूत जल को निकालकर, जिसे उन्होंने पहले से ही रख छोड़ा था और विवाह में ब्रह्माजी के दिये हुए जल में से जो कुछ शेष रह गया था, वह सब भक्तवत्सल शम्भु ने उन गौतम मुनि को दे दिया। उस समय गंगाजी का जल परम सुन्दर स्त्री का रूप धारण करके वहाँ खड़ा हुआ। तब मुनिवर गौतम ने उन गंगाजी की स्तुति करके उन्हें नमस्कार किया।

गौतम बोले – गंगे! तुम धन्य हो, कृतकृत्य हो। तुमने सम्पूर्ण भुवन को पवित्र किया है। इसलिये निश्चित रूप से नरक में गिरते हुए मुझ गौतम को पवित्र करो।

तदनन्तर शिवजी ने गंगा से कहा – देवि! तुम मुनि को पवित्र करो और तुरंत वापस न जाकर वैवस्वत मनु के अट्टाईसवें कलियुग तक यहीं रहो।

गंगा ने कहा – महेश्वर! यदि मेरा माहात्म्य सब नदियों से अधिक हो और अम्बिका तथा गणों के साथ आप भी यहाँ रहें, तभी में इस धरातल पर रहूँगी।

गंगाजी की यह बात सुनकर भगवान् शिव बोले – गंगे! तुम धन्य हो। मेरी बात सुनो। मैं तुमसे अलग नहीं हूँ, तथापि मैं तुम्हारे कथनानुसार यहाँ स्थित रहूँगा। तुम भी स्थित होओ।

अपने स्वामी परमेश्वर शिव की यह बात सुनकर गंगा ने मन-ही-मन प्रसन्न हो उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। इसी समय देवता, प्राचीन ऋषि, अनेक उत्तम तीर्थ और नाना प्रकार के क्षेत्र वहाँ आ पहुँचे। उन सबने बड़े आदर से जय-जयकार करते हुए गौतम, गंगा तथा गिरिशायी शिव का पूजन किया। तदनन्तर उन सब देवताओं ने मस्तक झुका हाथ जोड़कर उन सबकी प्रसन्नतापूर्वक स्तुति की। उस समय प्रसन्न हुई गंगा और गिरीश ने उनसे कहा – 'श्रेष्ठ देवताओं! वर माँगो। तुम्हारा प्रिय करने की इच्छा से वह वर हम तुम्हें देंगे।'

देवता बोले – देवेश्वर! यदि आप संतुष्ट हैं और सरिताओं में श्रेष्ठ गंगे! यदि आप भी प्रसन्न हैं तो हमारा तथा मनुष्यों का प्रिय करने के लिये आप लोग कृपापूर्वक यहाँ निवास करें।

गंगा बोलीं – देवताओं! फिर तो सबका प्रिय करने के लिये आप लोग स्वयं ही यहाँ क्यों नहीं रहते? मैं तो गौतमजी के पाप का प्रक्षालन करके जैसे आयी हूँ, उसी तरह लौट जाऊँगी। आपके समाज में यहाँ मेरी कोई विशेषता समझी जाती है, इस बात का पता कैसे लगे? यदि आप यहाँ मेरी विशेषता सिद्ध कर सकें तो मैं अवश्य यहाँ रहूँगी – इसमें संशय नहीं है।

सब देवताओं ने कहा – सरिताओं में श्रेष्ठ गंगे! सबके परम सुहृद् बृहस्पतिजी जब-जब सिंहराशि पर स्थित होंगे, तब-तब हम सब लोग यहाँ आया करेंगे, इसमें संशय नहीं है। ग्यारह वर्षों तक लोगों का जो पातक यहाँ प्रक्षालित होगा, उससे मलिन हो जाने पर हम उसी पापराशि को धोने के लिये आदर पूर्वक तुम्हारे पास आयेंगे। हमने यह सर्वथा सच्ची बात कही है। सरिद्वरे! महादेवि! अतः तुमको और भगवान् शंकर को समस्त लोकों पर अनुग्रह तथा हमारा प्रिय करने के लिये यहाँ नित्य निवास करना चाहिये। गुरु जब तक सिंहराशि पर रहेंगे, तभी तक हम यहाँ निवास करेंगे। उस समय तुम्हारे जल में त्रिकाल स्नान और भगवान् शंकर का दर्शन करके हम शुद्ध होंगे। फिर तुम्हारी आज्ञा लेकर अपने स्थान को लौटेंगे।

सूतजी कहते हैं – इस प्रकार उन देवताओं तथा महर्षि गौतम के प्रार्थना करने पर भगवान् शंकर और सरिताओं में श्रेष्ठ गंगा दोनों वहाँ स्थित हो गये। वहाँ की गंगा गौतमी (गोदावरी) नाम से विख्यात हुई और भगवान् शिव का ज्योतिर्मय लिंग त्र्यम्बक कहलाया। यह ज्योतिर्लिंग महान् पातकों का नाश करनेवाला है। उसी दिन से लेकर जब-जब बृहस्पति सिंहराशि में स्थित होते हैं, तब-तब सब तीर्थ, क्षेत्र, देवता, पुष्कर आदि सरोवर, गंगा आदि नदियाँ तथा श्रीविष्णु आदि देवगण अवश्य ही गौतमी के तट पर पधारते और वास करते हैं। वे सब जब तक गौतमी के किनारे रहते हैं, तब तक अपने स्थान पर उनका कोई फल नहीं होता। जब वे अपने प्रदेश में लौट आते हैं, तभी वहाँ इनके सेवन का फल मिलता है। यह त्र्यम्बक नाम से प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग गौतमी के तट पर स्थित है और बड़े-बड़े पातकों का नाश करनेवाला है। जो भक्तिभाव से इस त्र्यम्बक लिंग का दर्शन, पूजन, स्तवन एवं वन्दन करता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। गौतम के द्वारा पूजित त्र्यम्बक नामक ज्योतिर्लिंग इस लोक में समस्त अभीष्टों को देनेवाला तथा परलोक में उत्तम मोक्ष प्रदान करनेवाला है। मुनीश्वरो! इस प्रकार तुमने जो कुछ पूछा था, वह सब मैंने कह सुनाया।

(अध्याय २६)