वैद्यनाथेश्वर ज्योतिर्लिंग के प्राकट्य की कथा तथा महिमा

सूतजी कहते हैं – अब मैं वैद्यनाथेश्वर ज्योतिर्लिंग का पापहारी माहात्म्य बताऊँगा। सुनो! राक्षसराज रावण जो बड़ा अभिमानी और अपने अहंकार को प्रकट करनेवाला था, उत्तम पर्वत कैलास पर भक्तिभाव से भगवान् शिव की आराधना कर रहा था। कुछ काल तक आराधना करने पर जब महादेवजी प्रसन्न नहीं हुए, तब वह शिव की प्रसन्नता के लिये दूसरा तप करने लगा। पुलस्त्यकुलनन्दन श्रीमान् रावण ने सिद्धि के स्थानभूत हिमालय पर्वत से दक्षिण वृक्षों से भरे हुए वन में पृथ्वी पर एक बहुत बड़ा गढ्ढा खोदकर उसमें अग्नि की स्थापना की और उसके पास ही भगवान् शिव को स्थापित करके हवन आरम्भ किया। ग्रीष्म-ऋतु में वह पाँच अग्नियों के बीच में बैठता, वर्षा-ऋतु में खुले मैदान में चबूतरे पर सोता और शीतकाल में जल के भीतर खड़ा रहता। इस तरह तीन प्रकार से उसकी तपस्या चलती थी। इस रीति से रावण ने बहुत तप किया तो भी दुरात्माओं के लिये जिनको रिझाना कठिन है, वे परमात्मा महेश्वर उस पर प्रसन्न नहीं हुए। तब महामनस्वी दैत्यराज रावण ने अपना मस्तक काटकर शंकरजी का पूजन आरम्भ किया। विधिपूर्वक शिव की पूजा करके वह अपना एक-एक सिर काटता और भगवान् को समर्पित कर देता था। इस तरह उसने क्रमशः अपने नौ सिर काट डाले। जब एक ही सिर बाकी रह गया, तब भक्तवत्सल भगवान् शंकर संतुष्ट एवं प्रसन्न हो वहीं उसके सामने प्रकट हो गये। भगवान् शिव ने उसके सभी मस्तकों को पूर्ववत् नीरोग करके उसे उसकी इच्छा के अनुसार अनुपम उत्तम बल प्रदान किया। भगवान् शिव का कृपाप्रसाद पाकर राक्षस रावण ने नतमस्तक हो हाथ जोड़कर उनसे कहा – 'देवेश्वर! प्रसन्न होइये। में आपको लंका में ले चलता हूँ। आप मेरे इस मनोरथ को सफल कीजिये। में आपकी शरण में आया हूँ।'

रावण के ऐसा कहने पर भगवान् शंकर बड़े संकट में पड़ गये और अनमने होकर बोले – 'राक्षसराज! मेरी सारगर्भित बात सुनो। तुम मेरे इस उत्तम लिंग को भक्तिभाव से अपने घर को ले जाओ। परंतु जब तुम इसे कहीं भूमि पर रख दोगे, तब यह वहीं सुस्थिर हो जायगा, इसमें संदेह नहीं है। अब तुम्हारी जेसी इच्छा हो, वैसा करो।'

सूतजी कहते हैं – ब्राह्मणो! भगवान् शंकर के ऐसा कहने पर राक्षसराज रावण 'बहुत अच्छा' कह वह शिवलिंग साथ लेकर अपने घर की ओर चला। परंतु मार्ग में भगवान् शिव की माया से उसे मूत्रोत्सर्ग की इच्छा हुई। पुलस्त्यनन्दन रावण सामर्थ्यशाली होने पर भी मूत्र के वेग को रोक न सका। इसी समय वहाँ आस-पास एक ग्वाले को देखकर उसने प्रार्थनापूर्वक वह शिवलिंग उसके हाथ में थमा दिया और स्वयं मूत्रत्याग के लिये बैठ गया। एक मुहूर्त बीतते-बीतते वह ग्वाला उस शिवलिंग के भार से अत्यन्त पीड़ित हो व्याकुल हो गया, तब उसने उसे पृथ्वी पर रख दिया। फिर तो वह हीरकमय शिवलिंग वहीं स्थित हो गया। वह दर्शन करने मात्र से सम्पूर्ण अभीष्टों को देनेवाला और पापराशि को हर लेनेवाला है। मुने! वही शिवलिंग तीनों लोकों में वैद्यनाथेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुआ, जो सत्पुरुषों को भोग और मोक्ष देनेवाला है। यह दिव्य उत्तम एवं श्रेष्ठ ज्योतिर्लिंग दर्शन और पूजन से भी समस्त पापों को हर लेता है और मोक्ष की प्राप्ति कराता है। वह शिवलिंग जब सम्पूर्ण लोकों के हित के लिये वहीं स्थित हो गया, तब रावण भगवान् शिव का परम उत्तम वर पाकर अपने घर को चला गया। वहाँ जाकर उस महान् असुर ने बड़े हर्ष के साथ अपनी प्रिया मन्दोदरी को साड़ी बातें कह सुनायीं। इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवताओं और निर्मल मुनियों ने जब यह समाचार सुना, तब वे परस्पर सलाह करके वहाँ आये। उन सबका मन भगवान् शिव में लगा हुआ था। उन सब देवताओं ने उस समय वहाँ बड़ी प्रसन्नता के साथ शिव का विशेष पूजन किया। वहाँ भगवान् शंकर का प्रत्यक्ष दर्शन करके देवताओं ने उस शिवलिंग की विधिवत् स्थापना की और उसका वैद्ययाथ नाम रखकर उसकी वन्दना और स्तवन करके वे स्वर्गलोक को चले गये।

ऋषियों ने पूछा – सूतजी! जब वह शिवलिंग वहीं स्थित हो गया तथा रावण अपने घर को चला गया, तब वहाँ कौन-सी घटना घटित हुई – यह आप बताइये।

सूतजी ने कहा – ब्राह्मणो! भगवान् शिव का परम उत्तम वर पाकर महान् असुर रावण अपने घर को चला गया। वहाँ उसने अपनी प्रिया से सब बातें कहीं और वह अत्यन्त आनन्द का अनुभव करने लगा। इधर इस समाचार को सुनकर देवता घबरा गये कि पता नहीं यह देवद्रोही महादुष्ट रावण भगवान् शिव के वरदान से बल पाकर क्या करेगा। उन्होंने नारदजी को भेजा। नारदजी ने जाकर रावण से कहा – 'तुम कैलास पर्वत को उठाओ, तब पता लगेगा कि शिवजी का दिया हुआ वरदान कहाँ तक सफल हुआ।' रावण को यह बात जँच गयी। उसने जाकर कैलास को उखाड़ लिया। इससे सारा कैलास हिल उठा। तब गिरिजा के कहने से महादेवजी ने रावण को घमंडी समझकर इस प्रकार शाप दिया।

महादेवजी बोले – रे रे दुष्ट भक्त दुर्बद्धि रावण! तू अपने बल पर इतना घमंड न कर। तेरी इन भुजाओं का घमंड चूर करनेवाला वीर पुरुष शीघ्र ही इस जगत् में अवतीर्ण होगा।

सृतजी कहते हैं – इस प्रकार वहाँ जो घटना हुई उसे नारदजी ने सुना। रावण भी प्रसन्न चित्त हो जैसे आया था, उसी तरह अपने घर को लौट गया। इस प्रकार मैंने वैद्यनाथेश्वर का माहात्म्य बताया है। इसे सुननेवाले मनुष्यों का पाप भस्म हो जाता है।

(अध्याय २७ - २८)