नागेश्वर नामक ज्योतिर्लिंग का प्रादर्भाव और उसकी महिमा
सूतजी कहते हैं – ब्राह्मणो! अब मैं परमात्मा शिव के नागेश नामक परम उत्तम ज्योतिर्लिंग के आविर्भाव का प्रसंग सुनाऊँगा। दारुका नाम से प्रसिद्ध कोई राक्षसी थी, जो पार्वती के वरदान से सदा घमंड में भरी रहती थी। अत्यन्त बलवान् राक्षस दारुक उसका पति था। उसने बहुत-से राक्षसों को साथ लेकर वहाँ सत्पुरुषों का संहार मचा रखा था। वह लोगों के यज्ञ और धर्म का नाश करता फिरता था। पश्चिम समुद्र के तट पर उसका एक वन था, जो सम्पूर्ण समृद्धियों से भरा रहता था। उस वन का विस्तार सब ओर से सोलह योजन था। दारुका अपने विलास के लिये जहाँ जाती थी, वहीं भूमि, वृक्ष तथा अन्य सब उपकरणों से युक्त वह वन भी चला जाता था। देवी पार्वती ने उस वन की देख-रेख का भार दारुका को सौंप दिया था। दारुका अपने पति के साथ इच्छानुसार उसमें विचरण करती थी। राक्षस दारुक अपनी पत्नी दारुका के साथ वहाँ रहकर सबको भय देता था। उससे पीड़ित हुई प्रजा ने महर्षि और्व की शरण में जाकर उनको अपना दुःख सुनाया। और्व ने शरणागतों की रक्षा के लिये राक्षसों को यह शाप दे दिया कि 'ये राक्षस यदि पृथ्वी पर प्राणियों की हिंसा या यज्ञों का विध्वंस करेंगे तो उसी समय अपने प्राणों से हाथ धो बैठेंगे।' देवताओं ने जब यह बात सुनी, तब उन्होंने दुराचारी राक्षसों पर चढ़ाई कर दी। राक्षस घबराये। यदि वे लड़ाई में देवताओं को मारते तो मुनि के शाप से स्वयं मर जाते हैं और यदि नहीं मारते तो पराजित होकर भूखों मर जाते हैं। उस अवस्था में राक्षती दारुका ने कहा कि 'भवानी के वरदान से मैं इस सारे वन को जहाँ चाहूँ, ले जा सकती हूँ!' यों कहकर वह समस्त वन को ज्यों-का-त्यों ले जाकर समुद्र में जा बसी। राक्षस लोग पृथ्वी पर न रहकर जल में निर्भय रहने लगे और वहाँ प्राणियों को पीड़ा देने लगे।
एक बार बहुत-सी नावें उधर आ निकलीं, जो मनुष्यों से भरी थीं। राक्षसों ने उनमें बैठे हुए सब लोगों को पकड़ लिया और बेड़ियों से बाँधकर कारागार में डाल दिया। वे उन्हें बारंबार धमकियाँ देने लगे। उनमें सुप्रिय नाम से प्रसिद्ध एक वैश्य था, जो उस दल का सरदार था। वह बड़ा सदाचारी, भस्म-रुद्राक्षधारी तथा भगवान् शिव का परम भक्त था। सुप्रिय शिव की पूजा किये बिना भोजन नहीं करता था। वह स्वयं तो शंकर का पूजन करता ही था, बहुत-से अपने साथियों को भी उसने शिव की पूजा सिखा दी थी। फिर सब लोग 'नमः शिवाय' मन्त्र का जप और शंकरजी का ध्यान करने लगे। सुप्रिय को भगवान् शिव का दर्शन भी होता था। दारुक राक्षस को जब इस बात का पता लगा, तब उसने आकर सुप्रिय को धमकाया। उसके साथी राक्षस सुप्रिय को मारने दौड़े। उन राक्षसों को आया देख सुप्रिय के नेत्र भय से कातर हो गये, वह बड़े प्रेम से शिव का चिन्तन और उनके नामों का जप करने लगा।
वैश्यपति ने कहा – देवेश्वर शंकर! मेरी रक्षा कीजिये। कल्याणकारी त्रिलोकीनाथ! दुष्टहन्ता भक्तवत्सल शिव! हमें इस दुष्ट से बचाइये। देव! अब आप ही मेरे सर्वस्व हैं; प्रभो! मैं आपका हूँ, आपके अधीन हूँ और आप ही सदा मेरे जीवन एवं प्राण हैं।
सूतजी कहते हैं – सुप्रिय के इस प्रकार प्रार्थना करने पर भगवान् शंकर एक विवर से निकल पड़े। उनके साथ ही चार दरवाजों का एक उत्तम मन्दिर भी प्रकट हो गया। उसके मध्य-भाग में अद्भुत ज्योतिर्मय शिवलिंग प्रकाशित हो रहा था। उसके साथ शिव-परिवार के सब लोग विद्यमान थे। सुप्रिय ने उनका दर्शन करके पूजन किया, पूजित होने पर भगवान् शम्भु ने प्रसन्न हो स्वयं पाशुपतास्त्र लेकर प्रधान-प्रधान राक्षसों, उनके सारे उपकरणों तथा सेवकों को भी तत्काल ही नष्ट कर दिया और उन दुष्टहन्ता शंकर ने अपने भक्त सुप्रिय की रक्षा की। तत्पश्चात् अद्भुत लीला करनेवाले और लीला से ही शरीर धारण करनेवाले शम्भु ने उस वन को यह वर दिया कि आज से इस वन में सदा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र – इन चारों वर्णों के धर्मो का पालन हो। यहाँ श्रेष्ठ मुनि निवास करें और तमोगुणी राक्षस इसमें कभी न रहें। शिवधर्म के उपदेशक, प्रचारक और प्रवर्तक लोग इसमें निवास करें!
सूतजी कहते हैं – इसी समय राक्षसी दारुका ने दीनचित्त से देवी पार्वती की स्तुति की। देवी पार्वती प्रसन्न हो गयीं और बोलीं – 'बताओ, तेरा क्या कार्य करूँ?' उसने कहा – 'मेरे वंश की रक्षा कीजिये?' देवी बोलीं – 'मैं सच कहती हूँ, तेरे कुल की रक्षा करूँगी।' ऐसा कहकर देवी भगवान् शिव से बोलीं – 'नाथ! आपकी यह बात युग के अन्त में सच्ची होगी। तब तक तामसी सृष्टि भी रहे, ऐसा मेरा विचार है। मैं भी आपकी ही हूँ और आपके ही आश्रय में रहती हूँ। अतः मेरी बात को भी प्रमाणित (सत्य) कीजिये। यह राक्षसी दारुका देवी है – मेरी ही शक्ति है और राक्षसियों में बलिष्ठ है। अतः यही राक्षसों के राज्य का शासन करे। ये राक्षस-पत्नियाँ जिन पुत्रों को पैदा करेंगी, वे सब मिलकर इस वन में निवास करें, ऐसी मेरी इच्छा है।
शिव बोले – प्रिये! यदि तुम ऐसी बात कहती हो तो मेरा यह वचन सुनो। मैं भक्तों का पालन करने के लिये प्रसन्नतापूर्वक इस वन में रहँगा। जो पुरुष यहाँ वर्णधर्म के पालन में तत्पर हो प्रेमपूर्वक मेरा दर्शन करेगा, वह चक्रवर्ती राजा होगा। कलियुग के अन्त और सत्ययुग के आरम्भ में महासेन का पुत्र वीरसेन राजाओं का भी राजा होगा। वह मेरा भक्त और अत्यन्त पराक्रमी होगा और यहाँ आकर मेरा दर्शन करेगा। दर्शन करते ही वह चक्रवर्ती सम्राट् हो जायगा।
सृतजी कहते हैं – ब्राह्मणो! इस प्रकार बड़ी-बड़ी लीलाएं करनेवाले वे दम्पति परस्पर हास्ययुक्त वार्तालाप करके स्वयं वहाँ स्थित हो गये। ज्योतिर्लिंगस्वरूप महादेवजी वहाँ नागेश्वर कहलाये और शिवादेवी नागेश्वरी के नाम से विख्यात हुईं। वे दोनों ही सत्पुरुषों को प्रिय हैं।
इस प्रकार ज्योतियों के स्वामी नागेश्वर नामक महादेवजी ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हुए। वे तीनों लोकों की सम्पूर्ण कामनाओं को सदा पूर्ण करनेवाले हैं। जो प्रतिदिन आदरपूर्वक नागेश्वर के प्रादर्भाव का यह प्रसंग सुनता है, वह बुद्धिमान् मानव महापातकों का नाश करनेवाले सम्पूर्ण मनोरथों को प्राप्त कर लेता है।
(अध्याय २९ - ३०)