रामेश्वर नामक ज्योतिर्लिंग के आविर्भाव तथा माहात्म्य का वर्णन
सृतजी कहते हैं – ऋषियो! अब मैं यह बता रहा हूँ कि रामेश्वर नामक ज्योतिर्लिंग पहले किस प्रकार प्रकट हुआ। इस प्रसंग को तुम आदरपूर्वक सुनो। भगवान् विष्णु के रामावतार में जब रावण सीताजी को हरकर लंका में ले गया, तब सुग्रीव के साथ अठारह पद्म वानरसेना लेकर श्रीराम समुद्रतट पर आये। वहाँ वे विचार करने लगे कि कैसे हम समुद्र को पार करेंगे और किस प्रकार रावण को जीतेंगे। इतने में ही श्रीराम को प्यास लगी। उन्होंने जल माँगा और वानर मीठा जल ले आये। श्रीराम ने प्रसन्न होकर वह जल ले लिया। तब तक उन्हें स्मरण हो आया कि “मैंने अपने स्वामी भगवान् शंकर का दर्शन तो किया ही नहीं। फिर यह जल कैसे ग्रहण कर सकता हूं? ऐसा कहकर उन्होंने उस जल को नहीं पिया। जल रख देने के पश्चात् रघुनन्दन ने पार्थिव-पूजन किया। आवाहन आदि सोलह उपचारों को प्रस्तुत करके विधिपूर्वक बड़े प्रेम से शंकरजी की अर्चना की। प्रणाम तथा दिव्य स्तोत्रों द्वारा यत्नपूर्वक शंकरजी को संतुष्ट करके श्रीराम ने भक्तिभाव से उनसे प्रार्थना की।
श्रीराम बोले – उत्तम व्रत का पालन करनेवाले मेरे स्वामी देव महेश्वर! आपको मेरी सहायता करनी चाहिये। आपके सहयोग के बिना मेरे कार्य की सिद्धि अत्यन्त कठिन है। रावण भी आपका ही भक्त है। वह सबके लिये सर्वथा दुर्जय है, परंतु आपके दिये हुए वरदान से वह सदा दर्प में भरा रहता है। वह त्रिभुवनविजयी महावीर है। इधर मैं भी आपका दास हूँ, सर्वधा आपके अधीन रहनेवाला हूँ। सदाशिव! यह विचार कर आपको मेरे प्रति पक्षपात करना चाहिये।
सूतजी कहते हैं – इस प्रकार प्रार्थना और बारंबार नमस्कार करके उन्होंने उच्चस्वर से 'जय शंकर, जय शिव!' इत्यादि का उद्घोष करते हुए शिव का स्तवन किया। फिर उनके मन्त्र के जप और ध्यान में तत्पर हो गये। तत्पश्चात् पुनः पूजन करके वे स्वामी के आगे नाचने लगे। उस समय उनका हृदय प्रेम से द्रवित हो रहा था, फिर उन्होंने शिव के संतोष के लिये गाल बजाकर अव्यक्त शब्द किया। उस समय भगवान् शंकर उन पर बहुत प्रसन्न हुए और वे ज्योतिर्मय महेश्वर वामांगभूता पार्वती तथा पार्षदगणों के साथ शास्त्रोक्त निर्मल रूप धारण करके तत्काल वहाँ प्रकट हो गये। श्रीराम की भक्ति से संतुष्टचित होकर महेश्वर ने उनसे कहा – 'श्रीराम! तुम्हारा कल्याण हो, वर माँगो।' उस समय उनका रूप देखकर वहाँ उपस्थित हुए सब लोग पवित्र हो गये। शिवधर्म परायण श्रीरामजी ने स्वयं उनका पूजन किया। फिर भाँति-भाँति की स्तुति एवं प्रणाम करके उन्होंने भगवान् शिव से लंका में रावण के साथ होनेवाले युद्ध में अपने लिये विजय की प्रार्थना की। तब रामभक्ति से प्रसन्न हुए महेश्वर ने कहा – 'महाराज! तुम्हारी जय हो।' भगवान् शिव के दिये हुए विजयसूचक वर एवं युद्ध की आज्ञा को पाकर श्रीराम ने नतमस्तक हो हाथ जोड़कर उनसे पुनः प्रार्थना की।
श्रीराम बोले – मेरे स्वामी शंकर! यदि आप संतुष्ट हैं तो जगत् के लोगों को पवित्र करने तथा दूसरों की भलाई करने के लिये सदा यहाँ निवास करें।
सूतजी कहते हैं – श्रीराम के ऐसा कहने पर भगवान् शिव वहाँ ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थित हो गये। तीनों लोकों में रामेश्वर के नाम से उनकी प्रसिद्धि हुई। उनके प्रभाव से ही अपार समुद्र को अनायास पार करके श्रीराम ने रावण आदि राक्षसों का शीघ्र ही संहार किया और अपनी प्रिया सीता को प्राप्त कर लिया। तबसे इस भूतल पर रामेश्वर की अद्भुत महिमा का प्रसार हुआ। भगवान् रामेश्वर सदा भोग और मोक्ष देने वाले तथा भक्तों की इच्छा पूर्ण करनेवाले हैं। जो दिव्य गंगाजल से रामेश्वर शिव को भक्तिपूर्वक स्नान कराता है, वह जीवन्मुक्त ही है। इस संसार में देवदुर्लभ समस्त भोगों का उपभोग करके अन्त में उत्तम ज्ञान पाकर वह निश्चय ही कैवल्य मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार मैंने तुम लोगों से भगवान शिव के रामेश्वर नामक दिव्य ज्योतिर्लिंग का वर्णन किया, जो अपनी महिमा सुननेवालों के समस्त पापों का अपहरण करनेवाला है।
(अध्याय ३१)